प्राणशक्ति का प्रचंड विद्युत-प्रवाह

October 1962

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मन की चंचलता और लोलुपता प्रसिद्ध है। अनियंत्रित मन अल्हड़ बछड़े की तरह इन्ही खाड़-खंडकों में कूदता-फाँदता रहता है। उसकी इन गतिविधियों के कारण मनुष्य का सारा जीवन ही अव्यवस्थित हो जाता है। आकांक्षाएँ बहुत, कामनाएँ असीम, पर दृढ़ता और तत्परता जरा भी नहीं, ऐसी मनोभूमि उपहासास्पद ही होती है। उसमें असंतोष ही असंतोष भरा रहता है। उन्नतिशीलों को देखकर ईर्ष्या बढ़ती है, अपने दुर्भाग्य पर रोना आता है, असफलता का दोष किसी-न-किसी पर थोपते रहने की विडंबना चलती रहती है, पर इनसे काम तो कुछ नहीं बनता। मन की असंस्कृत स्थिति एक ऐसी कमी है, जिसकी पूर्ति संसार की और किसी भी वस्तु से नहीं हो सकती। इस कमी के रहते हुए हर व्यक्ति ओछा-छिछोरा, अविवेकी, असंयमी, बालबुद्धि, अविकसित और हर क्षेत्र में असफल ही रहता है।

एकाग्रता का प्रतिफल

मनोमयकोश की साधना का उद्देश्य स्वर्ग, मुक्ति या सिद्ध चमत्कारों की खोज करना ही नहीं, वरन व्यावहारिक जीवन को सुसंयत और सुविकसित बनाना है। मन की शक्ति उस जलप्रपात की तरह है, जो साधारणतः यों ही मुद्दतों से गिरता और बहता रहता है, पर यदि उसी से पनचक्की या बिजली बनाने का कार्य किया जाए तो आश्चर्यजनक लाभ प्राप्त होने की सुविधा बन जाती है और वह निरर्थक दीखने वाला झरना बहुत लाभदायक एवं उपयोगी सिद्ध होता है। मन में जो प्रचंड शक्ति भरी है, उसका महत्त्व जिनने जान लिया, वे अपना सारा ध्यान मन को नियंत्रित करने में लगाते हैं। उसकी चंचलता को रोकते और एकाग्रता को बढ़ाते हैं। अच्छे नंबरों से, ऊँचे डिवीजनों से पास होने वाले विद्यार्थी, महत्त्वपूर्ण अन्वेषण करने वाले वैज्ञानिक, मेधावी वकील, डॉक्टर, इंजीनियर और कारीगर एकाग्रता के बलबूते पर ही गौरवान्वित होते हैं। कवि, लेखक, चित्रकार, गायक, कलाकारों में जो प्रतिभा दीख पड़ती है, वह उनकी तन्मयता का ही प्रतिफल है। कुशल व्यापारी अपने कारोबार में अपने को घुला देता है। लक्ष्य को वही बेध पाता है, जिसे अर्जुन की तरह बाण की नोंक और चिड़िया का मस्तक ही दिखाई देता है। भक्त और साधकों को अपने इष्टदेव में तन्मय हो जाने पर ही साक्षात्कार का लाभ मिलता है। समाधि और कुछ नहीं, चित्त को एकाग्र करने की परिपूर्ण सफलता का ही दूसरा नाम है।

मन ही मित्र, मन ही शत्रु

गीता में कहा गया है कि, "वश में किया हुआ मन ही अपना मित्र और अव्यवस्थित चित्त ही अपना सबसे बड़ा शत्रु है।" जिसने अपने आपको जीत लिया, वह तीनों लोक जीत लेने के समान विजयी माना जाता है। आध्यात्मिक और भौतिक विभूतियाँ इस संसार में इतनी अधिक हैं कि ध्यानपूर्वक देखने से यह दुनिया जादू की नगरी जैसी प्रतीत होती है। परमात्मा की इस पुण्य वाटिका में खिला हुआ हर पुष्प, उसका कोई भी पुत्र बेरोकटोक प्राप्त कर सकता है, पर साथ ही यह प्रतिबंध लगा हुआ है कि मनस्विता की नाप-तौल के आधार पर ही यहाँ ऊँचे स्तरों तक प्रवेश मिलता है। जिस प्रकार सिनेमा में अधिक दाम का टिकट खरीदने वाले को अधिक सुविधा की सीट मिलती है, वैसे ही ईश्वर के इस जादूनगरी खेल में अधिक आनंददायक अनुभूतियाँ उन्हें मिलती हैं, जिनके पास अधिक मनस्विता संग्रह होती है। मन का ही साम्राज्य इस सारे चेतना जगत पर छाया हुआ है। ऋषियों के आश्रमों में उनकी प्रचंड विचारधारा से प्रभावित होकर गाय और सिंह एक साथ बैठे रहते है। युगपुरुष अपने संकल्पबल से संसार की विचाराधारा ही बदल डालते हैं। महात्मा गांधी, भगवान बुद्ध, ईसामसीह आदि महापुरुषों ने कितने अधिक लोगों का जीवन बदल डाला, यह किसी से छिपा नहीं है।

मनोमयकोश से अगला प्राणमयकोश है। कई स्थानों पर पहले प्राणमयकोश और फिर मनोमयकोश का उल्लेख मिलता है। इस क्रम भेद में उलझने से कोई लाभ नहीं। थाली में आए हुए पदार्थों में से पहले दाल खावें या शाक, यह प्रश्न अभिरुचि और सुविधा से संबंधित है। कोई सैद्धांतिक इसका महत्त्व नहीं है। इस प्रकार मनोमय और प्राणमयकोश के आगे-पीछे वाले क्रम को कोई महत्त्व नहीं दिया जाना चाहिए। मन की शक्ति से प्राण की शक्ति अधिक एवं सूक्ष्म है। यह शरीर का एक अंगमात्र है, उसे ग्यारहवीं इंद्रिय कहा गया है। पर प्राण इससे भिन्न, इससे प्रबल और इससे सूक्ष्म है। इसलिए हमने महत्त्व की दृष्टि से मन के बाद प्राण की शिक्षा देने का क्रम अपनाया है।

पराप्रकृति की चेतनाशक्ति

सृष्टि, परा और अपरा प्रकृति के दो भागों में विभक्त है। एक को जड़, दूसरे को चेतन कह सकते हैं। शरीर में मन की चेतना पंचतत्वों के सम्मिलन की चेतना मानी जाती है। आत्मा में प्रकाश प्राप्त करते हुए भी वह आत्मा का नहीं, शरीर का ही अंश माना जाता है। इसी प्रकार विश्वव्यापी पंचतत्त्वों की, महाभूतों की सम्मिलित चेतना का नाम प्राण है। प्राण को जीवनीशक्ति भी कह सकते हैं। वह वायु में, आकाश में घुला तो रहता है, पर इनसे भिन्न है। जिसे जड़ प्रकृति कहते हैं, वस्तुतः वह भी जड़ नहीं है। उसमें प्राण की एक स्वल्पमात्रा भरी रहती है। पूर्ण निष्प्राण वस्तु पूर्णतः निरुपयोग ही नहीं होती, वरन नष्ट भी हो जाती है। प्राण के अभाव में कोई वस्तु अपना स्वरूप धारण किए नहीं रख सकती। उसके जो स्वाभाविक गुण हैं, वे भी स्थिर नहीं रहते।

प्राण को एक प्रकार की सजीव विद्युतशक्ति कह सकते हैं, जो समस्त संसार में वायु, आकाश गरमी एवं ईथर की तरह समायी हुई है। यह तत्त्व जिस प्राणी में जितना अधिक होता है, वह उतना ही स्फूर्तिवान, तेजस्वी, साहसी एवं सुदृढ़ दिखाई देता है। शरीर में व्याप्त इसी तत्त्व को 'जीवनीशक्ति' एवं ‘ओज’ कहते हैं और मन में व्यक्त होने पर यह तत्त्व प्रतिभा एवं तेज कहलाता है। वीर्य में यह विद्युतशक्ति अधिक मात्रा में भरी रहने से ब्रह्मचारी लोग मनस्वी एवं तेजस्वी बनते हैं। इसी के अभाव से चमड़ी गोरी-पीली होने पर भी, नख-शिख का ढाँचा सुंदर दीखने पर भी मनुष्य निस्तेज, उदास, मुरझाया हुआ और लुंज-पुंज सरीखा लगता है। भीतरी तेजस्विता के अभाव से चमड़ी की सुंदरता निर्जीव जैसी लगती है। मन को लुभाने वाले सौंदर्य में जो तेजस्विता एवं मृदुलता बिखरी होती है, वह और कुछ नहीं, प्राण का ही उभार है। वृक्ष, वनस्पतियों, पुष्पों से लेकर शिशु और शावकों, किशोरों-किशोरियों में जो कुछ आह्लाद दीख पड़ता है, वह सब प्राण का ही प्रताप है। यह शक्ति कहीं चेहरे के सौंदर्य में, कहीं वाणी की मृदुलता में, कहीं प्रतिभा में, कहीं बुद्धिमत्ता में, कहीं कला-कौशल में, कहीं भक्ति में, कहीं अन्य किसी रूप में देखी जाती है।

प्राण का आध्यात्मिक स्वरूप

दुर्गा के रूप में अध्यात्म जगत में इसी तत्त्व को पूजा जाता है। शक्ति यही है। दुर्गा सप्तशती में 'या देवी सर्व भूतेषु शक्ति रूपेण तिष्ठति' आदि श्लोकों में अनेक रूप से, उसी तत्त्व के लिए ‘नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमोनमः' कहकर अभिवंदन किया गया है। विजयदशमी की शक्तिपुंज के रूप में हम इस प्राणतत्त्व का ही आह्वान और अभिनंदन करते हैं। विश्व-सृष्टि में समाया हुआ यह प्राण, जब दुर्बल पड़ जाता है तो हीनता का युग आ जाता है, सब जीव-जंतु दुर्बलकाय, अल्पजीवी, मंदबुद्धि और हीनभावनाओं वाले हो जाते हैं। किंतु जब इसकी प्रौढ़ता रहती है तो इस सृष्टि में सब कुछ उत्कृष्ट रहता है। सतयुग और कलियुग का भेद इस विश्वप्राण की प्रौढ़ता और वृद्धता पर निर्भर है। जब सृष्टि में से यह प्राण वृद्ध होते−होते मरण की, परिसमाप्ति की स्थिति में पहुँचता है तो प्रलय की घड़ी प्रस्तुत हो जाती है। परमाणुओं के एकदूसरे के साथ संबद्ध रखने वाला चुंबकत्व−प्राण ही नहीं रहा तो वे सब बिखरकर धूलि की तरह छितरा जाते हैं। जितने स्वरूप बने हुए थे, वे सब नष्ट हो जाते हैं, इसी का नाम प्रलय है। जब दीर्घकाल के पश्चात यह प्राण चिरनिंद्रा में से जागकर नवजीवन ग्रहण करता है तो सृष्टि-उत्पादन की प्रक्रिया पुनः आरंभ हो जाती है। जीवात्माओं को इस परा और अपरा प्रकृति का आवरण धारण करके कोई स्वरूप ग्रहण करने का अवसर मिलता है और वे पुनः जीव-जंतुओं के रूप में चलते-फिरते दृष्टिगोचर होने लगते हैं।

यह प्राणतत्त्व किन्हीं प्राणियों को पूर्वसंग्रहित संस्कार एवं पुण्यों के कारण जन्मजात रूप से अधिक मात्रा में उपलब्ध होता है। इसे उनका सौभाग्य ही कहना चाहिए। पर जिन्हें वह न्यून मात्रा में प्राप्त है, उन्हें निराश होने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। प्रयत्नों के द्वारा इस तत्त्व को कोई भी—अभीष्ट आकांक्षा के अनुरूप अपने अंदर धारण कर सकता है। जिसमें कम है, वह उसकी पूर्ति, इस विश्वव्यापी प्राणतत्त्व में से बिना किसी रोक-टोक चाहे जितनी मात्रा में लेकर कर सकता है। जिनमें पर्याप्त मात्रा है, वह और भी अधिक मात्रा में उसे ग्रहण करके अपनी तेजस्विता और प्रतिभा में अभीष्ट अभिवृद्धि कर सकते हैं।

प्राणतत्त्व की उपलब्धि

यों स्वास्थ्य जन्मजात रूप से भी किसी-किसी का अच्छा होता है। कोई-कोई आहार-विहार ठीक रखने मात्र से बलवान बने रहते हैं, व्यायाम की पूर्ति वे अपने दैनिक कार्यों से भी कर लेते हैं, तात्पर्य यह है कि बिना व्यायाम के भी कितने ही व्यक्ति बलवान और परिपुष्ट देखे जाते हैं, इतने पर भी व्यायाम का महत्त्व कम नहीं होता। जिन्हें विशेष रूप से अपना स्वास्थ्य संभालना है, उन्हें नियमित व्यायाम को अपने दैनिक जीवन में स्थान देना पड़ता है। कोई पहलवान, कोई खिलाड़ी ऐसा नहीं होता, जो रोज व्यायाम न करता हो। स्वास्थ्य की अभिवृद्धि के लिए जिस प्रकार व्यायाम का एक विशेष महत्त्व है, उसी प्रकार प्राणशक्ति की अभिवृद्धि के लिए प्राणायाम का स्थान है। प्राणों के व्यायाम को ही ‘प्राणायाम’ कहते हैं। जीवन विकास के लिए प्राणधन की समुचित मात्रा चाहिए। इसका उपार्जन करना अपने को एक बड़ी शक्ति से वंचित रखना ही कहा जाएगा। धन के बिना व्यापार नहीं हो सकता, पूँजी के अभाव में कोई उद्योग-धंधा चल सकना संभव नहीं। इसी प्रकार चेतना और प्रेरणा, प्रतिभा और पुरुषार्थ के बिना जीवन-विकास की प्रक्रिया अग्रसर नहीं हो पाती। यह सब लक्षण प्राणशक्ति के ही हैं। प्राण का संपादन जीवन-व्यापार के लिए आवश्यक पूँजी एकत्रित करने के समान है। इस तथ्य को भली प्रकार समझकर ही ऋषियों ने अध्यात्म-साधना में प्राणायाम को प्रमुख स्थान दिया है। संध्या-वंदन, हवन, अनुष्ठान आदि प्रत्येक नित्य-नैमित्तिक धर्मकार्यों में प्राणायाम को अनिवार्य स्थान मिला हुआ है। कोई भी धर्मकार्य ऐसा नहीं, जिसे आरंभ करते हुए प्राणायाम न करना पड़ता हो। यों सभी कार्यों में प्राण चाहिए पर असुरता एवं दुष्प्रवृत्तियों से लड़ते हुए धर्मचेतना को आगे बढ़ाने में पग-पग पर प्रलोभनों से संग्राम करना पड़ता है, इसलिए आत्मकल्याण के मार्ग पर चलने वाले को अतिरिक्त प्राण की भी आवश्यकता होती है। इसलिए प्राणायाम को आवश्यक महत्त्व मिलना उचित ही है।

शरीर और मन पर जीवन-तत्त्व का प्रभाव

दैनिक जीवन में आवश्यक जीवनीशक्ति प्राप्त करके सफलता के मार्ग प्रशस्त करना हर किसी को आवश्यक होता है, इसलिए प्राणायाम की साधारण प्रक्रिया भी सर्वसाधारण के लिए उपयोगी है। प्राणतत्त्व के आधार पर शरीर और मन के अनेक रोगों का निर्धारण कर सकना अब विज्ञानसम्मत तथ्य के रूप में सामने आ चुका है। मैस्मरेजम और हिप्नाॅटिज्म के सिद्धांतों से पाश्चात्य चिकित्सक, वैज्ञानिक अब अपने रोगियों को आवश्यक प्राणतत्त्व प्रदान करके उन्हें रोगमुक्त बनाने में आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त करने लगे हैं। हमारी 'प्राण चिकित्सा विज्ञान' पुस्तक जिन्होंने पढ़ी है, वे जानते हैं कि औषधि विज्ञान की तरह ‘प्राण विज्ञान’ भी एक स्वतंत्र आरोग्य विज्ञान है और उसके द्वारा भी अन्य चिकित्सा प्रणालियों की भाँति ही रोगमुक्ति एवं आरोग्यवृद्धि का उद्देश्य पूर्ण किया जा सकता है। जापान के सुप्रसिद्ध डाॅक्टर शेराबुज ने विशुद्ध रूप से प्राणायाम के आधार पर अपने असाध्य क्षयरोग से छुटकारा पाया था। अच्छा होने पर उन्होंने प्राणविद्या के महान ज्ञान को जनसाधारण में फैलाने का व्रत लिया था और हजारों-लाखों व्यक्तियों को इसी आधार पर आरोग्यवृद्धि के लाभ से लाभान्वित किया था। भारत के योगीजन इस तत्त्व का उपयोग शरीर और मन की साधारण उन्नति में एवं लौकिक समस्याओं के समाधान में करते रहे हैं। ‘स्वर विज्ञान’ इसी का एक स्वतंत्रशास्त्र है। शिवस्वरोदय आदि कितने ही प्राचीन ग्रंथ  इस संबंध में मिलते हैं और प्रायः सभी योगशास्त्रों में स्वरविद्या का न्यूनाधिक उल्लेख मिलता है। एक छोटी पुस्तक इस संबंध में अपने यहाँ से भी प्रकाशित हो चुकी है।

श्वास-प्रश्वास प्रक्रिया

प्राण को ग्रहण करना श्वास-प्रश्वास क्रिया के आधार पर ही संभव होता है। प्राणवायु में घुला रहता है, इसलिए मोटे तौर से उसे वायु ही समझा जाता है। 'प्राणवायु' शब्द भी इसी स्थूल-दृष्टि के कारण प्रचलित हुआ है, अन्यथा प्राण और वायु दोनों एक दीखते हुए भी वस्तुतः उसी प्रकार पृथक हैं, जैसे मीठे दूध में, दूध और चीनी दो अलग पदार्थ होते हुए भी किसी उद्देश्य के लिए मिलाए हुए होते हैं। स्वर विज्ञान, श्वास विज्ञान के नाम से जो भी प्रक्रियाएँ प्रचलित हैं, उन्हें वस्तुतः प्राणविज्ञान ही समझना चाहिए। क्योंकि साँस में ली जाने वाली वायु में आक्सीजन आदि गुणों को ही साधारण रीति से शरीर खींच पाता है, उसमें जो प्राण घुला है, उसको विशेष विधि-व्यवस्था से प्राणायाम-प्रक्रिया से ही प्राप्त कर सकना संभव होता है।

प्राणकोश की साधना में प्राणायाम का विशेष महत्त्व माना गया है। पर वही सब कुछ नहीं है, प्रारंभिक साधकों को श्वास-प्रश्वास प्रक्रिया की विशेष विधि द्वारा अखिल-आकाश में से प्राणतत्त्व की आवश्यक मात्रा खींचकर अपने भीतर धारण करनी पड़ती है, जिससे शरीर और मन में आवश्यक बलिष्ठता का समावेश हो सके। पीछे प्राणतत्त्व को आकाश से अभीष्ट मात्रा में खींचकर उसका उपयोग संसार के विभिन्न कार्यों में करने की क्षमता प्राप्त हो जाती है तो यह नरदेह एक प्रकार का विशाल बिजलीघर बन जाता है, जिससे अपना ही नहीं, दूसरे अनेकों का भी हित-साधन हो सकता है। किसी बड़े बिजलीघर से संबंधित अनेक कल-कारखाने चलते रहते हैं और हजारों-लाखों घरों में रोशनी, पंखा, रेडियो आदि की आवश्यकता पूरी होती है। प्राणविद्या का निष्णांत व्यक्ति अखिल आकाश में व्याप्त प्राण-प्रवाह को मनमानी मात्रा में उपलब्ध करके उससे इतना बड़ा श्रेष्ठ-साधन कर सकता है, जितना कर सकना किसी अमीर, धनी, सत्तावान एवं शासन के लिए संभव नहीं है।


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