कठिनाइयों से लड़ें और अपना साहस बढ़ायें

March 1969

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

शरीर धारी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसे सुख और दुःख दोनों को भीगने के लिये मिलता है। जीव ने पूर्व जन्म में जिस प्रकार के कर्म किये होते हैं, उसी के अनुसार उसे शरीर मिलता है और उसी के अनुसार सुख-दुःख देने वाली परिस्थितियाँ। शरीर पूर्व प्रारम्भ पूरा करने का एक संयोग है। इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह सुख-दुःख की परिस्थितियों में समभाव बनाये रखे।

इस बोध के पाते ही कि हम शरीर धारी हैं, मनुष्य को निश्चय कर लेना चाहिये कि उसे सुख-दुःख दोनों का भोग कना है और अपने इस बोध-जन्म निश्चय के अनुसार हर समय उद्यत भी रहना चाहिये। जब शरीर धारण किया है तो दुःख-सुख दोनों का ही भोग करना होगा। शरीरधारियों में से किसी के लिये भी केवल सुख अथवा दुःख भोगने का कोई विधान नहीं हैं। इस अटल नियम के होते हुए भी और जानते हुए भी यदि मनुष्य दुःख के अवसरों पर अधिक व्याकुल अथवा उद्विग्न हो उठता है तो इसे उसका दुर्भाग्य ही कहा जायेगा। दुःख और सुख शरीर के साथ लगी रहने वाली दो छायायें हैं। उन्हें अपने पास से दूर नहीं किया जा सकता। ऐसी दशा में उत्तम यही है कि सुख और दुःख दोनों योगों में तटस्थ रहकर अपना यथायोग्य कर्तव्य करते रहा जाय। जो इस धर्म के अनुयायी रहकर संसार में बर्तते हैं, वे प्रायः सुखी ही रहते हैं।

इस दार्शनिक विवेचन से हट कर यदि व्यवहार क्षेत्र में भी जाकर विचार किया जाये तो पता चलेगा कि दुःख, कष्ट अथवा आपत्ति के समय व्याकुल होना अथवा धीरज खो देना व्यर्थ है। रोने, चिल्लाने अथवा व्याकुल होने से आज तक किसका दुःख दूर हुआ है? अधैर्य दुःख-कष्ट का उपचार नहीं बल्कि उसका बढ़ाने वाला सिद्ध होता है। एक तो दुःख का कारण स्वयं ही उपस्थित है उस पर यदि धैर्य, साहस, आशा, सहनशीलता और सक्रियता को छोड़कर व्याकुलता, व्यग्रता और कातरता का आश्रय लिया जाय तो परिस्थिति और भी गम्भीर हो जायेगी।

काली रात में घटा घिर जाने के समान अंधकार और भी सघन तथा गम्भीर हो जायेगा। इसके विपरीत धैर्य और साहस को बनाये रहने से बुद्धि और विवेक का द्वीप जलता रहता है। जिसके प्रकाश में उपाय और उपचार दृष्टिगोचर होते रहते हैं। यही कारण है जो किसी आपत्ति के समय कोई अधैर्यवान् तो बुरी तरह हानि की चपेट में आ जाता है और धैर्यवान् आपत्ति का आक्रमण विफल कर साफ निकल जाता है। जहाँ अधैर्यवान् आपत्ति को अपना बहुत कुछ दे देता है, वहाँ वीर, गम्भीर पुरुष कुछ देना तो दूर उल्टे उससे न जाने कितने अनुभव लूट ले जाता है।

यदि दुःख, संकट और आपत्ति के संयोग की प्रतिक्रिया अधैर्य ही होती तो संसार में सबको ही उस स्थिति में घबराना और व्याकुल होना चाहिये। किन्तु ऐसा होता कदापि नहीं। जहाँ बहुत से लोग दुःख का कारण आने पर बुरी तरह व्याकुल और उद्विग्न हो उठते हैं, वहाँ बहुत से लोग अपने समभाव में स्थित रहते हैं। उनकी शांति और संतुलन अक्षुण्ण बना रहता है। इस अन्तर का कारण और कुछ नहीं, केवल यह होता है कि एक का हृदय तो निर्बल होता है और दूसरा नहीं। एक विनाश का विश्वासी होने से सोचता है कि अब मैं नष्ट हो जाऊँगा, मेरा सब कुछ बरबाद हो जायेगा। यह संकट अथवा विपत्ति हमें मिटा देगी। कैसे क्या करें जो इस भयंकर परिस्थिति से बचें।

दूसरा जीवन और सृजन में विश्वास रखने वाला होने से सोचता है कि आपत्तियाँ अस्थायी होती हैं, दुःख अधिक होते हैं। परमात्मा को अंश होने से मनुष्य आनन्द स्वरूप हैं। दुःख अथवा संकट के कारण मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। मैं एक जीवन्त पुरुष हूँ, मुझे प्रभु ने बुद्धि और विवेक दिया है, धैर्य और साहस दिया है, मैं उसके बल पर मुझे परास्त करने का संकट अथवा आपत्ति के इरादे को चूर-चूर कर दूँगा। अपनी इन्हीं मनो-नीतियों के अनुसार निषेध अथवा संबल पाकर एक दुःख में डूब जाता है और दूसरा उससे पार उतर जाता है।

संसार में संकट और आपत्ति सभी पर आती हैं। इससे कोई भी नहीं बचता। संसार में जिसे भी देखिये सुख-दुःख से द्वन्द्व करता हुआ यात्रा पर बढ़ा चला जा रहा है। तब हम ही क्यों दुःख का रोना लेकर बैठे रहें। सुख-दुःख मय इस संसार में सामान्य पुरुष तो क्या बड़े-बड़े सम्राटों, श्रीमन्तों और महान् पुरुषों को भी संकटों का सामना करना पड़ा है। शिवि, हरिश्चन्द्र, मोरध्वज, नल, पाण्डव, प्रभृति न जाने कितने इतिहास पुरुषों को अपार संकट उठाने पड़े। हजारों साल बाद आज भी जो उनका नाम अमर है, इसका कारण यही है कि उन लोगों ने सारे संकटों को सहर्ष, स्वीकार किया, अपने धैर्य और विवेक की परीक्षा दी, पूरी तरह उत्तीर्ण हुए और समय की शिला पर अपना नाम खोद कर अमर हो गये। ऐसे धैर्यवान् पुरुष सिंह ही वास्तविक सुख, यश, कीर्ति और पूजा-प्रतिष्ठा के अधिकारी होते हैं, और ऐसे पुरुष ही संसार पथ पर अपने उन आदर्श पद-चिह्नों को छोड़कर जाते हैं, जिनका अनुसरण कर लाखों लोग भवसागर से पार हो जाते हैं।

अपने ऊपर आपत्ति व संकट को आया देखकर धैर्य खोना कायरता है। जब संसार के कोई दूसरे लोग दुःख में धैर्य रख सकते हैं, हँसते-खेलते हुए आपत्तियों को पार कर सकते हैं तो हम ही क्यों उन्हें देखकर रोने-चिल्लाने लगें। जबकि परमपिता परमात्मा ने हमें भी साहस, आशा और धैर्य के साथ बुद्धि एवं विवेक का सम्बल उनकी तरह दे रखा है। अन्तर केवल यह है कि जहाँ संसार के सिंह पुरुष अन्धकार आते ही अपने गुणों के प्रदीप प्रज्वलित कर लेते हैं, वहाँ कायर पुरुष घबरा कर उनको प्रदीप्त करना ही भूल जाते हैं।

शरीरधारियों के लिये सुख-दुःख को भोग अनिवार्य है। यह रोकर भोगा जाये अथवा हँसकर जब यह भोग भोगना ही है तो बुद्धिमानी इसी बात में है कि हर परिस्थिति को हँसी-खुशी से भोगा जाये। हँस-हँसकर भोगने वाले धीर पुरुषों के लिये दुःख एक शोभा बन जाता है। लोग उन्हें प्रतिकूलता में अविचलित देखकर उनकी सराहना करते हैं। उनके ज्ञान तथा विश्वास में निष्ठा लाते हैं। अपने जीवन में उनके उस चरित्र को आदर्श के समान अंगीकार करते हैं। अपने दुःख में अविचलित रहने वाला श्रेष्ठ पुरुष दूसरों का दुःख भी कम कर देता है। यदि हँस-हँसकर अपने दुःख को साहसपूर्वक भोगने वाला उसे अपनी शोभा बना लेता है तो रोने-चिल्लाने वाला कापुरुष उससे अपनी कुरूपता बढ़ा लेता है। किसी अभाव अथवा व्याधि से घिरा धीर-पुरुष अपना और अपने भगवान् का भरोसा लिए उन काली घड़ियों को स्थिर भाव से काटता है तो काई कापुरुष बुरी तरह रोता-चिल्लाता और निराश होकर दूसरों से सहायता के लिये रिरियाते, अपने भाग्य और भगवान् को कोसता है, गाली देता है। इन दोनों की तस्वीर देखने से स्पष्ट विदित हो जाता है कि उनमें से एक मनोधनी है और दूसरा दरिद्री। दुःख में स्थिर और गम्भीर रहने वालों के प्रति जहाँ लोगों की श्रद्धा जाग उठती है, वहाँ रोने-चिल्लाने और प्रलाप करने वालों के प्रति सहानुभूति की अपेक्षा दयनीय भाव ही उत्पन्न होता है।

बहुत बार तो अतिशयता होने पर घृणा तक होने लगती है। इस प्रकार दूसरों का घृणापात्र होकर रहना मनुष्य जैसे प्राणी को जरा भी शोभा नहीं देता। उसकी शोभा तो इसी में है कि प्रतिकूल परिस्थितियों के अवसर पर शांत, धीर और गम्भीर रहकर उसको बदलने का प्रयत्न किया जाये। रोने-चिल्लाने अथवा कलपते रहने से दुःख का भोग क्षमा तो किया नहीं जा सकता तो इस प्रकार की दीनता से लाभ क्या है। शरीर की नियुक्ति ही अब प्रारम्भ भोग करने के लिये हुई है, तब उसे उचित रूप से भोगने में ही सुन्दरता भी है और कल्याण भी।

विवेक की बात तो यह है कि संकट, आपत्ति अथवा दुःख पाने पर प्रसन्न होना चाहिये। इसलिये कि यही वह विधान है, जिसके द्वारा मनुष्य का प्रारब्ध भोग पूरा होता है। उसके पूर्व कर्मों का परिपाक मोक्ष होता है। एक-एक संकट, एक-एक प्रारब्ध को व्यर्थ करता जाता है, जिसके अनुसार भव-बन्धन की लम्बी शृंखला की एक-एक कड़ी टूटती जाती है। दुःख का संयोग आते ही मनुष्य को उसका उपचार तो करना चाहिये पर साथ ही यह सोचकर प्रसन्न भी कम नहीं होना चाहिये कि उसके प्रारब्ध भोग की एक किश्त उतर गई।

आत्मा का भार, भविष्य का अन्धकार कुछ कम हो गया और प्रकाश का लक्ष्य कुछ समीप आ गया है। ऐसे उपकारी संकटों को देखकर रोना-चिल्लाना वैसी ही मूर्खता है, जैसी कि किसी विषाक्त फोड़े का आपरेशन करने के लिये आये डाक्टर को देखकर भयभीत होने के मूर्खता। दुःख के बाद सुख और संकट के बाद सुविधा-प्रकृति का यह अटल नियम है। इस आधार पर भी तो दुःख देखकर प्रसन्न ही होना चाहिये। दुःख और संकट उस सुख संपत्ति की पूर्व भूमिका होते हैं, जो निकट भविष्य में मिलनी होती है। बादल और बिजली को देखकर भयभीत होने वाले बाल-बौद्धिक लोग कुछ ही देर में होने वाली प्राणदायक और धन-धान्य की विधायक वर्षा को नहीं देख पाते। संकट सुख और कल्याण के अग्रदूत होते हैं। उनको देखकर भयभीत न होना चाहिये बल्कि सहर्ष उनका स्वागत करना चाहिये।

विश्वास रखिये दुःख का अपना कोई मूल अस्तित्व नहीं होता। इसका अस्तित्व मनुष्य का मानसिक स्तर ही होता है। यदि मानसिक स्तर योग्य और अनुकूल है तो दुःख की अनुभूति या तो होगी ही नहीं और यदि होगी भी तो बहुत क्षीण। तथापि यदि आपको दुःख की अनुभूति सत्य प्रतीत होती हैं, तब भी उसका अमोघ उपाय यह है कि उसके विरुद्ध अपनी आशा, साहस और उत्साह के प्रदीप जलाये रखा जाय। अन्धकार का तिरोधान और प्रकाश का अस्तित्व बहुत से अकारण भयों को दूर कर देता हैं।

आशा, विश्वास और परिवर्तन के अटल विधान में आस्था रखने के साथ ही साथ समय रूपी महान् चिकित्सक में विश्वास रखिये। समय बड़ा बलवान् और उपचारक होता है। वह, धैर्य रखने पर मनुष्य के बड़े-बड़े संकटों को ऐसे टाल देता है, जैसे वह आया ही न था। संकट तथा दुःख देखकर भयभीत होना कापुरुषता है। आप ईश्वर के अंश हैं, आनन्द स्वरूप हैं। आपको तो धैर्य, साहस, आशा-विश्वास और पुरुषार्थ के आधार पर संकट और और विपत्तियों की अवहेलना करते हुए सिंह पुरुषों की तरह ही जीवन व्यतीत करना चाहिये।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118