गिरजा गिरे न मस्जिद टूटे वह मन्दिर निर्माण करें।
प्रतिमा करें प्रतिष्ठित जिसमें मानवता के प्राण भरें॥
पिता हिमालय की गोदी से गंगा चली लहर आती।
सबने स्वागत किया जाह्नवी जहाँ-जहाँ होकर जाती॥
हिन्दू-मुसलिम सिख-पारसी का न भेद मन में लाती।
बालक हो नर अथवा नारी स्नेहपूर्वक नहलाती॥
हरिद्वार से कलकत्ता तक, गंगा जल-कल्याण करें।
बिना किसी दैहिक विभेद ये सारे जग का त्राण करें॥
सूर्यदेव उगते प्राणी में फिर आगे बढ़ते जाते।
भारतवर्ष, यमन, इजराइल, रूस चीन भी हैं आत॥
अमरीका, इंग्लैण्ड, फ्राँस में भी प्रकाश वे फैलाते।
कोई भेद न भाव सूर्य भगवान् तभी तो कहलाते॥
प्यार करें हम भी रवि सा धरती में पावन प्राण भरें।
जहाँ दिखे दुःख कष्ट प्राणियों में पीड़ा औ ब्राण हरें॥
दीपक एक जला कर रख दो गिरजा या गुरुद्वारा हो।
वन हो या पर्वती गुफा हो ऊसर या गलियारा हो॥
जल-जल ज्योति सदा फैलाता जहाँ-जहाँ अँधियारा हो।
हम भी वैसे जलें कि जिससे घर-आँगन उजियारा हो।
जीवन में निष्काम कर्म का अब तो शिरस्त्राण पहरें।
महापुरुष पथ चले उसी पर जन-जन पुण्य प्रयाण करें॥
बहुत सताई गई मनुजता उसने बहुत चोट खाई।
अब तो उसे पुनर्जागृत करने की पुण्य घड़ी आई।
युग-निर्माण योजना वह संदेश मनोरम है लाई।
मन्दिर है तैयार प्रतिष्ठा की मुहूर्त भी बन आई॥
हो मंडल अभिषेक दूर अब तो सारे विष बाण टरें।
वह प्रभु करुणा का सागर है उसे नहीं पाषाण करें॥
-बलरामसिंह परिहार,
*समाप्त*