कर्म-योग और कर्म-कौशल

March 1969

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कर्म की कुशलता ही कर्म-योग है और कर्म में कुशलता तब आती है, जब प्रत्येक कर्म नियत समय, क्रम और आवश्यकता के अनुसार उचित परिमाण में किया जाता रहे। अस्त-व्यस्त और अव्यवस्थित में काम करने से कर्म कौशल की उपलब्धि नहीं होती।

दो माली एक साथ दो बाग लगाते हैं। कुछ ही समय में एक माली की वाटिका पल्लवित, पुष्पित और विकसित हो उठती है। सारा बाग इधर से उधर तक समान रूप से हरा-भरा लहराता हुआ अपनी सुन्दरता और सुवास से वातावरण को ओत-प्रोत करता है। जो भी अपना पराया, शत्रु-मित्र और आने-जाने वाला उसके पास से निकलता है, उसका हृदय प्रसन्न हो उठता है, आँखें तृप्त हो जाती हैं, तब मन सुवासित हो उठता हैं, और मुख से अनायास ही निकल पड़ता है-अहा कितनी सुन्दर वाटिका है, कैसा मनमोहक बाग है। इसका माल बड़ा कुशल व्यक्ति मालूम होता है। माली अपनी इस सफलता को देखता, सुनता और आत्मा में एक अनिर्वचनीय आनन्द का, सुख-सन्तोष का अनुभव करता है। उसे अपने श्रम, अपनी साधना और अपनी चिन्ता का श्रेय मिल जाता है। यही कर्म कुशलता है, कर्म-योग है।

दूसरे माली का बाग कहीं हरा-भरा कहीं नीरस और शुष्क कोई डाली फूलों से सजी है तो कोई नमस्कार कर रहा है। कहीं कलियाँ खिलकर फूल बन रही हैं तो कहीं विकसित होने से पहले ही मुरझा गई हैं। किसी ओर तो सुगन्ध आ रही है तो कहीं कूड़े-कर्कट की दुर्गन्ध उठ रही है। न क्यारियाँ ठीक हैं और न पौधों की काट-छाँट है। हर ओर अव्यवस्था और अस्त-व्यस्तता ही दृष्टि गोचर होती है। बाग की यत्र–तात्रिक सुन्दरता भी उस सार्वत्रिक कुरूपता में मिलकर कुरूप बन जाती है, असंगत और अनुपयुक्त लगती है।

ऐसा विकृत बाग न तो किसी को प्रसन्न कर पाता है और न सुवासित, उसे देखकर न तो कोई ठहरता है और न प्रशंसा करता है। बहुत बार तो लोग सहसा देखकर यही निर्णय नहीं कर पाते हैं कि वह कोई वाटिका है या बन स्थली। लोग देखते और योंहीं बने जाते हैं और यदि कोई कुछ टिप्पणी करता भी हैं तो कहता हैं-बड़ा रद्दी बाग है, इसका माली बड़ा अयोग्य और अकुशल मालूम होता है।”

बस, उस माली का सारा श्रेय और कर्म व्यर्थ चना गया। उसकी साधना असफल हो गई और वह अपनी आत्मा में एक ग्लानि, एक क्षोभ, एक लज्जा, एक निराशा और एक असंतोष अनुभव करता है। उसका सुख और संतोष श्रम और श्रेय सभी कुछ नष्ट हो जाता है। यही अकर्म, अकुशलता और अनायोग है।

दोनों माली मनुष्य हैं, दोनों ने एक जैसा ही काम लिया। दोनों के साधन और सुभीते एक जैसे थे और दोनों ने सफलता के लक्ष्य से परिश्रम किया-तप किया कारण है कि एक श्रेय का और दूसरा हेय का अधिकारी बना? कारण है, और वह यह कि उन दोनों में से एक कर्मयोगी है और दूसरा कर्मभोगी।

एक ने अपने कर्तव्य की प्रत्येक शाखा पर ध्यान और मनोयोग दिया है। उसने समय पर बीज बोये, समय पर समुचित पानी दिया। क्यारियों की रचना की, अंकुरों की रक्षा और पौधों की खोज खबर रखी। कहाँ पर विजातीय वनस्पति उग रही है, कहाँ पर विजातीय वनस्पति उग रही है कहाँ पर कीड़ा लग सकता है, कौन-सा पौधा झुक सकता है? हवा का कौन-सा रुख किसी डाल को हानि पहुँचा सकता है और किधर से कौन जन्तु आ सकता है-इनमें से किसी बात से वह गाफिन नहीं रहा। उसने हर पौधे, हर अंकुर, हर पत्ते हर कली और हर फूल की सुरक्षा ओर विकास की चिन्ता की। विजातीय वनस्पति को निराया और जानवरों का मार्ग अवरुद्ध किया। उसकी इस सतर्कता, सावधानी और जागरूकता ने उसे सफलता और श्रेय का अधिकारी बनाया। उसने कर्म योगपूर्वक किया वह कर्म-योगी रहा।

दूसरे ने इनमें से किसी बात पर ध्यान नहीं दिया। बीज सूख रहा है, सूखने दिया। पानी की व्यवस्था नहीं की, अंकुर निकल रहे हैं या नहीं, इस बात को क्यारी-क्यारी के पास जाकर नहीं देखा। पौधा सड़ रहा है, झुक या गिर रहा है, उसने परवाह नहीं की, फूल मुरझा रहे है, कलियाँ सूख रही हैं, पत्ते चरे जा रहे हैं, इस बात से वह निरपेक्ष रहा। क्यारी टूट गई है या धारा फूट निकली है, उसने न देखा और न उसकी व्यवस्था की। वह जोत-बोकर भाग्य के भरोसे बैठ रहा। जो पौधे स्वयं की शक्ति से प्रफुल्ल हो गये, जो फूल स्वयं खिल उठे उसी में वह संतुष्ट हो गया और उस संयोग को ही अपनी सफलता मानकर आलसी बन गया। दो-चार खिले पौधों में उसकी आसक्ति हो गई और वह ऊम–घूम कर उनकी ही हाजिरी बजाने जगा। दूसरे पौधों और उनकी दशा से विमुख हो गया, सफल पौधों के प्रति अपनी आसक्ति की उपासना में लग गया। उसी में अपनत्व और अहंकार को केन्द्रित करके बैठ गया। परिणामस्वरूप शेष बाग वीरान हो गया। माली की निन्दा और उसकी अकर्मण्यता की भर्त्सना हुई और अन्ततः वह अशान्ति, असंतोष और असफलता का भागी बना। यही अकुशलता है, कर्म-भोग है।

इस उदाहरण का सत्य, सिद्ध करता है कि मानव जीवन की सफलता कर्म-योग में है, कर्म-भोग में नहीं। इसलिये मनुष्य को श्रेय अथवा निःश्रेयस् प्राप्त करने के लिये कर्म-भोगी नहीं, कर्म-योगी बनना चाहिये। उसे जीवन की हर छोटी बड़ी शाखा पर समान रूप से सम्पूर्ण योग्यता और मनोयोग से ध्यान देना चाहिये। उस काम को तो जिसमें अधिक लाभ है, जिसका फल अधिक मूल्यवान् है, पूरे तन-मन से करना ओर जो अपेक्षाकृत कम लाभ की सम्भावना वाला है उसकी उपेक्षा करना कर्म-कौशल नहीं है। कार्य कुशलता का प्रमाण इस बात में है कि छोटे से छोटा काम भी इस कौशल से किया जाये कि वह सुन्दर और महत्त्वपूर्ण बनकर कर्ता की ईमानदारी का साक्षी जैसा बोल उठे। कर्म का स्वरूप ही मनुष्य के गुण कर्म स्वभाव की तस्वीर है, उसी के अनुसार गुणी एवं गुणज्ञ लोग किसी कर्म-योगी को अंक दिया करते हैं, उसका ठीक-ठीक मूल्यांकन किया करते हैं।

मनुष्य का सारा जीवन ही कर्मठता से भरा हुआ हैं। किसी समय भी वह-कर्म रहित होकर नहीं रह सकता। सोते-जागते उठते-बैठते यहाँ तक कि श्वाँस लेने में भी वह एक कर्म ही करता रहता है। और तो और, यदि श्वाँस लेने की क्रिया ही ठीक से पूरी न की जाये, उसमें भी अस्त-व्यस्तता व्यवधान अथवा प्रमाद बरता जाये तो स्वास्थ्य के लिये एक बड़ा संकट उपस्थित हो जाये और उसकी यह सामान्य क्रिया भी असफलता की गोद में चली जाये।

आदि से लेकर अन्त तक मनुष्य के जीवन में कर्म ही कर्म भरे पड़े हैं। परिवार के लिये अन्न, वस्त्र आदि की व्यवस्था, बच्चों की पढ़ाई, रोजी-रोजगार बीमारियों का चक्कर, शादी-ब्याह मेल-मिलाप आदि तरह-तरह के कर्म उसे करते ही रहने पड़ते हैं। इतने और इतने से भी और न जाने कितने ज्यादा कर्मों के बीच कर्म कुशलता ही वह सम्बल है, जिसके आधार पर सभी ओर सफलता और सभी ओर सुख-संतोष पाया जा सकता है। अन्यथा, यदि एक कर्म सफल होकर अंजलि भर सुख देगा तो चार असफल होकर पास की भी सुख-शांति छीन ले जायेंगे। कर्म कौशल इसी में है कि कामों की एक ऐसी व्यवस्था, ऐसा विधान बनाया जाये, जिसकी धुरी पर सारे कर्तव्य अपनी-अपनी कक्षा में वाँछित गति से चक्कर लगाते रहें, जिससे हर काम पर दृष्टि रखी जाये और सब पर उचित ध्यान दिया जा सके। किन्हीं एक दो रुचिकर कामों से आसक्ति जोड़कर बैठ रहना सारे कर्म-कलाप को छितरा देगा और तब उनको समेटने और सँभालने में इतना और आवश्यक रूप से श्रम करना पड़ेगा कि जिन्दगी बोझ बनकर रह जायेगी।

सम्पूर्ण कर्म व्यवस्था तभी ठीक रह सकती हैं, जब प्रत्येक कार्य को चतुराई के साथ अपेक्षित मनोयोग से किया जाये। न तो किसी काम को छोड़ा ही जा सकता है और न किसी को पकड़कर बैठाया ही जा सकता है। समय और परिस्थिति के अनुसार सारे कामों को पूरा करना आवश्यक है। जिस ओर ध्यान न दिया जायेगा, उसी ओर अशाँतिदायक अव्यवस्था फैल जायेगी। उदाहरण के लिये मान लीजिये, बच्चों को खूब खिला-पिलाकर स्वस्थ तो बना दिया, किन्तु उनकी शिक्षा की ओर ध्यान नहीं दिया, तो निश्चय ही वे अशिक्षित बच्चे आगे चलकर एक बड़ी अशान्ति एवं अव्यवस्था के कारण बनेंगे। दिन और रात परिश्रम करके धन की प्रचुरता कर ली पर उसकी पुण्य, परमार्थ अथवा अन्य आवश्यक कामों में व्यय करने में कृपणता की तो क्या वह धन चोरों, डाकुओं, ईर्ष्यालुओं और शत्रुओं की दुरभि संधि का केन्द्र बनकर जीवन में भय और शंका उत्पन्न नहीं करेगा? क्या वह परिवार में कलह और संघर्ष का सूत्रपात नहीं करेगा। दिन भर काम तो खूब किया जाये पर आहार की ओर ध्यान न दिया जाये तो क्या स्वास्थ्य सुरक्षित रखा जा सकता हैं। इसकी प्रकार पत्नी को भोजन, वस्त्र तो प्रकाम मात्रा में दिया जाये पर उसकी प्रेम पिपासा की उपेक्षा कर दी जाये। तो क्या यह विश्वास किया जा सकता है कि वह संतुष्ट रहेगी और कलह अथवा क्लेश पैदा नहीं करेगी।

ओर भी, यदि किसी एक ओर आसक्ति जोड़कर बैठ रहा जाये तो भी जीवन में शांति तथा स्थिरता के लिये खतरा पैदा हो जायेगा। पुत्र से आसक्ति है, उसकी पढ़ाई, रहन-सहन और स्वास्थ्य, सुन्दरता पर पूरा ध्यान देते हैं पर पुत्री की उपेक्षा कर देते हैं तो क्या यह आशा की जा सकती है कि उस पर इस पक्षपात की अशाँतिकारक प्रतिक्रिया न होगी। इसी प्रकार यदि शरीर से आसक्ति रख कर आत्मा की और आत्मा को प्रधानता देकर शरीर की सर्वथा उपेक्षा कर दी जाये तो न लोक बनेगा और न परलोक, दोनों बिगड़ जायेंगे।

इन दोनों के अपेक्षित अनुपात ही लोक, परलोक के संराधक हो सकते हैं। कला से आसक्ति रखकर परिश्रम साध्य कर्मों के अनास्थावादी जीवन में कभी सुखी नहीं रह सकते। कला यदि आत्मा को विकसित करती है तो परिश्रम शरीर यात्रा का सहायक है, दोनों आवश्यक हैं, दोनों को अपेक्षित महत्व मिलना ही चाहिये। इसी महत्व के समुचित संतुलन का निर्वाह ही कर्म-कौशल अथवा कर्म-योग माना गया है, इसके विपरीत आसक्ति अथवा उपेक्षा का आरोप अकुशलता अथवा कर्म-भोग कहा गया है। जीवन में यदि ऐसी सात्विक सुख-शांति चाहिये, जो कि लोक से लेकर परलोक तक सहायक बने तो मनुष्य को कुशल तथा सफल माली की तरह कर्म-भोगी नहीं कर्म-योगी बनना चाहिये।


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