सराक्यूज की रोती हुई प्रतिमा

March 1969

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हम जिस सौर मण्डल में निवास करते हैं, वह -स्पाइरल’ नामक आकाशगंगा से प्रकाश पाता है। उसे एक निहारिका कहते हैं और उसमें कई करोड़ तारे है। सूर्य उन करोड़ों तारों में से एक बहुत ही सामान्य तारा हैं। विशाल ब्रह्माण्ड में अकेले निहारिकाओं की संख्या अरबों की संख्या में है। वैज्ञानिक कहते हैं अपना सौर मण्डल ब्रह्माण्ड की कोई अनोखी घटना नहीं है। अनन्त ब्रह्माण्ड की तुलना में वह पृथ्वी की तुलना में चींटी के हजारवें अंश से भी छोटा है। इतने बड़े विशाल ब्रह्माण्ड का संचालन कितनी विधि व्यवस्था से चल रहा है, उस पर थोड़ा चिन्तन करें तो ऐसा स्वयं ही जान पड़ता कि कोई महामना शक्ति ही उसका संचालन कर रही है। उसका यह चमत्कार शक्ति ही अद्भुत है, मनुष्य तो इस सृष्टि की तुलना में कुछ भी नहीं के बराबर है।

रामायण कहती है-

गिरा अरथ, जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न। बन्दउँ सीता राम पद जिनहिं परम प्रिय खिन्न।

वह परम पिता परमात्मा सृष्टि के कण-कण में कुछ इस प्रकार समा गया है कि वह प्रकृति से कोई विलग सत्ता नहीं समझ पड़ती पर उस नियामक ने अपने आपको स्वतन्त्र भी रखा हैं, जिससे वह सृष्टि के किसी भी क्षेत्र में दुःखी आत्माओं की रक्षा के लिये इच्छानुसार प्रकट होता रहता है। ऐसे चमत्कारों का भी अभी 20 वीं शताब्दी में अभाव हुआ, भले ही अब नृसिंह भगवान् के खम्भे से प्रकट होना ड़ड़ड़ड़ के विष को मधुर रस में बदल देना, प्रह्लाद को अग्नि में से जीवित निकाल लेना, लोगों को अनहोनी बात लगती है। उस सर्वशक्तिमान् सत्ता की महत्ता इस युग में भी प्रगट हुये बिना रहती नहीं।

29 अगस्त 1953 को अभी बहुत दिन नहीं हुये, जबकि सराक्यूज अमेरिका में एक पत्थर की मूर्ति (प्लास्टर आफ पेरिस) की आँखों से आँसू निकल पड़े और कई दिन तक आँसुओं का प्रवाह रुका नहीं। वैज्ञानिक आधार पर इन आँसुओं का विश्लेषण किया गया तो यह पाया गया कि मूर्ति की आँखों से स्रवित आँसुओं और मनुष्य के आँसुओं में कोई अन्तर नहीं है, इस घटना का आँखों देखा सत्य विवरण और उसके अद्भुत प्रभावों का प्रमाण सहित वर्णन डच विद्वान् फादर ए॰ सोमर्स एम॰ एम॰ एम॰ ने अच्छी प्रकार स्वयं मूर्ति का परीक्षण करके लिखा। फादर एच जोंगेन ने उसका अनुवाद कर विश्व के शेष भागों तक पहुँचाया पर इस घटना से एक बार सारे अमेरिका में हलचल मच गई। सैकड़ों आदमियों ने मूर्ति के आँसुओं का परीक्षण किया। हजारों ने उसके दर्शन किये लाखों नास्तिकों को भी अपना विश्वास परिवर्तित करने को विवश होना पड़ा।

घटना का पूर्वारम्भ 21 मार्च 1953 को हुआ। उस दिन सराक्यूज में कुमारी एण्टोनियेटा और श्री एंग्लोजेन्यूसो का पाणिग्रहण संस्कार था। उस पुण्य तिथि पर मित्रों, अभ्यागतों ने अनेक उपहार दिये। उन सामग्रियों में जो एण्टोनियेटा को उपहार में मिली, मीरा के गिरधर गोपाल की मूर्ति की तरह, एक छोटी सी प्रतिमा भी थी जिसे जेन्यूसो के भाई और भाभी ने भेंट दी थी। 2 इंच की यह छोटी सी मूर्ति प्लास्टर की बनी हुई थी। एण्टोनियेटा को वह मूर्ति बड़ी प्यारी लगी। भावना ही तो है, जिस वस्तु पर आरोपित हो जाती है, खराब से खराब मिट्टी की वस्तु भी हीरे जैसी बन जाती है। भावनाओं की शक्ति का कोई वारापार नहीं। भावनायें ही खींचकर लाती थीं और निर्जन एकान्त में मीरा का भगवान साकार रूप में उनके साथ नृत्य करने लगता था। एन्टोनियेटा की भावनाओं के कारण वह मूर्ति साधारण प्रतिमा न होकर उसकी इष्टदेव (मेडेना) बन गई। उसने उसे पलंग के सिरहाने लगा लिया। जिस तरह बालक कभी कष्ट या पीड़ा में माँ को भावनाओं का बल देखकर पुकारता है और माँ हजार काम छोड़कर भागी हुई चली आती है। उसी प्रकार एण्टोनियेटा जब भी कभी दुःखी होती, अपनी साथिन मूर्ति से भावनात्मक वार्तालाप करती उससे उसे बड़ा सन्तोष मिलता।

धीरे-धीरे एण्टोनियेटा गर्भवती हुई। गर्भ जैसे-जैसे बढ़ता गया वैसे-वैसे एण्टोनियेटा का शारीरिक कष्ट न जाने क्यों बढ़ने लगा। वह सूख कर काँटा हो गई, आँख धँस गई और एक दिन दिखाई देना भी बंद हो गया। जुबान ने बोलने से भी इनकार कर दिया। मिरगी के से दौरे आते और वह एण्टोनियेटा मृत्यु तुल्य हो जाती।

डाक्टरी जाँच की गई। डाक्टरों ने बताया भ्रूण में जहर फैल गया है, उसके फलस्वरूप ही शरीर में जहर बढ़ रहा है। डाक्टर कोई निदान न ढूँढ़ पा रहे थे। एण्टोनियेटा पीड़ित दशा में अपलक उसी मैडेना की मूर्ति को निहारें जा रही थी, मानों उसे कोई शिकायत हो- हे प्रभु! यदि तेरी सृष्टि मंगलमय है, तूने प्यार से मनुष्य को बनाया है तो क्या तेरे लिये यह उचित है कि अपने ही बन्दों को इतना कष्ट दे?

कहते हैं परमात्मा बड़ा न्यायकारी है, अपने न्याय के के लिये वह जीवात्मा को बार-बार तपाता, कष्ट देता है और विभिन्न योनियों में पहुँचाते हुए भी वह जरा भी विचलित नहीं होता, किन्तु उसके हृदय की करुणा भी उस सिन्धु के समान है, जिसका जल प्रलय हो जाने पर भी समाप्त नहीं होता। ऐसा लगता है भगवान प्रारब्ध कर्मों को भोगने में कुछ भी हस्तक्षेप न करने को विवश थे पर उनकी अनन्त करुणा उस दिन रुक न सकी और वह पत्थर की आँखें फोड़कर निकल ही पड़ी।

29 अगस्त 1953 को तीव्र दौरा आया तब एण्टोनियेटा का कष्ट असहाय हो उठा। 7 बजे जेन्यूसो को अपनी ड्यूटी पर विवश होकर जाना पड़ा पलंग पर पड़ी एण्टोनियेटा अकेले तड़पकर उसी मूर्ति से अपनी भावना भरी वही प्रश्न मूलक दृष्टि डाले थी, उसी क्षण मूर्ति की आँखों से आँसू ढुलके, एण्टोनियेटा को विश्वास नहीं हुआ- क्या यह सचमुच आँसू हैं या कोई स्वप्न देख रही है। कोई स्वप्नावस्था में नहीं देख रही वरन् सचमुच ही मूर्ति की आँखों से आँसू ढुलक रहे थे।

कई दिन बाद आज पहली चीख सुनी गई। एण्टोनियेटा चिल्लाई-मेडेना रो रही है। तब पड़ोस की दो और स्त्रियाँ आई और उनने भी सचमुच मेडेना को रोते हुए पाया। दोनों महिलाओं ने मूर्ति के सामने घुटने टेक कर प्रार्थना की और फिर बाहर निकल गई। देखते-देखते सारे मुहल्ले में खबर दौड़ गई। जिसने सुना वही भागा, मूर्ति उपहार में देने वाली जेन्यूसो की भाभी ने भी आकर देखा, तब तक मूर्ति के इतने आँसू निकल चुके थे, जिससे सिरहाने का बिस्तर काफी भीग चुका था।

प्रारम्भ में लड़कियाँ और स्त्रियाँ ही यह दृश्य देखने दौड़ी। कुछ लड़के भी आये, पड़ोस में एक सिपाही की धर्मपत्नी ने यह दृश्य देखा और अपने पति को बताया कि वाया डेगली ओरटी में एण्टोनियेटा की मेडेना की आँखों में आँसू भर रहे हैं। सिपाही ने जाकर सारी घटना पुलिस को सुनाई, इस बीच घर स्त्रियों से भर गया था। कई स्त्रियाँ प्रार्थनाएँ कर रही थी और मूर्ति थी कि उसकी आँखों से बरसने वाले अश्रु-कण कम न होते थे।

उसी दिन दोपहर को डा. मारियो मेसीना, जो वाइआ कारसो में रहते थे, स्वयं घटना का निरीक्षण करने पहुँचे। उन्होंने जाकर मूर्ति को उठा लिया। दीवार जहाँ वह टंगी थी, उसे अच्छी तरह देखा कहीं कुछ भी गीला या पानी की बूँदें वहाँ नहीं थी, उसे भी हटाकर साफ कर दिया। अच्छी तरह झाड़-पोंछ कर मूर्ति को पुनः रखा गया तो आँसुओं का वही प्रवाह अविरल गति से पुनः वह निकला।

डा. मारिओ उस समय भावातिरेक से चिल्ला उठे मेडेना सचमुच रो रही है। उन्होंने बाहर आकर सैकड़ों लोगों को बताया-” यह एक अलौकिक प्रसंग है, जबकि न तो आँखें धोखा दे रही हैं और न बुद्धि साथ। विज्ञान उसका कोई उत्तर नहीं दे सकता है, हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। यही कह सकते है कि भगवान की माया सचमुच विलक्षण है।”

अब तक जेन्यूसो भी घर आ गया था, मूर्ति के रुदन को देखकर अपनी पत्नी के प्रति दर्द की सहानुभूति कुछ ऐसी उमड़ी कि वह भी दहाड़ मार कर रो पड़ा। उस दिन सैकड़ों, हजारों आँखें मूर्ति के साथ रोई और भगवान की प्रतिभा मानों इसलिये और रोये जा रही थी कि मुझ पर विश्वास करने से अच्छा होता, आप लोग संसार के दुःख और दुःखों के कारण ढूँढ़ते और उन्हें मिटाते।

अब तक पुलिस स्टेशन में भी इस घटना पर क्रम से विचार हो चुका था। उच्च-पदाधिकारियों की मीटिंग में यह निश्चित किया गया कि लगता है यह बहुत सुनियोजित प्रपंच है, इसलिये मूर्ति को यहीं थाने लाया जाये और उसका डाक्टरी और वैज्ञानिक परीक्षण भी यहीं किया जाये।

रात 10 बजे पुलिस जेन्यूसो के मकान पर पहुँची। जेन्यूसी सहित उसने मूर्ति को अपने अधिकार में ले लिया और थाने के लिये चल पड़ी। रास्ते में मूर्ति के आँसुओं का प्रवाह इतना बढ़ा कि सिपाही जिसके हाथ में मूर्ति थी उसकी सारी वर्दी ही भीग गई। थाने पर मूर्ति का पक्का निरीक्षण किया गया। जहाँ से भी सम्भव था खोलकर उसे देखा और साफ किया पर आँखों से मनुष्य जैसे आँसू कहाँ से आ रहे हैं, इस बात का कोई अन्तिम निर्णय न निकल सका। पुलिस अधिकारियों की भी आँखें गीली हो चलीं, उन्होंने भी प्रार्थनाएँ की और मूर्ति जहाँ लगी थी सादर वहीं पहुँचा दिया। “यह ऐसी विलक्षण घटना है, जिसका कोई उत्तर पुलिस के पास नहीं है।” ऐसा कहकर पुलिस ने जेन्यूमो को भी मुक्त कर दिया।

30 अगस्त को सारे प्रान्त में यह खबर तेजी से फैल गई। लोग अखबारों और पत्रकारों से पूँछ-ताछ करने लगे ‘ला सिसीलिया’ दैनिक पत्र के सम्पादक ने भी इस घटना का विस्तृत निरीक्षण किया और अपने रविवारसीय अंग में बड़े विश्वास के साथ लिखा-हम स्वयं मेडेना के बहते आँसू देख चुके हैं। सायरेक्यूस स्टेशन आगन्तुक दर्शनार्थियों के लिये छोटा पड़ रहा है। इस घटना ने सर्वत्र तहलका मचा दिया है, लगता है परमात्मा अपने विश्वास को प्रकट करने के लिए स्वयं ही आँसुओं को अभिव्यक्त कर रहा है। यह वह क्षण है, जब हम सब विचारशील लोग यह सोचने को विवश होते हैं कि सचमुच विज्ञान से भी बड़ी कोई ताकत संसार में है जो दिखाई न देने पर भी मानवीय शक्ति से प्रबल है। तब उसके हस्तक्षेप से परे कुछ भी न होना चाहिये।”

इसी प्रकार का एक बयान मिस्टर मासूमेकी ने भी प्रकाशित कराया बाद में उन्हें इस मूर्ति के दर्शनार्थ आने वाले यात्रियों की सुविधा और सुरक्षा के लिये जो एक कमेटी बनाई गई, वह उसके अध्यक्ष भी नियुक्त किये गये। इस तरह सैकड़ों प्रामाणिक व्यक्तियों ने रोती हुई मूर्ति का आँखों देखा हाल छापा। इसी दिन ‘ला सिसीलिया डेल लुनेडी’ अख़बार के एक रिपोर्टर ने अख़बार को टेलीफोन में बताया कि-मेडेना के आँसू बन्द नहीं हो रहे। यह एक महान् आश्चर्य है जिसके रहस्य का पता लगाया ही जाना चाहिये। यदि यह सच है कि मूर्ति के आँसुओं का कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है तो हमें उस सत्ता की खोज के लिये भी प्रयत्न करना चाहिये, जो पदार्थ विज्ञान को भी नियन्त्रण में रख सकती हैं, उस पर स्वतन्त्र आधिपत्य स्थिर कर सकती है।” इसी तरह के अनेक सुझाव और परामर्श भिन्न-भिन्न पेशों के अनेक लोगों ने व्यक्त किये। इधर मूर्ति के दर्शनों के लिये हजारों लोग खिंचे चले आ रहे थे।

मूर्ति-रुदन के चौथे और अन्तिम दिन ‘ला सिसीलिया’ के इस कथन-मेडेना के दर्शनार्थियों की भीड़ जिस तेजी से बढ़ रही है, यह रहस्य उतना ही उलझता जा रहा है। यह निर्विवाद है कि वहाँ कोई मनगढ़न्त कहानी हिप्नोटिज्म अथवा जादूगरी की कोई सम्भावना नहीं है तो फिर आँसुओं के बहने का वैज्ञानिक कारण क्या है, उसका पता लगाया ही जाना चाहिये-पर सरकारी तौर पर तीव्र प्रतिक्रिया अभिव्यक्त की गई।

उसी दिन 10 पुरोहितों (प्रीस्ट्स) के एक दल (डेलीगेशन) ने भी यह घटना देखी। फादर र्वेसेन्जों ने रोती हुई प्रतिमा के कैमरा फोटो लिये। बाद में और भी बहुत से लोगों ने फोटो लिये। बाद में और भी बहुत से लोगों ने फोटो लिये। उसी दिन इटालियन क्रिश्चियन लेबर यूनियन के अध्यक्ष प्रो० पावली अलबानी ने भी यह घटना अपनी आँखों से देखी। उसी दिन पुलिस अधिकारियों ने सारी घटना की दुबारा ब्योरेवार जाँच की पर फिर भी उन्होंने यही पाया कि यह आँसू किसी कृत्रिम उपकरण की देन नहीं, वास्तविक मूर्ति के ही आँसू हैं। आँखों के अतिरिक्त मूर्ति का कोई अंग गीला नहीं मिला। उसी दिन सरकारी तौर पर एक न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) का संगठन किया गया। उसमें पुलिस के अधिकारी, विशेषज्ञ और वैज्ञानिक भी थे और उनसे घटना का निश्चित उत्तर देने को पूछा गया।

1 सितम्बर 1953 का दिन था। फादर ब्रूनो, जाँच विशेषज्ञ और पुलिस अधिकारी उस मकान में पहुँचे, जहाँ वह आँसू बहाने वाली प्रतिमा रखी थी। बड़ी मुश्किल से पुलिस की सहायता से सब लोग मूर्ति तक पहुँच सके। भीड़ का कोई आदि था न अन्त। जिन चार व्यक्तियों की देख-रेख में परीक्षण प्रारम्भ हुआ वह-(1) जोसेफ ब्रूनो पी. पी. (2) डा. माइकेल केसैला डायरेक्टर आफ माइक्राग्रेफिक डिपार्टमेन्ट, (3) डा. फ्रैंक कोटजिया असि. डायरेक्टर, (4) डा. लूड डी. उर्सो थे। इनके अतिरिक्त निस सैम्परिसी, चिफ कांस्टेबल प्रो. जी० पास्क्विलीनो डी० फ्लोरिडा, डा. ब्रिटनी (कैमिस्ट) फैरिगो उम्बर्टो (स्टेट पुलिस के ब्रिगेडियर) तथा प्रेसीडेन्ट आफिस के प्रथम लेफ्टिनेन्ट कारमेलो रमार्नो भी थे।

जब चारों वैज्ञानिक और विशेषज्ञों ने आवश्यक जाँच के कागज तैयार कर लिये, तब उन्होंने मूर्ति देने के लिये एण्टोनियेटा से प्रार्थना की। मूर्ति अलमारी में एक कागज में लिपटी हुई बन्द थी। एण्टोनियेटा के शारीरिक लक्षण तेजी से बदल रहे थे। डाक्टर का उपचार भी काम कर रहा था, अब तक उसकी आँखों में प्रकाश भी आ चुका था और जुबान का लड़खड़ाना भी बन्द हो चुका था। डाक्टर उसे भगवान् की कृपा ही मान रहे थे, क्योंकि चार दिन पूर्व तक उस पर किसी दवा का प्रभाव नहीं हो रहा था।

उसने मूर्ति का द्वार खोल दिया। उक्त विशेषज्ञों ने दाई और बाई दोनों आँखों से पिपेट की सहायता से एक-एक सी०सी० आँसू इकट्ठा किये। उन्होंने सब तरफ से परीक्षण किया पर आँसू कहाँ से आ रहे हैं, यह कुछ न जान सके पर अब इधर एण्टोनियेटा भी चंगी हो चुकी थी और आँसुओं की भी वह अन्तिम किश्त थी जिसे जाँच कमेटी एकत्रित कर सकी थी, बस तभी अचानक मूर्ति की आँखों से आँसू आने बन्द हो गये।

अगले दिन आँसुओं का विश्लेषण (एनालिसिस) किया गया। प्रो. ला रोजा ने लिखा-

श्री पूज्य एम॰ डी० कास्ट्रो,

प्रीस्ट आफ सेन्टिगो डी० सुडाड निकाल स्पेन,

आपकी प्रार्थना पर वह सब कुछ लिख रहा हूँ- कमीशन ने आँसू इकट्ठे किये हैं, मूर्ति दो पेंचों के द्वारा जुड़ी हुई थी। मूर्ति का प्लास्टर बिल्कुल सूखा हुआ था, आँसुओं का निरीक्षण आर्कविशप क्यूरियो द्वारा नियुक्त कमीशन ने किया है माइक्रो किरणों से देखने पर इन आँसुओं में वह सभी तत्त्व पाये गये हैं, जो तीन वर्ष के बच्चे के आँसुओं में होते हैं, यहाँ तक कि क्लोरेटियम के पानी का घोल, प्रोटीन व क्वाटरनरी साफ झलक दे रहा था। मेरी पूर्ण जानकारी में मेरे हस्ताक्षर साक्षी हैं-

हस्ताक्षर, प्रो० एल॰ रोजा,

बाद में मूर्ति बनाने वाला कारीगर भी आया, उसने अपने हाथ से बनाई हुई ऐसी अनेक मूर्तियों के बारे में बताया, जो बाज़ार में बिकी पर उनमें से किसी के हाथ भी ऐसी कोई घटना नहीं हुई।

अन्ततः वैज्ञानिक हैरान ही रहे कि जब तक एंटोनियेटा को अत्यधिक पीड़ा रही, मूर्ति क्यों रोती रही और डाक्टरी सहायता के बावजूद भी जो अच्छी न हुई थी वह कैसे अच्छी हुई और उस असहाय का कष्ट दूर होते ही मूर्ति के आँसू क्यों बन्द हो गये, इसका कोई निश्चित निष्कर्ष वे न निकाल सके पर उन्होंने यह अवश्य स्वीकार किया कि इस विज्ञान से भी बढ़कर कोई भावनाओं का विज्ञान अवश्य है, जिसका मनुष्य जीवन से सीधा और गहरा सम्बन्ध हैं, जब तक मनुष्य उस पर विश्वास नहीं करता, उसे जानता नहीं, तब तक उसकी मूल समस्यायें हल नहीं हो सकतीं।


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