आत्मा असीम शक्तियों का केन्द्र बिन्दु

March 1969

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मनुष्य अपने सामान्य रूप में एक तुच्छ प्राणी है। वह अन्य बहुत से प्राणियों की अपेक्षा कहीं अधिक निर्बल और अपूर्ण है। मछलियाँ पानी में तैर सकती हैं। पक्षी आकाश में उड़ सकते हैं। बहुत से जानवर बिना किसी साधन अथवा अभ्यास के योंहीं पानी में तैर सकते हैं। जल और थल दोनों स्थानों में रह सकते हैं। शक्ति में मनुष्य बहुत से जानवरों की अपेक्षा निर्बल और निस्सहाय हैं वह निश्चय ही अपने सामान्य जीवन में बहुत कुछ अपूर्ण हैं।

इसके साथ ही ऐसे मनुष्यों के भी उदाहरण और प्रमाण मिलते हैं, जो बिना किसी साधन के हवा में उड़ सकते थे, पानी पर चल सकते थे, अग्नि में सुरक्षित रह सकते थे। यदि खोज की जाये तो आज भी ऐसे अनेक व्यक्ति इस संसार में मिल सकते हैं, जो अपने विलक्षण कार्यों द्वारा सिद्ध पुरुष माने जा सकते हैं। भारत के ऋषि मुनि तो सिद्ध पुरुष ही नहीं उसके आगे के स्तर के पुरुष थे। उनके एक आशीष वचन से बहुतों का कल्याण और अभिशाप से विनाश मुहूर्त मात्र में घटित हो जाता था। ऐसे आध्यात्मिक पुरुषों की तो भारत में कमी ही नहीं थी, जो अपनी अलौकिक और चमत्कारी शक्ति से आश्चर्यजनक कार्य कर दिखाते थे।

अपने सामान्य रूप में जो मनुष्य एक तुच्छ प्राणी से अधिक कुछ नहीं होता वही मनुष्य आत्मिक शक्तियों के जाग जाने पर अलौकिक, सिद्ध और चमत्कारी पुरुष बन जाता है। मनुष्य की आत्मिक शक्तियों का जागरण आध्यात्मिक साधना द्वारा होता है। जो लोग उस साधना पथ पर जितनी दूर तक चल पाते हैं, उतनी ही उनकी वे सूक्ष्म शक्तियाँ प्रबुद्ध हो जाती हैं, जो आत्म-प्रदेश में सुप्त पड़ी रहती हैं। ऋषि-मुनि अपने सम्पूर्ण जीवन को आध्यात्मिक साँचे में ढाल कर चलते थे और प्रचण्डतम साधनायें करके अलौकिक शक्तियों के स्वामी बन जाते थे। लोक के साथ अपने परलोक तक को कल्याण-कुसुमों से परिपूर्ण कर लिया करते थे। जिस साधना द्वारा मनुष्य की आत्मिक शक्तियाँ प्रबुद्ध होती हैं, वह है अपने शरीर और मन पर नियन्त्रण करना। शरीर पर नियन्त्रण करने का अर्थ है, इन्द्रियों को स्वाधीन करना और मन पर नियन्त्रण करने का आशय है, उसकी चंचलता पर प्रतिबन्ध लगा देना, उसकी वृत्तियों को अपने अनुकूल बना लेना। उसे एकाग्र, एकनिष्ठ और स्थिर बना लेना। मन अध्यात्म-साधना का बहुत बड़ा साधन है। जब यह नियन्त्रित होकर एक दिशा में प्रवाहित अथवा सक्रिय होता है तो अस दिशा की सूक्ष्म सम्पदाओं को खोज निकालना है। मन की गति बहुत सूक्ष्म है, वह स्वयं भी सूक्ष्म ही होता है। अतएव जब वह भौतिक चंचलता से मुक्त स्थूल से विमुख होकर सूक्ष्म की ओर जाता है, तब अपना सम्बन्ध उस आत्म-प्रदेश से ही स्थापित करता है, जिसमें वे शक्तियाँ सोई रहती हैं, जो अलौकिक कार्य सम्पन्न करने में सक्षम होती हैं। मन का सूक्ष्म शक्तियों से सम्बन्धित होना ही उनका प्रबोधन कहा गया है।

शरीर और मन पर नियन्त्रण हो जाने से एक सीमा तक मनुष्य का अधिकार प्रकृति पर भी हो जाता है प्रकृति ही जड़ और चेतन दोनों प्रकार की सृष्टि की संचालिका होती है। साधना द्वारा उस पर अधिकार हो जाने से मनुष्य अपनी अधिकार रेखा तक उसकी प्रक्रियाओं, नियमों और नियन्त्रण में भी हस्तक्षेप कर सकता है। इस अधिकार के आधार पर ही वह उसके सामान्य नियमों का अतिक्रमण करके ऐसे कार्य सम्पादित कर दिखाता है, जो चमत्कार अथवा सिद्धियों जैसे विदित होते हैं। मनुष्य यह देखने और जानने में समर्थ हो जाता है कि सृष्टि के सूक्ष्म परिवेश में क्या हो रहा है, कैसे हो रहा है और उसे किस प्रकार किया जा सकता है- तथा क्या होने जा रहा है और उसको किस प्रकार अपनी इच्छा के अनुसार परिवर्तित किया जा सकता है। इस प्रकार वह विराट् सृष्टि यन्त्र का एक सहायक संचालक सा बनकर सामान्य लोगों को चमत्कारी, सिद्ध अथवा अलौकिक पुरुष विदित होने लगता है अलौकिकता और कुछ नहीं प्रकृति के साथ उसके विधान में भागीदार हो जाना भर ही है।

आत्मा की शक्तियों की कोई सीमा नहीं। वे असीम और अनन्त है। शक्ति का निवास सूक्ष्मता में होता है। जो पदार्थ, जो वस्तु जितनी अधिक सूक्ष्म होती जाती है, उसकी शक्ति उतनी ही बढ़ती जाती है। किसी स्थूलतम विशाल-ग्रह में सब मिला कर जितनी शक्ति होती है, उतनी शक्ति एक परमाणु में भी होती है। अब तो यह तथ्य विश्वास अथवा अनुमान का विषय न रहकर एक वैज्ञानिक सत्य बन चुका है। परमाणु की खोज और उसका प्रयोग कर वैज्ञानिकों ने उसकी प्रचण्ड शक्ति को प्रमाणित कर दिया है। अणुबमों द्वारा परमाणु की शक्ति अब संपूर्ण संसार पर प्रकट हो चुकी है। वैज्ञानिक अब इस शक्ति को सृजनात्मक कार्यों में प्रयोग करने की सोच रहे हैं। अब यह सद्विचार कार्य रूप में परिणत होने लगेगा तो निश्चय ही इस संसार का चित्र ही बदल जायेगा।

जिस प्रकार एक ग्रह की शक्ति एक अणु में रहती है, उसी प्रकार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की शक्ति-पिण्ड में विद्यमान् है। यह विराट् ब्रह्माण्ड ईश्वर का प्रकट रूप है और पिण्ड अर्थात् मनुष्य उसका एक अंश है। यहाँ पर मनुष्य का अर्थ भौतिक पिण्ड अथवा शरीर से नहीं है। उसका तात्पर्य आत्मा से है, उस आत्मा से जो शरीर में गुप्त रह कर भी चेतना रूप में भासमान होता है। यही वह परमात्मा का अंश माना है, जिसमें उसके अंशी परमात्मा की सारी शक्तियाँ सन्निहित रहती हैं। आत्मा की शक्तियों का जागरण कर लेना। कहना न होगा कि जिसमें परमात्मा की शक्तियाँ प्रबुद्ध हो जायेंगी, उसके लिये ऐसा कौन-सा कार्य हो सकता है, जो असम्भव अथवा अकरणीय हो। आत्म-शक्ति सम्पन्न व्यक्ति सब कुछ कर सकने में समर्थ होता है। वह प्रकृति के नियमों का अतिक्रमण कर सकता है, सृष्टि-विधान में हस्तक्षेप कर सकता है, असम्भव को सम्भव, भाव को अभाव और अभाव को भाव में बदल सकता है। यह आत्मिक शक्ति आध्यात्मिक साधना द्वारा सहज ही प्रबुद्ध की जा सकती है।

यह मानव जीवन बड़ा ही महान् और महत्त्वपूर्ण है। यही वह अवसर है, जिसका उपयोग कर मनुष्य तुच्छ से विराट् और अणु से विभु बन सकता है। यह वह अवसर है, जिसमें अनन्त शक्तिशालिनी आत्मा का ज्ञान सुलभ हुआ है। आत्मा का विस्तार एवं क्षेत्र अत्यन्त विशाल और महत्त्वपूर्ण है। आत्मा को देख लेने वाले को कुछ देखना शेष नहीं रह जाता और उसको जान लेने पर कुछ जानना नहीं रहता। निदान बुद्धिमान् लोग साधना द्वारा इस आत्मा को ही जानने का प्रयत्न करते हैं। उसे जान लेते हैं और जानकर सर्वदर्शी, सर्वज्ञ और सर्वशक्ति सम्पन्न बन कर जीवन का पूरा-पूरा क्षेत्र प्राप्त कर लेते हैं।

भारतीय ऋषि-मुनि ऐसे ही बुद्धिमान् लोगों में से थे। उन्होंने पंच भौतिक जीवन में बड़ी-बड़ी साधनायें करके, बड़े-बड़े कष्ट उठाकर महान् से महान् त्याग करके आत्म-क्षेत्र में प्रवेश किया था। उन्होंने साधना द्वारा कुण्डलिनी जागरण, ब्रह्म-समाधि आदि योगों को सिद्ध किया। शरीर सीमा से उठकर उच्च भूमिका में और स्थूलता से बढ़कर सूक्ष्म दशा में गये और आत्मा से साक्षात्कार कर उसकी शक्तियों को जगाया और सिद्धि की उस स्थिति के स्वामी बने जिसे ईश्वरीय स्थिति कहा जा सकता है। उन्होंने उस दिव्य-शक्ति का आग्रहण किया, जिसके आधार पर वे सूक्ष्म जगत् में होने वाले क्रिया-कलापों को वैसे ही देख लेने में समर्थ होते थे, जैसे हम अपने चक्षुओं द्वारा भौतिक जगत् के सामान्य दृश्यों को देख लेते हैं। यह आत्मिक शक्ति के आकलन का ही फल होता था कि ऋषि केवल एक दृष्टि अथवा वचन मात्र से ही लोगों का भाग्य और भविष्य अदल-बदल देते थे। धन्य थे वे साधक और उनकी सिद्धियाँ। अपनी उसी आध्यात्मिक साधना के कारण ही वे महानुभाव आज भी मृत्युञ्जय होकर हमारे बीच अजर रूप से जीवित बने हुए हैं।

मानव जीवन पाकर जिसने अपने को आध्यात्मिक साधना से वंचित रखा उसने मानो अपनी ऐसी हानि कर ली, जिसकी क्षतिपूर्ति किसी प्रकार भी नहीं हो सकती। यह बात सही है कि सभी लोग ऋषि-मुनियों जैसी प्रचण्ड साधना करने के न तो योग्य हो सकते है और न उनके पास ऐसा अवसर अथवा अवकाश ही होता है। मिट्टी में बीज की तरह मिलकर तप में समाप्त होकर सिद्धि का वैसा प्रयास सब के लिये सम्भव नहीं जैसा कि महापुरुषों ने किया है। तब भी आत्मा को पाने, उसकी शक्ति का आग्रहण करने के लिये जीवन प्रति-जीवन में थोड़ा-थोड़ा प्रयास करते ही चलना चाहिये। इस जीवन में यदि एक साथ सहसा ही तपश्चर्या कर्तव्यों का पालन करते और भौतिक जीवन गति को अक्षुण्ण रखते हुये भी सामान्य साधना तो की ही जा सकती है। इस सामान्य साधना का रूप भक्ति, पूजा, उपासना अनुष्ठान, जप, ज्ञान, साधना, चिन्तन आदि कुछ भी हो सकता है। हम सब का परम कर्तव्य है कि अपनी योग्यता, स्थिति और परिस्थिति के अनुसार इनमें से किसी भी साधना को ग्रहण कर उसमें नियमित रूप से लगे रहें। धीरे-धीरे साधना संचित होती रहेगी और एक दिन किसी न किसी जन्म में पूर्ण होकर अपना सम्पूर्ण फन प्रदान करेगी।

आध्यात्मिक साधना का स्वरूप कुछ भी हो पर वह सफल तभी होती है, जब श्रद्धा, विश्वास, संयम, साहस, धैर्य और नियमितता आदि तत्त्वों का अवलम्बन लेकर चला जायेगा। इन गुणों से विहीन साधक साधना का वह उच्च फल नहीं पा सकते जिसका सम्बन्ध आत्मा और उसकी शक्तियों द्वारा कतिपय सिद्धियाँ प्राप्त कर लेते हैं। किन्तु यह सिद्धियाँ बहुत ही निम्नकोटि की और अवांछनीय होती हैं। उनको यदि आसुरी सिद्धियाँ भी कह दिया जाय तब भी अनुचित न होगा।

अनाध्यात्मिक मार्ग से प्राप्त की गई सिद्धियों द्वारा न तो किसी का हित साधन किया जा सकता है और न अपने लिये ही आन्तरिक शांति और सन्तोष की ही प्राप्ति हो सकती हैं, जो अज्ञानी और निम्न-स्तर के लोगों के लिये आश्चर्य और आतंक के विषय हों। वह साधना जिसका मार्ग विशुद्ध आध्यात्मिक नहीं होता अशिव साधना ही होती है, उससे शिव परिणामों की आशा नहीं की जा सकती।

साधना का सच्चा उद्देश्य आत्म-लाभ ही है। तथापि अनेक लोग भौतिक लाभों की कामना से पूजा, उपासना अथवा अनुष्ठान किया करते हैं। यद्यपि पूजा, उपासना अथवा अनुष्ठान आदि आध्यात्मिक साधना के स्वरूप हैं। तथापि इनका उद्देश्य भौतिक लाभ बना लेने से वे भी उसी श्रेणी में पहुँच जाती हैं, जिसमें तन्त्र, मन्त्र, यन्त्र आदि की साधना होती है। तन्त्र साधना और सकाम उपासना में स्वरूप भेद होते हुए भी वे परिणाम रूप में एक जैसी ही होती हैं। सकाम उपासना भी आत्मिक उन्नति अथवा आत्म-जागरण कर सकने में सर्वथा असमर्थ ही होती है।

हजरत मोहम्मद को तीव्र ज्वर में बेचैन देखकर उनकी पत्नी रोने लगी। मोहम्मद साहब ने कहा- “जिसे ईश्वर पर विश्वास है वह कभी इस तरह नहीं रो सकता। हमारे कष्ट हमारे पापों का प्रायश्चित है। निस्सन्देह किसी ईश्वर के विश्वासी को एक काँटा भी चुभता है तो ईश्वर उसका रुतबा बढ़ा देता है और उसका एक पाप धुल जाता है। जिसका जितना पक्का विश्वास होता है, उसे उतने ही कष्ट भी दिये जाते हैं, यदि विश्वास कमजोर है तो कष्ट भी वैसे ही होते हैं, किन्तु किसी सूरत में भी कष्टों में उस समय तक कोई माफी न होगी, जब तक कि मनुष्य का एक पाप भूलकर पृथ्वी पर वह निष्कलंक होकर न विचरने लगे।”

मनुष्य की शक्तियाँ अनन्त हैं। किन्तु उनका निवास आत्मा में ही है। अध्यात्म साधना द्वारा उनको प्रबुद्ध और प्राप्त किया जा सकता है। आत्मिक शक्तियों का स्वामी मनुष्य क्षुद्र से महान्, अणु से विभु और जीव से ईश्वर बन जाता है। किन्तु यह सम्भव तभी है, जब साधना के किसी भी स्वरूप का आश्रय लेकर निरन्तर धैर्य और निष्काम-भाव से सुयोग्य पुरुषार्थ में संलग्न रहा जाय।


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