भक्ति-पथ की जीवन-नीति

March 1969

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

बेतुकी सृष्टि में मनुष्य-शरीर जैसी विलक्षण कोई दूसरी वस्तु नहीं। नाना प्रकार की इच्छाओं, कामनाओं, भावनाओं, महत्त्वाकाँक्षाओं का जन्म ही इसमें होता रहा हो, उतना ही नहीं संसार में जो कुछ भी अद्भुत और अलभ्य है, उस सब की अनुभूति इस शरीर से सम्भव हैं शरीर ही जीव के आत्म-कल्याण का साधन है, बढ़िया उपयोग हो सके तो स्वर्ग की प्राप्ति भी मनुष्य जीवन से ही सम्भव है। संक्षेप में जो कुछ भी सृष्टि में है, वह सब मनुष्य शरीर में है।

सूर्य, चन्द्रमा जैसे अगणित ब्रह्माण्डों के सूक्ष्म-ब्रह्माण्ड जगत् इस शरीर में हैं, जीवात्मा उनमें विहार कर सकता है। ईश्वरीय आनन्द का उपभोग यदि कहीं प्रत्यक्ष संभव है तो वह मनुष्य शरीर से ही सम्भव है, शर्त यह है कि जीवन-नीति ऐसी हो जो उस शाश्वत लक्ष्य की ओर ले चलने में सहायक होती हो।

रामायण कहती है-

बड़े भाग मानुष तन पाया। सुर दुर्लभ सद्ग्रन्थन गावा॥

साधन-धाम मोक्ष कर द्वारा। पाइ न जेहि परलोक सँवारा॥

सो परम दुःख पावई सिर धुनि-धुनि पछताव। कालहिं कर्महि ईश्वरहिं मिथ्या दोष लगाव॥

मनुष्य शरीर जैसा उपयोगी साधन नहीं जो जीवन लक्ष्य का उद्बोधन करा सके। यही एक ऐसा जीवन है, जिससे नर नारायण बन सकता है, संत एकनाथ जी भाव-विभोर होकर गाया करते थे-

नरदेहा चे नि ज्ञाने, सच्चिदानन्द पदवी होंग। येवढ़ा अधिकार नारायरणें, कुपावलोकने बीधला॥

अर्थात्- परमात्मा ने कृपापूर्वक मनुष्य को यह अधिकार दिया है कि ज्ञान के द्वारा वह इसी नर देह से सच्चिदानन्द को प्राप्त करे।

इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये शास्त्रकारों ने गहन अनुसन्धान के बाद ऐसे मार्ग निर्धारित किये हैं, जिन पर चलता हुआ मनुष्य पारलौकिक आनन्द का रसास्वादन कर सकता है। (1) ज्ञान-योग (2) भक्ति-योग (3) कर्म-योग यह तीन मार्ग परमात्मा तक पहुँचने के हैं, इनमें भक्ति सर्वसुलभ और सरल साधन हैं। रामायण में तो कलियुग क्या किसी भी युग में केवल भक्ति को ही सर्वोत्तम साधन बताकर केवल इसी पथ की अभिब्यंजना की हैं।

भगति हेतु विधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई॥

रामचरित सर बिनु अन्हवाए। सो श्रम जाइ न कोटि उपाए॥

भक्ति में वह रस है कि नारद जैसे ज्ञानी भी उसके लिये इच्छुक हुए, अपने लोक से विष्णुपुरी तक भागते फिरते हैं। भक्ति मार्ग की एक सुव्यवस्थित जीवन-नीति है, उस पर यदि चला जा सके तो बड़े-बड़े साधन और ज्ञान की भी आवश्यकता नहीं, मनुष्य स्वरूप प्रयास से ही सौभाग्य सिद्ध कर सकता है।

भक्ति का जो स्वरूप आज सर्वत्र प्रचलित है, वह सही नहीं है। भक्ति वस्तुतः ईश्वर निष्ठा की कठिन कसौटी है जिस पर बिरले मनस्वी ही पार लगते हैं। सच तो यह है कि कोई भी योग भक्ति के बिना सम्पूर्ण नहीं होता। साधनों की कठिनाई में भी भक्ति-भावना ही अंतर्दर्शनार्थी को सहारा दिये रहती है। भक्ति वह कोमलता है जो माँ की तरह उसके जटिल जीवन को भी सरल और प्रवाहमान रखती है। रामायण में आप भगवान् कहते हैं-

सुलभ सुखद मारम यह भाई। भगति मोरि पुरान श्रुति गाई।

ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका। साधन कठिन न मन कहुँ टेका॥

करत कष्ट बहु पावई कोऊ। भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ॥

भक्ति को ऐसी महत्ता का प्रतिपादन करते हुए भगवान् ने भक्त की जीवन-नीति भी घोषित की और कहा-

सरल सुभाउ न धन कुटिलाई। जया लाभ संतोष सवाई॥

वह जिसका मन सरल स्वभाव वाला है, जिसे थोड़े लाभ में भी संतोष रहता है, वही सच्चा ईश्वर भक्त है।

बैर न विग्रह आस न त्रासा। सुखमय ताहिसदा सब आसा॥

अनारम्भ अनिकेत अमानी। अनध अरोप दच्छ विज्ञानी॥

प्रीति सदा सज्जन संसर्गा। तृन सम विषय स्वर्ग अपवर्गा॥

वह जो किसी से बैर नहीं करता, किसी से झगड़ा नहीं करता, न सुख की आशा न किसी से भय, जो कुछ मिले उसी में सुखी, स्वयं को कर्त्तापन के अभिमान से जो मुक्त रखता है, जिसे अपने धन की महत्त्वाकाँक्षा नहीं, निष्पाप, अक्रोध अन्तःकरण और जो संसार को एक विज्ञान की तरह निरन्तर मन में स्थिर रखता है, ऐसा भक्त ही मुझे प्रिय है।

भगति पच्छ हठ नहिं सठताई। दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई॥

भक्त शठता नहीं करता, किसी वस्तु के लिये हठ नहीं करता, दुष्ट सताता है, बुरा-भला कहता है तो उसे उपेक्षा द्वारा टाल देता है।

मम गुन ग्राम नाम रत मत ममता मद मोह। ताकर सुख सोई जानई परानन्द संदोह॥

इस तरह ममता, मोह और अभिमान से विमुख हुआ जन निरन्तर विराट् परमात्मा मानसिक स्तवन किया करता है, उसका सुख तो बस वही जान सकता है। वह आत्मानन्द की स्थिति ही मनुष्य जीवन का अनादि और अनन्त लक्ष्य है।

भक्तिमय जीवन के इस व्यवहारिक पक्ष को समझने के बाद उन मान्यताओं का खण्डन हो जाता है, जो केवल क्षणिक मूर्ति दर्शन, तीर्थ-यात्रा गंगा-स्नान कथा-कीर्तन व्रत से फलीभूत माना जाता है। श्रद्धा का सुख मिले इसके लिये यह भी सब आवश्यक हैं पर ईश्वर-भक्त होकर भी व्यवहारिक जीवन की शुद्धता, पवित्रता, नियम-बद्धता और सामाजिक मर्यादाओं के पालन की दृढ़ता आवश्यक ही नहीं पूर्ण अनिवार्य है।

ब्रह्म सिन्धु-सदृश गम्भीर और व्यापक है, ज्ञान विराट् ब्रह्म का देवता है, जो जन ईश्वर-स्तवन द्वारा भक्ति को परिपुष्ट करते रहते हैं, अनासक्त रहकर ज्ञान द्वारा मद, मोह, लोभ आदि को मारते रहते हैं, ऐसी सुदृढ़ भक्ति वाले लोग संसार में विजयी होते हैं और मनुष्य जीवन में आने का सौभाग्य सफल बनाते हैं।

इस प्रकार जब अपने जीवन को शुद्ध, सरल, सात्विक सदय, सन्मार्गगामी, सद्ज्ञान संयुक्त बनाता हुआ मनुष्य परमात्मा की भक्ति में तत्पर होता है तो उसके सारे दुःख नष्ट हो जाते हैं और वह क्षिप्रता में परम प्रकाश की ओर गमन करने लगता है। रामायण बताती हैं-

राम भगति चिंतामनि सुन्दर। असछ गरुड़ जाके उर अन्तर॥

परम प्रकाश रूप दिन राती। नहिं कछ चहिऊ दियां धृत आती॥

मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहिं बुझावा।।

प्रबल अविधा तम मिट आई। हीरहिं सकल सलभ समुदाई॥

खल कामादि निकट नहिं आई। बसई भर्गात जाके डर माहीं॥

व्यापहिं मानस रोग न भारी। चिन्ह के बस सब जीव दुखारी॥

राम मगति मनि उर बस जाकें। दुख लवलेस न सपनेहु ताकें॥

चतुर सिरोमनि तेई जय माहीं। जे मन लागि सुखतन कराहीं॥

भाव सहित खोजई को प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी॥

इन पंक्तियों में स्पष्ट है कि भक्ति मनुष्य का उसके लक्ष्य तक पहुँचाने में सभी सहायक है पर वह भी एक योग है। योग सरल नहीं कठिन हुआ करते हैं। भक्ति-योग की कठिनता यही है कि व्यवहारिक जीवन भी शुद्ध, खरा और पूर्ण अध्यात्मवादी होना चाहिये। इस शर्त के साथ की गई शक्ति ही फलदायक होती है, अन्य नहीं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles