आत्मा की समीपता की ओर कदम

March 1969

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जीव-विज्ञान के अनुसन्धानों में यद्यपि कोशिका (सेल्स) को सबसे अधिक आश्चर्यजनक रूप में देखा गया है। उसे वैज्ञानिक ब्रह्माण्ड का छोटा-सा नक्शा मानते हैं। उसके अन्दर सूक्ष्म रूप में वह सब कुछ है जो इन स्थूल आँखों से दिखाई देता है। रोम-रोम प्रति लागे कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड” वाली तुलसीदास की उक्ति का विज्ञान ने कोशिका के रूप में सत्य मान लिया।

किन्तु हम जो कुछ देखते हैं, उससे भी अधिक आश्चर्यजनक, रहस्यपूर्ण, कौतूहल-वर्धक और महत्त्वपूर्ण वह हैं, जिसकी दूरी और सीमायें इतनी व्यापक और विशाल हैं कि हमारी आँखें उसे देखने में समर्थ नहीं हुई। हमारे शास्त्रों में उस व्यापकता और अनन्तता को परमात्मा कहा है और बताया है कि उसे सूक्ष्म होकर ही जाना जा सकता है-

वालाप्रशत साहस्र तस्य भागस्य भागिनः। तस्य भागस्य भागार्थ तत्क्षये तुनिरंजनम्॥

पुष्प मध्ये यथा मन्धः पयोमध्ये यथा घृतम्। तिलमध्ये यथा तैलं पाषागेष्णिव काज्चनम्॥

एवं सर्वाणि भूतानि मरणौ सूत इवात्मनि। स्थिर बुद्धि रसंभूढ़ो ब्रह्मविद् ब्रह्माण स्थितः॥

ध्यान बिंदूपनिषद् 4-6

अर्थात्-बाल के सबसे छोटे टुकड़े का भी सौवाँ भाग, उसका भी हजारवाँ भाग और उसका भी आधे का आधा भाग सूक्ष्माति-सूक्ष्म क्षय हो जाने पर निरंजन होता है, जिस प्रकार फूलों में गन्ध, दूध में घृत, तिल में तेल, पाषाण में स्वर्ण और माला के दाने सूत में पिरोये रहते है, उसी प्रकार सब भूत निरंजन में व्याप्त हैं, स्थिर बुद्धि वाला ज्ञानी मोह रहित ऐसे ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करके उसमें स्थिर रहता है।

आर्ष वैज्ञानिकों के इस कथन की सत्यता का सर्वप्रथम किंग्स कालेज लन्दन के डा. विल्किंस ने अध्ययन किया। उन्होंने बताया कोशिका अपने आप में उतनी आश्चर्यजनक नहीं है, जितनी उसके अन्दर के दूसरे कण और क्रियायें महत्त्वपूर्ण ह।, इनमें से नाभिक या केन्द्रक (न्यूक्लियस) और उसमें लिपटे हुये क्रोमोसोम, स्पूतनिक की तरह कौशिक के आकाश में स्थित ‘सेन्टोसोम’ जो कोशों के विकास में सहायक होता है, पारदर्शी गुब्बारे जैसा वह भाग जो भोजन की शक्ति में बदलता है, वह भी एक से एक बढ़कर आश्चर्यजनक हैं। न्यूक्लियस कोशिका का वह गुम्बदाकार भाग है, जहाँ से पूरे शरीर का सूत्र संचालन होता है। गुण सूत्र (क्रोमोसोम) की जटिलता और भी अधिक है, क्योंकि उन पर व्यक्ति के गुण, शारीरिक विकास और अनुवांशिकता आधारित है, इसलिये इनकी खोज में वैज्ञानिक तीव्रता से जुट गये।

‘जीन्स’ जिन्हें आज का वैज्ञानिक जीवन की इकाई मानता है, इन्हीं गुण-सूत्रों का ही एक अत्यन्त सूक्ष्म अवयव है। जिस प्रकार एक डोरे में थोड़ी-थोड़ी दूर पर गांठें लगा देते हैं। इन गुण सूत्रों में भी गाँठें लगी हुई हैं, इन गाँठों को ही ‘जीन्स’ कहते हैं। एक कोशिका के जीन्स जो कुण्डली मारे बैठे रहते हैं, उन्हें यदि खींच कर सीधा कर दिया जाय तो 5 फीट तक लम्बे पहुँच सकते हैं। हमारा शरीर चूँकि कोशिकाओं की ईंटों से बना हुआ होता है और एक युवक के शरीर में यह कोशिकाएँ 600 अरब तक होती हैं, इसलिये यदि सम्पूर्ण शरीर के ‘जीन्स’ को खींच कर रस्सी बनाई जाये तो वह इतनी बड़ी होगी, जिससे सारे ब्रह्माण्ड को नाप लिया जाना सम्भव हो जायेगा।

आत्मा समर्पण जगत में व्याप्त है। सम्भवतः यह जीन्स उस भारतीय मत की पुष्टि करें पर जीन्स को ही आत्मा नहीं मान लेना चाहिये। वह चेतन आत्मा का एक अणु हो सकता है पर आत्मा नहीं। सूर्य एक आत्मा है, उसकी एक किरण वहाँ से चलती है और किसी स्थान पर वहाँ की ऊर्जा पहुँचाती रहती है, बहुत सम्भव है उसी तरह उस किरण जाल से सूर्य भी स्थान-स्थान की खोज- खबर लेता रहता हो। यह किरणें भी प्रकाश के छोटे-छोटे अणु (एटम) से बने हैं और प्रत्येक अणु में सूर्य जैसी क्षमताएँ विद्यमान् होती हैं, उतनी ही ऊर्जा (एनर्जी) उतनी ही चमक और वैसी ही आकृति, पर वह सूर्य नहीं हो सकता, वह तो सूर्य का एक अणु मात्र है। अणु को पकड़ा, तोड़ा और मरोड़ा जा सकता है पर सूर्य को तोड़ डालने की शक्ति विज्ञान ने कहाँ पाई है। सूर्य अपने आप में एक स्वतन्त्र सत्ता है।

‘जीन्स’ भी ऐसे ही हैं यद्यपि मनुष्य का कुछ छोटा या बड़ा होना, उसके बाल काले, भूरे, घुँघराले होना, नाक चौड़ी, लम्बी या पतली होना, आँखें नीली, काली या भूरी होना यह सारी बनावट जीन्स की बनावट पर निर्भर है, यदि विस्तृत खोज की जाय तो गर्भस्थ शिशु का एक दिन इच्छानुरूप निर्माण सम्भव हो जायेगा। अनुवांशिक (हेरेडेटरी) रोगों का इलाज भी तब सम्भव है, जीवधारी के पृथ्वी पर आने से पहने ही कर दिया जा सके, बहुत सम्भव है आदम, ईसा, या कर्ण जैसा अमैथुनी मनुष्य भी बनाया जा सके पर सब मनुष्य की इच्छा पर नहीं किसी पर्दे में काम करने वाली शक्ति की इच्छा पर ही होगा। मनुष्य जीवों का विकसित रूप नहीं वरन् वह अमैथुनी क्रिया द्वारा ही पैदा हुआ है, यह भारतीय दर्शन को मान्यता है, जो आज की वैज्ञानिक दृष्टि में सत्य सिद्ध हो रहा है पर वह मनुष्य के लिये नितान्त सम्भव नहीं।

यह बात हम नहीं वह वैज्ञानिक भी जिन्होंने जीन्स का भी रासायनिक विश्लेषण कर लिया है, मानने लगे हैं। डा. विल्किंस ने बताया कि जीन्स सर्पिल आकार के अणुओं में बने होते हैं यह अणु ‘डी आक्सी राइबो न्यूक्लिक एसिड’ (संक्षेप में डी. एन. ए.) के नाम से जाने जाते हैं। इन्हें केवल एक लाख गुना बढ़ा कर दिखाने वाली (मैग्नीफाइन्ग पावर) खुर्दबीन (माइक्रोस्कोप) से ही देखा जाना सम्भव है। इस दिशा में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी अमेरिका के डा. जेम्स वाट्सन और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी की कैकेंडिश लैबोरेटरी के डा. फ्राँसिस क्रिक ने विस्तृत अनुसन्धान किये। उन्होंने चार प्रमुख नाइट्रोजन यौगिकों 1-एडीसन, 2-साइटो साइन, 3- गुएनाइन और थाईमाइन और फास्फेट व एक प्रकार की शर्करा के रासायनिक संयोग से प्रयोगशाला में ही डी० एन॰ ए॰ अणु (मालेक्यूल) का मॉडल बनाकर सारे संसार को आश्चर्य-चकित कर दिया। यह जीवन-जगत् में हलचल पैदा करने वाली खोज थी। उसके आधार पर अमैथुनी कृत्रिम गर्भाधान ही संभव न हुआ वरन् चिकित्सा और शरीर विकास की अनेक अद्भुत सफलताओं का स्रोत खुल गया। डी० एन॰ ए॰ की सफलता एक दिन ऐसे शरीर बना सकेगी, जो बाजारों जो बाजारों में साधारण मनुष्यों की तरह ही घूमा-फिरा करेंगे, फिर भी कोई समझ न पायेगा कि क्या ये कृत्रिम मानव हैं।

इतनी सफलता पा जाने के बाद क्या वैज्ञानिक संतुष्ट हो गये या उन्होंने यह विश्वास कर लिया कि उन्होंने आत्मा पर अधिकार कर लिया है। नहीं, नहीं, नहीं। 1962 में इन तीन वैज्ञानिकों को जब इस सम्बन्ध में नोबुल पुरस्कार दिया गया तो उन्होंने ही कहा-सूत्र हाथ में आ गया है सूत्रधार नहीं, सम्भव है, एक दिन वह भी हाथ लग जायेगा और तब आज जो मनुष्य प्रकृति के इशारे पर नाचता है, तब प्रकृति उसके इंगित पर चलने लगे। पर अभी तो स्थिति यह है कि मनुष्य जीवन को सारी गतिविधियाँ जिनका आदेश जीन्स के द्वारा मिलता है, वह किसी और की है। जीन्स तो उसके आदेश कोशिका तक पहुँचाते रहते हैं। एक कोशिका से दूसरी कोशिका तक सारी शरीर का कार्य संचालन जीन्स के द्वारा दिये गये आदेशों पर चलता है। यह आदेश भी किसी भाषा में नहीं होते वरन् उसकी भी एक रासायनिक पद्धति है।

जीन्स से काई तत्त्व कोशिका में गया तो वह भाग खाली होते ही ऊपर से कोई और तत्त्व की पहुँचाने की आवश्यकता प्यास रूप में प्रकट हुई। किसी ने कहा नहीं पर हम उठें और पानी पिया। पानी पीने की प्रेरणा जीन्स ने कोशिकाओं को दी, हाथ ने उठा कर पी लिया पर जीन्स को वह आदेश किसने दिया। क्या जीन्स ही की इच्छा थी वह। यदि ऐसा होता तो प्रयोगशाला में बनने वाला डी० एन॰ ए॰ भी अपनी इच्छा से विकसित होने लगता।

अभी इस जीन्स से भी कोई अति सूक्ष्म और सर्वव्यापी सत्ता है, इसका प्रमाण उसी की संरचना से मिल जाता है। उदाहरणार्थ डी० एन॰ ए॰ पर ही लगभग एक अरब एमीनो एसिड क्रम में लगे रहते हैं, इन्हें वह अक्षर कह सकते हैं जो मिलकर जीन्स की आकांक्षा को व्यक्त करते हैं। जैसे भूख-प्यास बोलना, उठना-बैठना मिलना-जुलना सोना, स्वप्न देखना आदि। इनका ही क्रम मनुष्य के गुणों को निर्धारण करता है। मरोड़ी हुई सीढ़ी की शक्ल में यह अणु एक जीन्स की शक्ल में दिखाई देते हैं। उन सब की अनुभूतियाँ अलग-अलग हैं, इससे यह पता चलता है कि जीन्स कहाँ कोशिका की आत्मा है, वहाँ वह शरीर गत् सम्पूर्ण चेतना का एक अंग भर है और उससे अधिक कुछ नहीं।

शरीर की सामाजिकता के आधीन रहना पड़ता है, ऐसा न होता, प्रत्येक जीन्स एक स्वतन्त्र अस्तित्व होता तो वह शरीर के प्रत्येक अंग से मनुष्य पैदा करना आरम्भ कर देता। ऐसा वह नहीं कर सकता, मनुष्य भी परमात्मा का एक अंश है, वह अपने दायरे में निर्माण पालन और संहार के कार्य किया करता है पर वह विश्व-इच्छा के आधीन है। उसकी अपनी सत्ता उस सामाजिकता से अलग रही होती तो वह अपनी इच्छा से अन्य और मृत्यु का स्वामी हो जाता। ब्राह्मी स्थिति में भले ही वह वैसा हो जाता है पर मनुष्य जब तक मनुष्य है, तब तक उसे उस इच्छा ही के आधीन रहना पड़ता है, यही स्थिति जीन्स की भी है। वह आत्मा का अणु हो सकते हैं, आत्मा नहीं। आत्मा की खोज के लिये अभी लम्बे प्रयोग की आवश्यकता है।

कोशिका के ऊपरी आवरण को, जिसे प्रोटीन कहते हैं, अब वैज्ञानिक पद्धति से बनाना सम्भव हो गया है। दूध के प्रोटीन से ऊन बना लेने के बाद वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि प्रोटीन बना लेना कोई कठिन बात नहीं है। अभी इस वर्ष डा. खुराना को तो इसी विषय में नोबुल पुरस्कार भी मिला है। एक और प्रोटीन पर दूसरी ओर डी० एन॰ ए॰ पर विस्तृत गवेषणायें चल रहीं हैं। जितनी सफलतायें मिलती जा रही हैं, उतनी ही आत्मा के किसी अति सूक्ष्म तत्त्व और सर्वव्यापी होने की पुष्टि बढ़ती ही जा रही हैं। अभी यह नहीं मान लेना चाहिये कि डी० एन॰ ए॰ का निर्माण करके वैज्ञानिकों ने आत्मा को को जान लिया। भले ही उन्हें वैसी कोई इकाई मिल गई हो।


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