मनोमयकोश की सरल किंतु महान साधना

October 1962

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स्थूलशरीर की सूक्ष्मचेतना ‘मन’ कहलाती है, यों मन को ग्यारहवीं इंद्रिय भी माना गया है। पाँच ज्ञानेंद्रियाँ और पाँच कर्मेंद्रियाँ सर्वविदित हैं। मन इन सबका संचालक होने के कारण उसे भी ग्यारहवीं संचालक इंद्रिय मानते हैं। मन का सारे शरीर पर साम्राज्य है। प्राण तो जीवन-तत्त्व है। उसके ऊपर जीवन-मरण निर्भर रहता है। मन में इतनी शक्ति तो नहीं है कि जीवन-मृत्यु की समस्या उत्पन्न करे, पर इतना अवश्य है कि दसों इंद्रियों की तथा सारे चेतना-संस्थान की गतिविधियाँ उसी के आधार पर संचालित होती हैं। देखने में मनुष्य हाड़-माँस का बना मालूम होता है। पर ध्यानपूर्वक देखा जाए तो वह विचार और विश्वासों का बना होता है। हाड़−माँस सभी मनुष्यों का प्रायः एक समान होता है। नाक, कान की बनावट में बहुत थोड़ा अंतर पाया जाता है। आहार−विहार भी प्रायः एक-सा ही देखा जाता है। इतने पर भी व्यक्तियों में इतना अंतर होता है कि उसे आकाश−पाताल कहा जा सकता है। यह अंतर शारीरिक स्थिति का नहीं, वरन मानसिक स्थिति का होता है।

मानसिक स्थिति का आधार

विचार, विश्वास, अभिरुचि, आकांक्षा और दृष्टिकोण का निर्धारण हमारी मानसिक स्थिति के आधार पर होता है और उन्हीं तथ्यों में भिन्नता रहने से हर मनुष्य का व्यक्तित्त्व पृथक-पृथक प्रकार का बनता है। मोटी दृष्टि से गरीबी−अमीरी, जाति-पाति, विद्या-बुद्धि, सत्ताशक्ति या वैभव के आधार पर छोटे−बड़े का अंतर किया जाता है, पर जब गंभीरता से देखा जाता है तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि मानसिक स्थिति ही व्यक्तित्वों के अंतर का प्रधान कारण है। धन, विद्या, वैभव, सत्ताशक्ति आदि के उपार्जन में भी मनोभूमि की उत्कृष्टता एवं निकृष्टता प्रधान आधार रहती है। यदि कोई व्यक्ति आलसी, प्रमादी, दीर्घसूत्री, जिद्दी, निरुद्योगी, प्रकृति का हो तो उसे जन्मजात अनेकों सुविधाएँ प्राप्त होते हुए भी उन्नति का अवसर प्राप्त नहीं होता। इतना ही नहीं, जो कुछ पूर्वज दे गए थे, वह भी अस्त−व्यस्त हो जाता है। इसके विपरीत जिनकी मनोभूमि आशावादी, उत्साही, प्रगतिशील, श्रमशील एवं बारीकी से सोचने-समझने की होती है, वे विपन्न परिस्थितियों में जन्म लेने पर भी अपने अध्यवसाय से वह परिस्थितियाँ उत्पन्न कर लेते हैं, जिनमें अभीष्ट उन्नति की व्यवस्था बन जाए।

आंतरिक स्थिति की सुव्यवस्था

मानसिक स्थिति की उत्कृष्टता के आधार पर ही मनुष्य की निरोगता, प्रसन्नता, विद्या, बुद्धि, कीर्त्ति, पारिवारिक सुव्यवस्था, समृद्धि का सुयोग बनता है। मनुष्य का किसी विशेष दिशा में उन्नति कर सकना इस बात पर निर्भर है कि कितना मनोयोग, कितना प्रयत्न और कितना पुरुषार्थ उस कार्य में लगाया गया है। मनःस्थिति अस्त−व्यस्त रहने पर किसी कार्य में सफलता प्राप्त कर सकना तो दूर, जीवन का साधारण-क्रम स्थिर रख सकना कठिन हो जाता है। यदि थोड़ी-अधिक विकृति आ जाए तो व्यक्ति की सत्ता शठ, जड़मूर्ख, कुबुद्धि, दुराग्रही, उद्दंड जैसी उपहासास्पद एवं घृणास्पद बन जाती है। विकृति कुछ और आगे बढ़े तो उसे उन्मादी एवं विक्षिप्त माना जाने लगता है, यही स्थिति आगे बढ़कर असामाजिक एवं पागल बनाकर जेलखाने या पागलखाने में बंद कराने की दयनीय स्थिति में पहुँचा देती है। हीन और पतित स्थिति में पड़े हुए लोग साधनों की स्थिति से इतने दुर्बल नहीं होते, जितने मानसिक विकास की दृष्टि से गिरे हुए होते हैं।

मनोमयकोश का विकास

अन्नमयकोश की उच्चस्तरीय गायत्री उपासना के साथ−साथ साधक को मनोमयकोश को सुव्यवस्थित बनाना पड़ता है। गायत्री माता के पाँच मुखों में से पहला अन्नमयकोश और दूसरा मनोमयकोश है। मन की गतिविधियाँ संतुलित रहें, इसके लिए यह आवश्यक है कि हमारी आस्था, मान्यता, श्रद्धा, अभिरुचि एवं आकांक्षा परिष्कृत हों।

मनोमयकोश की साधना में अपनी सोचने की प्रक्रिया को हमें परिमार्जित करना होगा। हीन श्रेणी के जिन विचारों ने हमारी मनोभूमि पर अधिकार कर रखा है, उसकी सफाई करनी पड़ेगी। यों आमतौर से हर आदमी अपने को बुद्धिमान, सही सोचने वाला और निर्दोष मानता है। गलतियाँ उसे दूसरे में दीखती हैं और अपने आप में कोई दोष सूझ नहीं पड़ता, पर थोड़ी बारीकी से ढूँढ़ने पर अपने मान्यताओं और विचारधाराओं में से आधी से अधिक भ्रांत, अनुपयुक्त एवं दोषपूर्ण सिद्ध होती हैं। इस स्थिति में सुधार करना ही मनोमयकोश की साधना का लक्ष्य है।

नित्य की मानसिक सफाई

गत वर्ष स्वाध्याय और मनन-चिंतन की साधना पाठकों ने आरंभ की थी और अखण्ड ज्योति के लेखों या किसी भी जीवन निर्माण करने वाली प्रेरणाप्रद पुस्तक को पढ़ने और उस पर मनन चिन्तन करते रहने का कार्य−क्रम अपनाया था। विचारों के परिमार्जन के लिए स्वाध्याय आवश्यक है। कुविचारों की काट सद्विचारों से ही होती है। गरम लोहे को ठंडा लोहा काटता है, काँटे-से-काँटा निकाला जाता है और विष-से-विष का शमन होता है। स्वाध्याय और सत्संग के माध्यम से जो सद्विचार ग्रहण किए जाते हैं, इन्हीं के द्वारा कुविचारों और कुसंस्कारों का प्रतिरोध किया जाता है। रोज ही घर में धूलि जमती है, उसे बुहारी से रोज ही झाड़ना पड़ता है। रोज ही दाँत मैले होते हैं। रोज ही मंजन करना पड़ता है। इसी प्रकार जनसंपर्क से रोज ही दूषित प्रवृत्तियाँ हमारे ऊपर आक्रमण करती हैं और उनका निवारण करने के लिए रोज ही स्वाध्याय और सत्संग की व्यवस्था करनी पड़ती है। चूँकि अब आज की परिस्थितियों में सुलझे हुए विचारों का ऐसा सत्संग जो जीवन को सर्वांगपूर्ण प्रगति के पथ पर अग्रसर कर सके, प्रायः दुर्लभ ही दीख पड़ता है। इसलिए इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ऐसे साहित्य के स्वाध्याय पर ही निर्भर रहना पड़ता है जो विज्ञानसम्मत ढंग से हमारी जिज्ञासाओं का समाधान करते हुए जीवन जीने की कला ठीक प्रकार सिखा सके । स्वाध्याय को इसी दृष्टि से एक अनिवार्य साधना माना गया है और उसे भजन के समकक्ष ही पुण्य फलदायक माना गया है। पंचकोशी साधना में साधकों के लिए तो वह नितांत अनिवार्य ही है।

सत्संकल्प का मनन-चिंतन

इस वर्ष स्वाध्याय के मनन-चिंतन को गत वर्ष जितना विस्तृत एवं क्षेत्र में बिखरा हुआ न रखकर उसे सीमाबद्ध कर रहे हैं, ताकि थोड़े विचारों पर अधिक तत्परता और तन्मयता के साथ चित्त-वृत्तियों को एकाग्र करते हुए मनोभूमि का सुदृढ़ निर्माण किया जा सके । गत मास युगनिर्माण संकल्प आरंभिक पृष्ठ पर छपा है और उसकी विस्तार से व्याख्या भी की गई है। यह संकल्प अखण्ड ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्य को दैनिक-साधना एवं उपासना की तरह मनोयोगपूर्वक नित्य ही पढ़ना और उस पर मनन रखना चाहिए।

संकल्प में जिन भावनाओं का उल्लेख किया गया है, उसके अनुकूल अपनी आकांक्षा एवं अभिरुचि हमें जागृत करनी है, अपनी मनोभूमि को इस ढाँचे में ढालना है और धीरे−धीरे इसी मार्ग पर चलते रहना है। किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि संकल्प को पढ़ने एवं विचारने का अर्थ यह है कि पहले ही दिन यह सब बातें हमारे जीवन में पूर्णतया कार्यान्वित होने लगें और यदि न हो सकीं तो अपने ऊपर प्रतिज्ञा-भंग का दोष लगेगा। वस्तुतः यह प्रतिज्ञा या व्रत नहीं है, संकल्पमात्र है। ‘सं’ कहते हैं अच्छी और ‘कल्प’ कहते हैं कल्पना को। एक अच्छी कल्पना, जिसे हममें भावी जीवन में करने की तीव्र आकांक्षा हो 'संकल्प' कहलावेगा। व्रत या प्रतिज्ञा इससे सर्वथा भिन्न बात है। व्रत लेकर उसे सदा पालन करना ही चाहिए। कितने ही कष्ट उठाकर भी व्रत का पालन करना चाहिए। पर संकल्प इससे हलकी और नीचे की स्थिति है। उसमें निश्चित रूप से कुछ भी करने की प्रतिज्ञा नहीं है। केवल अपनी मनोभूमि में इन भावनाओं को गहराई से उतार लेने की, भली प्रकार हृदयंगम कर लेने की बात है।

भावनाओं के परिपक्व होने पर मनुष्य अपनी अंतःप्रेरणा से विवश होकर स्वतः ही उस प्रकार के कार्य करने लगता है। हम प्रतिबंधों पर विश्वास नहीं करते। संकल्पबल के अभाव से प्रतिज्ञाएँ आए दिन टूटती रहती हैं। अंतःकरण में किसी भावना ने गहराई तक प्रवेश न किया हो और आवेश में आकर कोई प्रतिज्ञा कर ली जाए तो वह निभ नहीं पाती। पर यदि किसी तथ्य को मनुष्य पूरी तरह भावना-क्षेत्र में जमा ले तो बिना किसी पूर्ण-प्रतिज्ञा के भी वह उस पर अड़ा रहता है और अपनी उस आस्था की पूर्ति के लिए बड़े-से-बड़ा त्याग करने को तत्पर हो जाता है।

मनन और चिंतन

सत्संकल्प को पढ़ लेना पर्याप्त न होगा। एकांत में बैठकर शांतचित्त से इस प्रेरणा−संदेश के प्रत्येक वाक्य पर देर तक विचार करना चाहिए। सन्निहित प्रेरणा के स्वरूप का चिंतन विस्तारपूर्वक करते हुए यह सोचना चाहिए कि ये  भावनाएँ कितनी वास्तविक, कितनी उपयोगी, कितनी सत्परिणामदायिनी, कितनी श्रेष्ठ और कितनी महान हैं। यदि सच्चे मन से उन पर विश्वास करें और उसी के आधार पर अपनी गतिविधियाँ निर्धारित करें तो जीवन कितना उत्कृष्ट, कितना दिव्य, कितना शांतिमय और कितना आदर्श बन सकता है।

आस्तिकता और कर्त्तव्यपरायणता

संकल्प-पत्र का प्रथम वाक्य है—‟मैं आस्तिकता और कर्त्तव्यपरायणता को मानव जीवन का कर्त्तव्य मानता हूँ।” सोचना चाहिए कि आस्तिकता कितना महत्त्वपूर्ण मानवीय गुण है। उसके कारण मन पर कितना अधिक अंकुश रहता है। चौबीस घंटे का एक सच्चा स्वजन-संबंधी सर्वशक्तिमान ईश्वर, जब अपने साथ रहते हुए अनुभव होता है तो कितनी हिम्मत बँधी रहती है। ईश्वरीय सद्गुणों का निरंतर चिंतन करते रहने से उस आदर्श के अनुकूल अपने आप को ढालने में भी कितनी सुविधा होती है। आत्मा के आंतरिक संतोष का नाम ही ईश्वरीय प्रसन्नता है, सो यह कार्य सन्मार्ग पर चलने वाले के लिए कितना सरल और सुगम है, ईश्वर की सृष्टि को सुंदर-सुविकसित बनाकर सच्ची ईश्वरभक्ति का परिचय देने वाला विवेकशील व्यक्ति जितना आनंद और उल्लास प्राप्त करता है, उतना विपुल वैभव वाले को भी नहीं मिलता। ईश्वरप्राप्ति का लक्ष्य, ईश्वर-आदेशों पर चलते हुए प्राप्त कर सकना कितना सुगम रखा गया है। वासना और तृष्णा के बंधनों को तोड़कर कर्त्तव्यपरायणता को अपना लक्ष्य रखने वाला कितना संतुष्ट रहता है। महापुरुषों का सर्वोपरि गुण, कर्त्तव्यपरायणता ही तो होती है। इसे अपनाकर हम भी महापुरुष क्यों न बन सकेंगे। जीवन का सर्वश्रेष्ठ सदुपयोग अपने कंधों पर आए हुए उत्तरदायित्वों को एक ईमानदार मनुष्य की तरह पालन करने में ही तो है। कर्म ही तो धर्म की आत्मा है। कर्मयोगी और कर्मवीर को ही तो धर्मात्मा कहते हैं। जिसने कर्म को महान माना और कर्त्तव्यपालन मार्ग में आने वाले सहस्र प्रलोभनों और कष्टों की उपेक्षा कर दी, वही तो महात्मा है। महात्मा, ईश्वर उपासना को जीवन के आवश्यक कर्त्तव्यों में से एक मानकर उसे नियमित रूप से करते हैं और साथ ही शारीरिक, मानसिक, कौटुंबिक, सामाजिक क्षेत्रों में अपने किसी भी कर्त्तव्य की उपेक्षा नहीं करते। महात्मा ही तो अपने सद्गुणों को विकसित करते−करते परमात्मा बन जाते हैं। आत्मा को उच्च आदर्शों के परिपालन में संलग्न रखकर हम परमात्मा की प्राप्ति का शास्त्रसम्मत मार्ग क्यों न अपनावें? ईश्वरप्राप्ति के लिए कर्त्तव्यों का त्याग करने वाले भ्रांत व्यक्तियों की तरह अपना समय बर्बाद करने वालों की भूलों से शिक्षा लेते हुए हम सच्चे शास्त्रसम्मत, आर्ष निर्देशित मार्ग पर ही क्यों न चलें?

आत्मसंयम और नियमितता

दूसरा वाक्य संकल्प-पत्र का है—‟शरीर को भगवान का मंदिर समझकर आत्मसंयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करूँगा।” इस वाक्य का स्वाध्याय, मनन और चिंतन करते हुए विचार करना चाहिए कि, "ईश्वर ने इस संसार के विविध आनंदों का रसास्वादन करने के लिए यह कितना सुंदर, कितना महत्त्वपूर्ण शरीर दिया है। शरीर छिन जाने पर सूक्ष्मप्राण केवल चेतना रूप रह जाते हैं। फिर संसार की विभिन्न रंग−बिरंगी अनुभूतियों का अनुभव करने की क्षमता हमें कहाँ रह पाती है? देवलोक में कुछ आनंद है, उन्हें प्राप्त करने के लिए जीव स्वर्ग जाने की आकांक्षा करता है। पर कुछ आनंद ऐसे हैं, जो स्वर्गलोक में भी नहीं हैं और जिन्हें प्राप्त करने की इच्छा से देवता भी स्वर्ग छोड़कर नरदेह में जन्म लेते और इस 'स्वर्गादपि गरीयसी'  धरती पर विचरण करने की आकांक्षा करते रहते हैं और जब भी उन्हें ऐसा अवसर मिलता है, तभी अपना सौभाग्य मानते हैं। मानव शरीर न तो उपेक्षणीय है और न यह अपना भूलोक अन्य किसी लोक से हीन है । इसलिए देशभक्ति की भाँति ही हमें अपनी धरतीमाता में जन्म लेने का गर्व अनुभव करना चाहिए। इसे छोड़कर स्वर्ग आदि किसी लोक में जाने की नहीं, वरन इसे ही स्वर्ग बनाने की आकांक्षा करनी चाहिए और उस आकांक्षा के लिए अपने आप को बीज की तरह गलाकर अभीष्ट स्थिति उत्पन्न करनी चाहिए।"

न शरीर तुच्छ है, न यह संसार

यह नर शरीर तुच्छ नहीं, घृणित नहीं, रोग-शोक का घर नहीं, वरन सच्चिदानंद प्रभु का मंदिर है। जैसी श्रद्धा और निष्ठा किसी देवालय के प्रति हमारी हो सकती है, उससे अनेक गुनी श्रद्धा हमें इस शरीर के प्रति रखनी चाहिए, क्योंकि इसमें आत्मा का—परमात्मा का साक्षात निवास है। सूर्य और चंद्रमा की शक्तियाँ नेत्रों के रूप से इस मंदिर में प्रकाशित हैं। मरुत यहाँ साँस के रूप में अहिर्निश सफाई करता रहता है। अग्निदेव उदर में निवास करते हुए भोजन पचाने वाले रसोइये की तरह कार्य करते हैं। वरुण देवता के जल की उपस्थिति इस शरीर में तीन-चौथाई रहती है। दसों इंद्रियों में दस दिग्पाल विराजमान हैं। मस्तिष्क के सहस्रार कमल में 'शेषशायी विष्णु' का स्थान है। षट्चक्रों को, 108 उपत्यकाओं में, 84 ग्रंथियों में अगणित शक्तिबीज अपना−अपना स्थान जमाए हुए हैं। असंख्य ऋद्धियाँ, सिद्धियाँ और निधियाँ, अप्सराओं, यक्षिणियों और किन्नरों की तरह इसमें विचरण करती रहती हैं। ऐसे मानव शरीर का स्वामित्व प्राप्त करके हमें अपने सौभाग्य और गौरव का अनुभव करना चाहिए।

किसी मूल्यवान् वस्तु को प्राप्त करने के उपरांत प्रत्येक जिम्मेदार व्यक्ति का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि उसे संभाल कर रखे और किसी प्रकार क्षतिग्रस्त न होने दे। नरदेह जैसी सुरदुर्लभ विभूति को प्राप्त करने के उपरांत उसे निरोग, स्वच्छ एवं सुदृढ़ बनाए रहने के लिए आवश्यक सावधानी बरतना हममें से प्रत्येक का परम पवित्र-कर्त्तव्य है। बीमारी, दुर्बलता और अकालमृत्यु का कारण इस ओर उपेक्षा बरतना और देह के साथ अत्याचार करना ही होता है। इस अनीति को बंद कर देने के बाद शरीर अपनी स्वाभाविक स्थिति को स्वतः पहुँच जाता है। रोगों से बचने और उन्हें लड़कर मार भगाने की समुचित क्षमता शरीर में मौजूद है, पर निरंतर के अपने निज के अत्याचार होते रहें तो बेचारा कहाँ तक बचाव करेगा? कहाँ तक बीमारी से बचा रहेगा? असंयम और अनियमितता ही समस्त शारीरिक अव्यवस्थाओं का एकमात्र कारण होने से इन दोनों डाकिनों को मार भगाना ही उचित है। भगवान राम को मारने के लिए ताड़का और भगवान कृष्ण को मारने के लिए पूतना आई थी। हमारे आत्मा और परमात्मा के निवास, इस देवशरीर को मारने के लिए अनियमितता और वासनारूपी डाकिनें अपने कपटरूप बनाकर आए दिन सामने आती रहती हैं। इनके प्रपंच से सावधान और सतर्क रहना ही सब प्रकार उचित है।

सत्संकल्प के तीन अनुच्छेद

संकल्प में तीन पैराग्राफ (अनुच्छेद) हैं। प्रथम अनुच्छेद में सन्निहित सद्विचारों की शृंखला पर ऊपर की पंक्तियों में विचार किया गया है। इसी प्रकार के विचार शेष अनुच्छेदों में और भी भरे पड़े हैं। विस्तारभय से यहाँ एक ही पैराग्राफ पर चिंतन करने के कुछ विचार प्रस्तुत किए गए हैं। हमें पूरे संकल्प में सन्निहित सभी विचारों पर धीरे−धीरे मनन और चिंतन करते रहना चाहिए। गत अंक में इस संबंध में और भी अधिक विस्तारपूर्वक विचार हो चुका है। चिंतन और मनन के समय ऐसे−ऐसे अगणित विचार उठ सकते हैं। उन पर एकांत में बैठकर मनन करते रहना चाहिए। युधिष्ठिर ने बाल्यकाल में ‘सत्यं वद’— इतना-सा गुरु का दिया हुआ पाठ याद करने में बहुत समय लगाया था। सत्संकल्प की विचारधारा इतनी विस्तृत है कि उस पर चिंतन-मनन करते रहने में एक वर्ष का समय लग जाना कुछ अधिक नहीं है।

मनोमयकोश की शुद्धि का सबसे प्रधान एवं सबसे महत्त्वपूर्ण साधन यह है कि मस्तिष्क में अधिक-से-अधिक समय तक श्रेष्ठ विचारधारा प्रवाहित होती रहे। मन को एकाग्र करने के लिए कई प्रकार के ध्यान आदि भी हैं और उनका शिक्षण हम अगले वर्षों में करेंगे भी। पर उनकी उपयोगिता तभी है, जब सद्विचारों द्वारा मनोभूमि को पहले परिमार्जित एवं उर्वर बना लिया जाए। ऊसर भूमि में अच्छा बीज भी नहीं जमता। मनःक्षेत्र में अगणित चमत्कारी शक्तियाँ छिपी पड़ी हैं, इनमें एक-एक की महत्ता किसी देवी या दानवी से कम नहीं है। पर यह सब मलीनता के गर्त्त में दबी पड़ी हुई सड़ती रहती हैं। मनोबल का चमत्कार जब भी प्रकट होता है तो मनुष्य ऋषियों, महापुरुषों, देवता एवं अवतारों की श्रेणी में गिना जाने लगता है। यह बल बढ़ता उसी का है, जिसने कषाय-कल्मषों से अपनी विचार भूमिका को स्वच्छ करने की साधना आरंभ कर दी है। इस वर्ष पंचकोशी गायत्री साधना के उच्चस्तरीय शिक्षा के शिक्षार्थियों को मनोमयकोश का परिमार्जन करने के लिए उपरोक्त 'विचार शोधन' की प्रक्रिया ही प्रस्तुत की जा रही है।


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