स्वाध्याय, जीवन विकास की एक अनिवार्य आवश्यकता

March 1969

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बहुत बार हम से अनेक लोग किसी की धारा-प्रवाह बोलते एवं भाषण देते देखकर मंत्र कीलित जैसे हो जाते हैं और वक्ता के ज्ञान एवं उसकी प्रतिभा की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगते हैं और कभी-कभी यह भी मान लेते हैं कि इस व्यक्ति पर माता सरस्वती भी प्रत्यक्ष कृपा है। इसके अंतर्पट खुल गये हैं, तभी तो ज्ञान का अविरल स्रोत इसके शब्दों में मुख के द्वारा बाहर बहता चला रहा है।

बात भी सही है, श्रोताओं का इस प्रकार आश्चर्य विभोर हो जाना अस्वाभाविक भी नहीं है। सफल वक्ता अथवा समर्थ प्राध्यापक जिस विषय को ले लेते हैं, उस पर घण्टों एक बार बोलते चले जाते हैं, और यह प्रमाणित कर देते हैं कि उनकी उस विषय का साँगोपाँग ज्ञान है और उनकी सारी विद्या जिह्वा के अग्रभाग पर रखी हुई है। जबकि वह कोई मांत्रिक सिद्धि नहीं होती है। वह सारा चमत्कार उनके उस स्वाध्याय का सुफल होता है, जिसे वे किसी दिन भी, जिसे वे किसी दिन भी, किसी अवस्था में नहीं छोड़ते। उनके जीवन का कदाचित ही कोई ऐसा अभागा दिन जाता हो, जिसमें वे मनोयोगपूर्वक घण्टे दो घण्टे स्वाध्याय न करते हों। स्वाध्याय उनके जीवन का एक अंग और प्रतिदिन की अनिवार्य आवश्यकता बन जाता है। जिस दिन वे अपनी इस आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर पाते, उस दिन वे अपने तन-मन और आत्मा में एक भूख, एक रिक्तता का कष्ट अनुभव किया करते हैं। उस दिन का वे जीवन का एक मनहूस दिन मानते और उस मनहूस दिन को कभी भी अपने जीवन में आने का अवसर नहीं देते।

यही तो वह अबाध तप है जिसका फल ज्ञान एवं मुखरता के रूप में वक्ताओं एवं विद्वानों की जिह्वा पर सरस्वती के वास का विश्वास उत्पन्न करा देता है। चौबीसों घण्टों सरस्वती की उपासना में लगे रहिये, जीवन भर ब्राह्मी मंत्र एवं ब्राह्मी बूटी का सेवन करते रहिये, किन्तु स्वाध्याय किसी दिन भी न करिये और देखिये कि सरस्वती सिद्धि तो दूर पास की पढ़ी हुई विद्या भी विलुप्त हो जायेगी। सरस्वती स्वाध्याय का अनुगमन करती है, इस सत्य का सम्मान करता हुआ जो साधक उसकी उपासना किया करता है, वह अवश्य उसकी कृपा का भागी बन जाता है।

नित्य ही तो न्यायालयों में देखा जा सकता है कि कोई एक वकील तो धारावाहिक रूप में बोलता और नियमों की व्याख्या करता जाता है और कोई टटोलकर भूलता याद करता हुआ सा कुछ थोड़ा-बहुत बोल पाता है। दोनों वकीलों ने एक समान ही कानून की परीक्षा पास की, उनके अध्ययन का समय भी बराबर रहा, पैसा और परिश्रम भी परीक्षा पास करने में लगभग एक सा ही लगाया और न्यायालयों में पक्ष प्रतिपादन का अधिकार भी समान रूप से ही मिला है- तब यह ध्यानाकर्षण अन्तर क्यों? इस अन्तर का अन्य कोई कारण नहीं एक ही अन्तर है और वह है स्वाध्याय। जो वकील धारावाहिक रूप में बोल कर न्यायालय का वायु-मण्डल प्रभावित कर अपने पक्ष का समर्थन जीत लेता है -वह निश्चय ही बिलाना। घंटों स्वाध्याय का व्रती होगा। इसके विपरीत जो वकील अविश्वासपूर्ण विश्रृंखल प्रतिपादन करता हुआ दिखलाई दे, विश्वास कर लेना चाहिए कि वह स्वाध्याय शील नहीं है।

योंहीं अपनी पिछली योग्यता, स्मृति शक्ति के आधार पर पक्ष प्रतिपादन का असफल प्रयत्न कर रहा है। इस प्रकार के स्वाध्याय हीन वकील अथवा प्रोफेसर अपने काम में सफल नहीं हो पाते और प्रगति की दौड़ में पीछे पड़े हुये घिसटते रहते हैं। उनको अपने पेशे में कोई अभिरुचि नहीं रहती और शीघ्र ही वे उसे छोड़कर भाग जाने की सोचने लगते है।

ऐसे असफल न जाने कितने वकील एवं प्रोफेसर देखने को मिल सकते हैं, जो स्वाध्याय-हीनता के दोष के कारण अपना-अपना स्थान छोड़कर छोटी-मोटी नौकरी में चले गये है। ऐसे विशाल एवं सम्मानित क्षेत्र को अपने अवांछनीय दोष के कारण भाग खड़ा होना मनुष्य के लिए बड़ी लज्जाप्रद असफलता है।

इतना ही नहीं वर्षों पुराने, अनुभवी और मजबूती से जमे हुए अनेक वकील प्रमाद के कारण नये-नये आये हुए वकीलों द्वारा उखाड़ फेंके जाते देखे जा सकते हैं। पुराने लोग अपने विगत स्वाध्याय, जमी प्रेक्टिस, प्रमाणित प्रतिभा और लम्बे अनुभव के अभिमान में आकर यह सोच कर दैनिक स्वाध्याय में प्रमाद करने लगते हैं कि हम तो इस क्षेत्र में महारथी हैं, इस विषय के सर्वज्ञ है, कोई दूसरा हमारे सामने खड़े होने का साहस ही नहीं कर सकता। किन्तु नया आया हुआ वकील नियमपूर्वक अपने विषय का अनुदैनिक स्वाध्याय करता और ज्ञान को व्यापक बनाता और माँजता रहता है। प्रमाद एवं परिश्रम का जो परिणाम होना है, वह दोनों के सामने उसी रूप में आता है। निदान वकील पीछे पड़ जाता है और नया आगे निकल जाता है।

एक वकालत में ही नहीं, किसी भी विषय अथवा क्षेत्र में अध्ययन-शीलता एवं अध्ययन-हीनता का परिणाम एक जैसा ही होता है। इसमें चिर, नवीन अवस्था का कोई आपेक्ष नहीं होता। यह एक वैज्ञानिक सत्य है जिसमें अपवाद के लिए कोई गुँजाइश नहीं है।

धार्मिक अथवा आध्यात्मिक क्षेत्र ले लीजिये कोई अमुक नित्य चार-चार बार पूजा करता, तीन-तीन घण्टे आसन लगाता, जाप करता अथवा कीर्तन में मग्न रहता। व्रत-उपवास रखता, दान-दक्षिणा देता है, किन्तु शास्त्रों अथवा सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय, उनके विचारों का चिन्तन-मनन नहीं करता। सोच लेता है जब मैं इतना क्रिया-काण्ड करता हूँ तो इसके बाद अध्ययन की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। आत्म-ज्ञान अथवा परमात्म अनुभूति करा देने के लिए इतना ही पर्याप्त है तो निश्चय ही वह भ्रम में है। आत्मा का क्षेत्र वैचारिक क्षेत्र है, सूक्ष्म भावनाओं एवं मनन-चिन्तन का क्षेत्र हैं।

अध्ययन के अभाव में इस आत्म-जगत् में गति कठिन है। आत्मा के स्वरूप का ज्ञान अथवा परमात्मा के अस्तित्व का परिचय प्राप्त हुए बिना उनसे संपर्क किस प्रकार स्थापित किया जा सकता है? इस अविगत का ज्ञान तो उन महान् मनीषियों का अनुभव अध्ययन करने से ही प्राप्त हो सकना सम्भव है, जो अवतार रूप में संसार को वेदों का ज्ञान देने के लिए परमात्मा का प्रतिनिधित्व करते रहते हैं। आसन ध्यान, पूजा-पाठ तो प्रधान रूप से बुद्धि को परिष्कृत और आचरण को उज्ज्वल बनाने के लिये, इस हेतु करना आवश्यक है कि अध्यात्म के दैविक तत्त्व को समझने और ग्रहण करने की क्षमता प्राप्त हो सके। इसके विपरीत यदि एक बार पूजा-पाठ को स्थगित भी रखा जाये और एकाग्रता एवं आस्थापूर्वक स्वाध्याय और उसका चिन्तन मनन भी किया जाये तो बहुत कुछ उस दिशा में बढ़ा जा सकता है। स्वाध्याय स्वयं ही एक तप, आसन और निदिप्यास के समान है। इसका नियम निर्वाह से आप ही आप अनेक नियम, संयमों का अभ्यास हो जाता है।

स्वाध्याय से मनुष्य का अन्तःकरण निर्मल कर देने और उसके अंतर्पट खोलने की सहज क्षमता विद्यमान् है। आन्तरिक उद्घाटन हो जाने से मनुष्य स्वयं ही आत्मा अथवा परमात्मा के प्रति जिज्ञासु हो उठता है। उसकी चेतना ऊर्ध्वमुखी होकर उसी ओर को उड़ने के लिए पर तोलने लगती है। उच्च आध्यात्मिक अनुभूतियों का प्रस्फुटन स्वाध्याय के द्वारा ही हुआ करता है। स्वाध्याय निःसन्देह एक ऐसा अमृत है, जो मानस में प्रवेश कर मनुष्य की पाशविक प्रवृत्तियों को नष्ट कर देता है।

चारित्रिक उज्ज्वलता स्वाध्याय का एक साधारण और मनोवैज्ञानिक फल है। सद्ग्रन्थों में सन्निहित साधु वाणियों का निरन्तर अध्ययन एवं मनन करते रहने से मन पर शिव संस्कारों की स्थापना होती हैं, जिससे चित्त अपने आप दुष्कृत्यों की ओर से फिर जाता है। स्वाध्यायी व्यक्ति पर कुसंग का भी प्रभाव नहीं पड़ने पाता, इसका भी एक वैज्ञानिक कारण है। जिसकी स्वाध्याय में रुचि है ओर जो उसको जीवन का एक ध्येय मानता है, वह आवश्यकताओं से निवृत्त होकर अपना सारा समय स्वाध्याय में तो लगाता है। इसलिये उसके पास कोई फालतू समय ही नहीं रहता, जिसमें वह जाकर इधर-उधर यायावरी करेगा और दूषित वातावरण से अवांछनीय तत्त्व ग्रहण कर लायेगा।

उसी प्रकार रुचि-साम्य-संपर्क के सिद्धान्त के अनुसार भी यदि उसके पास कोई आयेगा तो प्रायः उसी रुचि का होगा और उन दोनों को एक सामयिक सत्संग का लाभ होगा। रुचि वैषम्य रखने वाला स्वाध्यायशील के पास जाने का कोई प्रयोजन अथवा साहस ही न रखेगा और यदि संयोगवश ऐसे कोई व्यक्ति आ भी जाते हैं तो उसके पास का वातावरण अपने अनुकूल न पाकर, देर तक ठहर ही न पायेंगे। निदान संगत-असभ्य आचरण दोषों का स्वाध्यायशील के पास कोई प्रश्न ही नहीं उठता।

आत्मोन्नति के सम्बन्ध में विपरीत वृत्तियाँ आलस्य, प्रमाद अथवा असंयम आदि स्वाध्यायशील व्यक्ति के निकट नहीं जाने पातीं। इसका भी एक वैज्ञानिक हेतु ही है कोई सुरक्षा कवच का प्रभाव नहीं हैं। जिसे पढ़ना है और नित्य नियम से जीवन का ध्येय समझ का पढ़ना है, वह तो हर अवस्था में अपने उस व्रत का पालन करेगा ही। अव्यवस्था अथवा अनियमितता, वह जानता है उसके इस रुचिपूर्ण व्रत में बाधक होगी, वह जानता है उसके इस रुचिपूर्ण व्रत में बाधक होगी, अस्तु वह जीवन की एक सुनिश्चित दिनचर्या बनाकर चलता है। उसका सोना, जागना, खाना-पीना टहलना-घूमना और कार्य करने के साथ-साथ पढ़ने-लिखने का कार्यक्रम एक व्यवस्थित रूप में बड़े अच्छे ढंग से चला करता है। जिसने जीवन के क्षणों को इस प्रकार उपयोगिता पूर्वक नियम-बद्ध कर दिया है, उसका तो एक-एक क्षण तपस्या का ही समय माना जायेगा। जिसने जीवन में व्यवस्था एवं नियम बद्धता का अभ्यास कर लिया, उसने मानो अपने आत्म लक्ष्य के लिये एक सुन्दर नसेनी तैयार कर ली है, जिसके द्वारा वह सहज ही में ध्येय तक जा पहुँचेगा।

अनुभव सिद्ध विद्वानों ने स्वाध्याय को मनुष्य का पथ प्रदर्शक नेता और मित्र जैसा हितैषी बताया है। उनका कहना है कि जो व्यक्ति सत्पथ-प्रदर्शक बताया है, उसका नाड़ी आदि इन्द्रियों पर अधिकार नहीं रहता। उसका मन चंचल विवेकानंद और बुद्धि कुण्ठित रहती है। इन ड़ड़ड़ड़ के कारण उसे दुःखों का भागी बनना पड़ता है। इसलिये बुद्धिमान् व्यक्ति वही है, जो अपने सच्चे मित्र स्वाध्याय को कभी नहीं छोड़ता। इसीलिये तो गुरुकुल से अध्ययन पूरा करने के बाद विद्या लेते समय गुरु, शिष्य को यही अन्तिम उपदेश दिया करता था--

“स्वाध्यायात् मा प्रमद।”

अर्थात्- हे प्यारे शिष्य! अपने भावी जीवन में स्वाध्याय द्वारा योग्यता बढ़ाने में प्रमाद मत करना।

स्वाध्याय से जहाँ संचित ज्ञान सुरक्षित तो रहता ही है, साथ ही उस न कोष में नवीनता और वृद्धि भी होती रहती है। वहाँ स्वाध्याय से विरत हो जाने वाला नई पूँजी पाना तो क्या गाँठ की विद्या भी खो देता है।

स्वाध्याय जीवन विकास के लिये एक अनिवार्य आवश्यकता है, जिसे हर व्यक्ति को पूरी करना चाहिये। अनेक लोग परिस्थितिवश अथवा प्रारम्भिक प्रमादवश पढ़-लिख नहीं पाते और जब आगे चल कर उन्हें शिक्षा और स्वाध्याय के महत्व का ज्ञान होता है, तब हाथ मल-मल कर पछताते रहते है।

किन्तु इसमें पछताने की बात होते हुए भी अधिक चिन्ता की बात नहीं है। ऐसे लोग जो स्वयं पढ़-लिख नहीं सकते, उन्हें विद्वानों का सत्संग करके और दूसरों द्वारा सद्ग्रन्थों को पढ़वाकर सुनने अथवा उनके प्रवचन का लाभ उठाकर अपनी इस कमी की पूर्ति करते रहना चाहिये। जिनके घर पढ़े-लिखे बेटी-बेटे अथवा नाती-पोते हों, उन्हें चाहिये कि वे सन्ध्या समय उनको अपने पास बिठा कर सद्ग्रन्थों का अध्ययन करने का अभ्यास हो जायेगा। जहाँ चाह, वहाँ राह-के सिद्धान्त के अनुसार यदि स्वाध्याय में रुचि है और उसके महत्व का हृदयंगम कर लिया गया है तो शिक्षा अथवा अशिक्षा का कोई व्यवधान नहीं आता, स्वाध्याय के ध्येय को अनेक तरह पूरा किया जा ही सकता है।


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