सभी धर्मों में जीव-हिंसा को पाप माना गया है। जो धर्म प्राणियों की हिंसा का आदेश देता है, वह कल्याणकारी हो सकता हैं, इसमें किसी प्रकार भी विश्वास नहीं किया जा सकता। धर्म की रचना ही संसार में शांति और सद्भाव बढ़ाने के लिये हुई है। यदि धर्म का उद्देश्य यह न होता तो उसकी इस संसार में आवश्यकता न रहती। संसार के आदिकाल में पशुओं के समान ही मनुष्य वन्य जीव-जन्तुओं का वध किया करता था। उसकी सारी प्रवृत्तियाँ भी पशुओं के समान ही थीं। वह उन्हीं के समान हो-हो खो-खो करके बोला करता था, नंगा फिरता और मांद गुफाओं में रहा करता था, धीरे-धीरे मनुष्य ईश्वरीय तत्त्व का विकास हुआ। उसकी बुद्धि जागी और वह बहुत-सी पाशविक प्रवृत्तियों को अनुचित समझकर उन्हें बदलने लगा। उसने आखेट जीविका का त्याग कर कृषि और पशुपालन अपनाया वल्कल से प्रारम्भ कर कपास निर्मित वस्त्र पहनने प्रारम्भ किये। हिंसा वृत्ति के शमन से सामाजिकता का विकास किया, समाज व परिवार बनाया और दया, करुणा, सहायता, सहयोग का मूल्य समझकर निरन्तर विकास करता हुआ, इस सभ्य अवस्था तक पहुँचा।
ज्यों-ज्यों मनुष्य का विकास होता गया, त्यों-त्यों वह स्थूल से सूक्ष्म की ओर-शरीर से आत्मा की ओर-- और लोक से परलोक की ओर विचारधारा को अग्रसर करता गया और अन्त में परमात्मा तत्त्व के दर्शन कर लिये। स्थूल से जो जितना सूक्ष्म की ओर बढ़ा है, वह उतना ही सभ्य तथा सुसंस्कृत माना जायेगा और जिसमें जितनी अधिक पाशविक अथवा आदि प्रवृत्तियाँ शेष हैं, वह उतना ही असभ्य एवं असंस्कृत माना जायेगा।
पाशविक प्रवृत्तियों में जीव-हिंसा सबसे जघन्य प्रवृत्ति है। जिसमें इस प्रवृत्ति की जितनी अधिकता पाई जाये, उसे बाहर से सभ्य परिधानों को धारण किये होने पर भी भीतर से उतना ही अधिक आदिम असभ्य मानना चाहिये।
यों खाने के लिये कोई माँस खाकर व्यक्तिगत निन्दा का पात्र बने तो बना करे किन्तु धर्म के नाम पर पशुवध करने का उसको या किसी को कोई अधिकार नहीं है। जिस कल्याणकारी धर्म का निर्माण अहिंसा, सत्य, प्रेम, करुणा और दयामूलक सिद्धान्तों पर किया गया है, उसके नाम पर अथवा उसकी आड़ लेकर पशुओं का वध करना धर्म के उज्ज्वल स्वरूप पर कालिख पोतने के समान ही है। ऐसा करने का अधिकार किसी को भी नहीं है। जो ऐसा करता है, वह वस्तुतः धर्म-द्रोही है और लोक-निन्दा और अपयश का भागी है।
अपने को हिन्दू कहने और मानने वाले अभी अनेक धर्म ऐसे हैं, जिनमें पशु-बलि की प्रथा समर्थन पाये हुए हैं। ऐसे लोग यह क्यों नहीं सोचते कि हमारे देवताओं एवं ऋषियों ने जिस विश्व-कल्याणकारी धर्म का ढाँचा इतने उच्च-कोटि के आदर्शों द्वारा निर्मित का है, जिनके पालन करने से मनुष्य देवता बन सकता है, समाज एवं संसार में स्वर्गीय वातावरण का अवतरण हो सकता है, उस धर्म के नाम पर हम पशुओं का वध करके उसे और उसके निर्माता अपने पूज्य पूर्वजों को कितना बदनाम कर रहे हैं।
धर्म के मूलभूत तत्त्व-ज्ञान को न देखकर अन्य लोग धर्म के नाम पर चली आ रही अनुचित प्रथाओं को धर्म का आधार मान कर उसी के अनुसार उसे हीन अथवा उच्च मान लेते हैं, अश्रद्धा अथवा घृणा करने लगते हैं। इस प्रकार धर्म को कलंकित ओर अपने को पाप का भागी बनाना कहाँ तक न्याय-संगत और उचित है। इस बात समझे और पशु-बलि जैसी अधार्मिक प्रथा का त्याग करें।
पशु-बलि करने वाले लोग बहुधा देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिये ही उनके सामने अथवा उनके नाम पर जानवरों और पक्षियों आदि निरीह जीवों का वध किया करते हैं। इस अनुचित कुकर्म देवी- देवता प्रसन्न हों सकते है, ऐसा मानना अन्ध-विश्वास की पराकाष्ठा है। उनकी महिमा को समाप्त करना और हत्यारा सिद्ध करना है। अपने प्रति ऐसा अन्याय करने वालों से देवी देवता प्रसन्न हो सकते है, यह सर्वथा असम्भव है। जब समाज में किसी साधारण मनुष्य को यो ही बदनाम किया जाता है, उसके नाम पर गन्दगी उछाली जाती है, तब वह भी जो कुछ बन पड़ता हैं, विरोध करता है और क्रोध में आकर अपयशकर्ता का बुरा चाहने लगता है। तब क्या सर्व समर्थ देवी देवता अपने अपयश करने वाले को क्षमा कर देते होंगे। वे अवश्य ही ऐसे पापियों पर अप्रसन्न होकर उन्हें शाप देते है। इसका परिणाम पशु-बलि की कुप्रथा को चलाने वालों पर विविध कष्ट-क्लेशों के रूप में फलीभूत होता है। देव - बलि के नाम पर पशु-बलि करने वाले सदा ही मलीन, दरिद्रता और तेजहीन देखे जाते है। वे फलते-फूलते और सुख - शांति सम्पन्न नहीं पाये जाते।निर्दोष जीवों की हत्या के पाप स्वरूप उनकी मनोवाँछायें अपूर्ण और उनके परिवार अधिकतर रोग, शोक और दुःख-दारिद्रय से घिरे रहते है।
अधिकतर लोग काली के मन्दिरों में अथवा भैरव के मठों पर पशु-बलि देने का विशेष आयोजन किया करते है। उन्हें विश्वास होता है कि माता काली पशुओं का माँस खाकर अथवा खून पीकर प्रसन्न होती है। उस जग जननी जगदम्बा के प्रति ऐसा क्रूर एवं कुत्सित विश्वास रखना उसके विश्व -मातृत्व पर बहुत बड़ा आघात है। परमात्मा की जो आधार शक्ति संसार के जीवों को उत्पन्न और पालन करने वाली है, वह अपनी सन्तानों का रक्त माँस पी-खा सकती है, ऐसा किस प्रकार माना जा सकता है? साधारण मानवी माता भी जब बच्चे के जरा सी चोट लग जाने पर पीड़ा से छटपटा उठती है, उसकी सारी करुणा उमड़कर अपने प्यारे बच्चे को आच्छादित कर लेती हैं, तब उस दिव्य माता, उस करुणा, दया और प्रेम की मूर्ति जगत-जननी के प्रति यह विश्वास किस प्रकार किया जा सकता है कि वह अपने उन निरीह बच्चों का खून पीकर प्रसन्न हो सकती है?
उसको इस प्रकार क्रूर, करुण दारुण और पिशाचिनी के रूप में मानकर उसके सम्मुख जीवों की बलि देना उसके कोमल मर्म को बेधना ही है। तब उसके सम्मुख ही उसकी निरीह सन्तानों को काटकर उनका रक्त-माँस उस माता के मुँह में देना कितना क्रूर और भयंकर कर्म हैं, इसका विचार आते ही किसी भी विचारशील के रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
हिन्दू -धर्म में सर्वत्र निर्दोषों के प्रति अहिंसा बरतने का ही प्रतिपादन किया गया है और सर्वत्र हिंसा का निषेध। वेदों से लेकर पुराणों तक में पशु-बलि का कहीं भी समर्थन नहीं मिलता। उदाहरणार्थ पशु-बलि अथवा वध निषेध में कुछ आर्ष वाक्य नीचे दिये जाते हैं, जो इस अन्ध-विश्वास का निवारण करने में काफी सहायक हो सकते हैं :-
“देवापहार व्याजेन यज्ञाणयाजेन येथवच। हनन्ति जन्तून गत घृणा घोरों ते यान्तिदुर्गतिम्॥”
जो लोग देवता पर चढ़ाने अथवा यज्ञ के बहाने पशुओं का वध करते हैं, वे निर्दयी घोर दुर्गति को प्राप्त होते हैं।
“यूपं छित्वा पशून हत्वा कृत्वा रुधिर कर्दमम्। यद्येव गम्यते स्वर्गे नरके केन गम्यते।”
यूप को काट कर, पशुओं को मार कर और रक्त की कीचड़ फैलाकर यदि कोई स्वर्ग जाता है तो नरक कौन जायेगा।
“प्राणी घातान् तुयो धर्म मोहनं मूढ़ मानसाः। स वांछन्ति सुपावृष्टि कृष्णाहि मुख कोटरात्॥”
जो मूढ़ मति वाले व्यक्ति अन्य प्राणियों की हत्या करके धर्म की आकांक्षा करते हैं, वे मानो काले सर्प के मुख से अमृत की वर्षा की इच्छा करते हैं।
देव यज्ञे पितृ श्राद्धे तथा माँगल्य कर्मणि। तस्यैव नरके वासो यः कुचजिब घातनम्॥
मद्व्याजेन पषून हत्वा, यो यज्ञेन सह बंषुमिः। तग्गाँन्न लोम संख्या दैरक्षिपत्र बने बसेत॥
आत्म पुत्र कलमादि सुसम्पति कुलेच्छया। यो दुरात्मा पशून हन्यात् आत्माहीन घातयेत्॥
देव यज्ञ, पितृ श्राद्ध और अन्य कल्याणकारी कार्यों में जो व्यक्ति जीव हिंसा करता है, वह नरक में जाता है। मेरे बहाने से जो मनुष्य पशु का वध करके अपने सम्बन्धियों सहित माँस खाता है, वह पशु के शरीर में जितने रोम होते हैं, उतने वर्षों तक असिपत्र नामक नरक में रहता है। इसी तरह जो मनुष्य आत्मा, स्त्री, पुत्र, लक्ष्मी और कुल की इच्छा से पशुओं की हिंसा करता है, वह स्वयं अपना नाश करता है।
वेद भगवान ने अपने न जाने कितने मन्त्रों में हिंसा एवं पशु वध का निषेध करते हुए स्थान-स्थान पर कहा है-
“मानो गोषु मानो अश्वेषु रीरिषः।”- ऋग्.
हमारी गायों और घोड़ों को मत मार।
“दूममुर्णायं वरुणास्य नाभिं त्वयं पशुनाँ द्विपदाँ तुष्पदाम्।
त्वष्टुः प्रजानाँ प्रथम जनिन्न मग्ने माँ हिंसी परमेव्योमन्।”- यजु.
ऊन जैसे बालों वाले बकरी, ऊँट आदि चौपायों और पक्षियों आदि दो पगों वालों को मत मार।
इसी प्रकार महाभारत पुराण के शांति पर्व में यज्ञादिक शुभ कर्मों में पशु हिंसा का निषेध करते हुए बलि देने वालों की निन्दा की गई है-
अव्यवस्थित मर्यादैविमूढ़ैर्नास्ति कै नरैः। संशयात्मभिरुप में हिंसा समउवर्णिता॥
सर्व कर्म स्वहिंसा हि धर्मात्मा मनुव्रवीत। काम कारा द्विहिंसन्ति बढ़िवद्यान पशुयन्न॥
तस्मात प्रमाणतः कार्यो धर्मः सूक्ष्मो विज्ञानंता। अहिंसा सर्व भूतेभयो, धर्मेभ्योज्यासीमता॥
यदि यज्ञाश्च वृक्षाश्चं, भयाँश्चोछिद्य मानव। वृथा माँस न खादन्ति, नैष धर्मः प्रशस्थते॥
उच्छृंखल, मर्यादाहीन, नास्तिक, मूढ़ और संशयात्मक लोगों ने यज्ञ में हिंसा का विधान वर्णित किया है। वस्तुतः यज्ञ में हिंसा नहीं करनी चाहिये। धर्म में आस्था रखने वाले मनुष्यों ने अहिंसा की प्रशंसा की है। पंडितों का यही कर्तव्य है कि उसके अनुसार सूक्ष्म धर्मानुष्ठान करें। सभी धर्मों को ही श्रेष्ठ धर्म माना गया है। जो मनुष्य यज्ञ, वृक्ष, भूमि के उद्देश्य से पशु छेदन करके अवृथा माँस खाते हैं, उनका धर्म किसी प्रकार प्रशंसनीय नहीं है।
इस प्रकार क्या धर्म और क्या मानवीय दृष्टिकोण से जीव-हिंसा करना वण्य ही है। इस पाप से जितना शीघ्र मुक्त हुआ जायेगा उतना ही कल्याण होगा।