विज्ञानमयकोश और निरहंकारिता

October 1962

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विज्ञानमयकोश भावनाओं से विनिर्मित आवरण है। उस पर प्रधानतम भावनाओं की श्रेष्ठता का ही प्रभाव पड़ता है। शरीर और मन के गुण और दोष मानवीय अंतःचेतना को जितना प्रभावित करते हैं, उसकी अपेक्षा भावनाओं की उत्कृष्टता एवं निकृष्टता का प्रभाव कहीं अधिक पड़ता है। इसलिए अध्यात्म मार्ग में भावशुद्धि पर पूरा−पूरा ध्यान दिया जाता है। नीयत या ईमान जिसे कहते हैं, उसे ही धार्मिक-क्षेत्र में भावना कहा गया है। शरीर और मन के द्वारा किए गए पुण्य−पापों का मूल्यांकन मनुष्य की नीयत या भावना के आधार पर ही होता है। कई कार्य बाहर से पाप सरीखे दीखने पर भी उच्च भावना से प्रेरित होकर किए जाने के कारण वस्तुतः पुण्य फलदायक होते हैं, भले ही उसे लोगों की दृष्टि में पाप या अपराध माना जाए। इसी प्रकार बाहर से पुण्य दीखने वाले कार्यों में भी यदि कर्त्ता की दुरभिसंधि छिपी हुई है। लोक-दिखावे या बगुलाभक्ति के लिए अपने पापों पर परदा डालने या प्रशंसा प्राप्त करके लोगों का अधिक शोषण करने की दृष्टि से कोई धर्म-कर्म जैसा ढोंग रचा है तो वह आध्यात्मिक दृष्टि से पाप ही माना जाएगा, फिर चाहे लोग उस कार्य की कितनी ही प्रशंसा क्यों न किया करें।

भावना का वर्चस्व

भगवान, भावना के वश में रहते हैं। भक्ति, भावना का ही एक रूप है। प्रेम का निवास भी भावना-क्षेत्र में ही होता है और उस प्रेम को ही इस संसार में परमात्मा का प्रत्यक्ष स्वरूप मानते हैं। भावनापूर्वक चढ़ाया हुआ तुलसीपत्र भगवान को भावरहित छप्पन व्यंजनों से अधिक प्रिय होता है। श्रद्धा और विश्वास को अध्यात्म जगत का सूर्य, चंद्र कहते हैं। कोई विधि−विधान न जानते हुए भी साधक श्रद्धा और विश्वास के आधार पर लक्ष्य प्राप्त कर लेता है, इसके विपरीत विधि−विधानों में पूर्ण निष्ठगत व्यक्ति भी भावनारहित साधना करे तो उसे लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती। मन और शरीर की भाँति भावनाओं की शुद्धि करने की भी आवश्यकता होती है। विज्ञानमयकोश के परिमार्जन में इसी प्रकार का कार्यक्रम अपनाना पड़ता है।

कृतघ्नता का अभिशाप

गत वर्ष कृतघ्नता पिशाचिनी को बहिष्कृत करके अपने भावना-क्षेत्र में कृतज्ञता को स्थान देने का कार्यक्रम विज्ञानमयकोश की शुद्धि के लिए बताया गया था और कहा गया था कि, ‟आत्मिक प्रगति के पथ पर कृतघ्नता एक बहुत बड़ी चट्टान है।'' पति−पत्नी में, सास−बहू में, पिता−पुत्र में, भाई−भाई में, मित्र−मित्र में, स्वामी-सेवक में जो संघर्ष देखा जाता है, उसके मूल में कृतघ्नता की वृत्ति ही प्रधान रूप से काम कर रही होती है। एकदूसरे के अगणित उपकारों को भूल जाते हैं और किसी तुच्छ-सी बुराई को याद रखकर उसे ही महत्त्व देते रहते हैं। फलस्वरूप इन पुण्य संबंधों में शत्रुता और दुर्भावना का विष पनपने लगता है। यदि सोचने का तरीका सज्जनतापूर्ण है और एकदूसरे के उपकारों को ही महत्त्व दें, छोटी−मोटी भूलों या बुराइयों को मानवीय दुर्बलता की एक छोटी-सी घटना समझकर उसकी उपेक्षा करें तो सभी में प्रेम संबंध अटूट रह सकते हैं। दोषदृष्टि की प्रधानता से हमें अपने चारों ओर शत्रु और दुष्ट ही भरे दिखाई पड़ते थे, वे कृतज्ञता की उपकार-बुद्धि जागृत होने पर मित्र और स्वजन-स्नेही प्रतीत होने लगते हैं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मनुष्य दूसरों का ऋणी है। इसलिए उसे सबके प्रति कृतज्ञता की भावनाएँ धारण किए रहना चाहिए। दूसरों के उपकारों को स्मरण रखना सज्जनता का प्रथम चिह्न है।

कृतज्ञता के प्रतीक चिह्न

कृतज्ञता को व्यावहारिक रूप में लाने के लिए गत वर्ष यह कार्यक्रम बताए गए थे—(1) पिता, चाचा, ताऊ, बाबा, माता, चाची, दादी, बुआ, बड़े भाई, भावज आदि अपने से जो बड़े हों, उनके नित्य चरणस्पर्श करने चाहिए। (2) स्त्रियाँ अपने पति, सास-ससुर, जेठ-जिठानी, बड़ी ननद आदि के नित्य चरणस्पर्श करें। (3) रात को जब सोएँ तो दिन भर में जिन−जिन की सहायता से हमें जीवनयापन में लाभ अथवा सुविधा प्राप्त हुई, उन सबके प्रति उपकार मानना चाहिए, कृतज्ञ होना चाहिए और मन-ही-मन अभिनंदन करना चाहिए। (4) प्रातःकाल जब सोकर उठें तो जीवन में जिन व्यक्तियों का स्नेह-सहयोग प्राप्त हुआ हो तो उन ज्ञात और अज्ञात प्राणियों का कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करें और उनकी जीवित या स्वर्गीय आत्माओं को अभिनंदन करें। वंदना के बाद ही चारपाई से नीचे पैर रखें।

अब इस वर्ष हमें दूसरे ऐसे ही एक महान गुण को हृदयंगम करना है। वह है—'निरहंकारिता।' अहंकारी मनुष्य एक प्रकार से उन्मत्त हो जाता है। दूसरों से अपने को श्रेष्ठ समझता है और अन्यों के प्रति तुच्छता एवं घृणा के भाव रखता है। अहंकार एक प्रकार से घट−घटवासी भगवान से ही घृणा करने के समान है। परमात्मा सदुर्गुण से जितना अप्रसन्न होता है, उतना और किसी से नहीं। भगवान को ‘गर्वहारी’ भी कहा गया है। वे किसी का घमंड सहन नहीं करते, उसे चूर−चूर करने के लिए कोई-न-कोई व्यवस्था करते ही रहते हैं। असुरों के नाश का कारण उनका अहंकार ही था। समता और एकता में सबसे बड़ी बाधा अहंकार ही उत्पन्न करता है। शोषण, गुंडागर्दी, अनीति और अत्याचारों के पीछे अहंकार ही अट्टहास कर रहा होता है।

अहंकार की असुरता

ढोंग, बनावट, शेखीखोरी, फैशन, फिजूलखरची, अपव्यय, नशा, व्यसन आदि अनेकों बुराइयाँ अहंकार से ही पैदा होती हैं। उच्छृंखलता, उद्दंडता, अशिष्टता, कटु भाषण, दुर्व्यवहार आदि दुर्गुण का मूल कारण अभिमान ही है। लड़ाई-झगड़ों में द्वेष और मनोमालिन्य में वास्तविक कारण तो बहुत थोड़े और छोटे होते हैं, पर प्रधानतया अहंकार की ही समस्या नग्न−नृत्य कर रही होती है। नर को नारी से, सवर्णों को अछूतों से, धनी को निर्धन से श्रेष्ठ माने जाने की मान्यता के पीछे अहंकार व अति के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं है। जिस प्रकार जान या अनजान में जरा-सा आघात लगने पर सर्प दूसरों की जान का ग्राहक बन जाता है, उसी प्रकार अहंकारी व्यक्ति भी दूसरों के राई जैसे भी दोष के परिणामस्वरूप वज्र-प्रहार जैसा प्रतिशोध लेने पर उतारू हो जाता है। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए नीतिकारों ने— पापमूल अभिमान कहा है। क्रूरता, नृशंसता और पैशाचिकता से भरे भयंकर दुष्कर्मों में अन्य कारण उतने नहीं होते, जितना अहंकार प्रबल होता है।

द्वैत से अद्वैत की ओर

आत्मा को भव बंधनों में बाँधने वाला अहंकार ही है। जिसका ‘अहम्’ जितना प्रबल है, वह उससे उतना ही दूर रहेगा। 'अपनी खुदी मिटा दे, तेरा खुदा मिलेगा' की उक्ति में यही कहा गया है कि अपनापन समाप्त कर देने से ही आत्मा को परमात्मा की प्राप्ति होती है। पति-पत्नी जब अपने स्वतंत्र अस्तित्त्व को एक साथ घुलाकर सम्मिलित स्वार्थ और सम्मिलित अहम् का निर्माण करते हैं, तभी उन्हें दांपत्ति जीवन का सच्चा आनंद उपलब्ध होता है। लहर जब तक अपनी अलग सत्ता बनाए रहेगी, वह समुद्र का अंग न बन सकेगी। आत्मसमर्पण में अहंकार को ही समर्पित किया जाता है। भक्त जब भगवान को आत्मसमर्पण करता है तो और कुछ नहीं केवल अहंकार प्रभु के चरणों पर समर्पित करके उनकी इच्छा में अपनी इच्छा मिला देता है। अद्वैत की—वेदांत की— शिक्षा द्वैतभाव को मिटाकर आत्मा और परमात्मा की एकता अनुभव करने की है। इसमें एकमात्र साधन अहंकार को मिटाने का ही करना पड़ता है। भवबंधनों को काटकर जीवनमुक्त होने की प्रक्रिया में भी अहम् की समाप्ति का ही साधन प्रमुख है।

आध्यात्मिक सद्गुणों में नम्रता, मधुरता, सज्जनता, शिष्टाचार, सेवा, सहानुभूति, उदारता, क्षमा, दया आदि को प्रमुख माना गया है। उनका उदय केवल उसी मनोभूमि में संभव होगा, जहाँ निरहंकारिता होगी। स्वार्थपरता अहंकार की पूर्ति के लिए ही तो होती है। इसके मिटने पर मनुष्य का दृष्टिकोण अत्यंत उदार, विशाल और परमार्थपूर्ण बन जाता है। सादगी और सज्जनता उसकी प्रत्येक क्रिया में से टपकती है। सामाजिक जीवन में शांति और सद्भावनाएँ इसी सद्गुण के आधार पर बढ़ती हैं। संतोष और सौम्यता की प्रकृति भी निरहंकारिता के वातावरण में ही बढ़ती हैं। अहंकारी तो दिन−दिन अधिकाधिक स्वार्थी बनता जाता है। उसे अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए दूसरों को कुचल−मसलकर रख देने में जरा भी संकोच नहीं होता। इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए शास्त्रकारों ने अहंकार को असुरता बताया है और कहा है कि जहाँ यह दुर्गुण होगा, वहाँ धीरे−धीरे अन्य छोटे−मोटे, पाप-दोष स्वयं ही एकत्रित होने लगेंगे।

सस्ती वाहवाही—एक प्रवंचना

वाहवाही लूटने के लिए किए गए कार्य, धर्म-श्रेणी में नहीं गिने जाते। फोटो और नाम छपाने के लिए जो लोग दान देते हैं, अपने नाम के पत्थर और शिलालेख लगवाते फिरते है, उन्हें पुण्य कुछ नहीं मिलता। जो कुछ किया था, वह वाहवाही मिलने पर बराबर हो जाता है। इसलिए विचारशील लोग सदा गुप्तदान करते हैं। किसी के ऊपर उपकार किया हो तो प्रकट नहीं होने देते। प्रशंसा करा लेने से अहंकार बढ़ता है। संस्थाओं में पदलोलुपता के कारण संघर्ष इसीलिए रहता है जिससे कि पदाधिकारी को दूसरों की अपेक्षा कुछ अधिक नामवरी कमाने का लोभ रहता है। इस छोटे से कारण को लेकर लोग बुरी तरह लड़ते हैं और इसके संघर्ष में संगठन एवं लक्ष्य का ही सत्यानाश हो जाता है। सज्जन सेवा तो खूब करते है, पर पदलोलुपता से सदा ही बचते रहते हैं। जो अहंकार में डूबा हुआ है, प्रशंसा और प्रतिष्ठा का भूखा है, वह व्यक्ति सच्ची सेवा कर नहीं सकेगा और उसका कोई पुण्य उच्च श्रेणी का नहीं गिना जा सकेगा।

दूसरों का सम्मान-अभिवादन

विज्ञानमयकोश का अनावरण करने के लिए हमें इस वर्ष निरहंकारिता का अभ्यास करना चाहिए। भगवान ने हर किसी में कोई-न-कोई विशेषता दी है, उसकी उस महत्ता को देखते हुए। सम्मान की दृष्टि से देखना चाहिए। सबमें परमात्मा का अंश मौजूद है, इसलिए जिस प्रकार हर देवमंदिर को हम श्रद्धापूर्वक नमन करते हैं, उसी प्रकार—‟सिया राममय सब जग जानी। करो प्रणाम जोरि युग पानी॥” की भावना प्रत्येक व्यक्ति के प्रति रखनी चाहिए। अपनी प्रशंसा सुनने में बहुत रस नहीं लेना चाहिए। अन्यथा इस कमजोरी से लाभ उठाकर चापलूस और ठग हमें बुरी तरह उल्लू बनावेंगे और ठगेंगे। चापलूसी और खुशामद का धंधा आजकल बहुत जोरों पर है। धंधेखोर लोग झूठी प्रशंसा करके अपने को परम हितैषी सिद्ध करते हैं और जब भोला शिकार फँस जाता है, तब उसे हलाल कर देते हैं। जब कोई आदमी अपनी बढ़−चढ़कर प्रशंसा कर रहा हो तो तुरंत ही सावधान होना चाहिए और देखना चाहिए कि कहीं कुछ दाल में काला तो नहीं है। लोग सस्ती वाहवाही लूटने के लोभ को यदि त्याग सकें तो दुनिया में से आधी ठगबाजी का अंत हो सकता हैं।

हमें सत्कर्म करके आत्मसंतोष की आकांक्षा रखनी चाहिए और लोक-दिखावे की—वाहवाही की—बालबुद्धि को घटिया लोगों की ललक समझकर अपने को  उससे ऊँचा उठाना चाहिए। प्रयत्न यह करना चाहिए कि अपना कोई कार्य ऐसा न हो, जिससे अहंकार की, बनावट की, शेखीखोरी की, प्रसिद्धि की गंध आवे। प्रतिष्ठा चाहने से नहीं मिलती, वह तो छाया के समान है, जो पीछे भागने से और दूर हटती जाती है। निरहंकारी व्यक्तियों के प्रति दूसरों के मन में जो गहरी श्रद्धा उत्पन्न होती है, वस्तुतः वही चिरस्थायी और सच्ची प्रतिष्ठा कही जा सकती है। सत्कर्म करने वालों को वह अनायास ही मिलती है, उसके लिए उसके पीछे भागने की जरूरत नहीं पड़ती।

चापलूसी और ठगबाजी

किसी की झूठी प्रशंसा करके उसका अहंकार बढ़ा देने की गलती हमें नहीं करनी चाहिए। इससे उस बेचारे को व्यर्थ ही अपने संबंध में बड़प्पन का भ्रम होता है और अहंकार बढ़ने से नाश का द्वार खुलता है। राजा-रईसों का नाश उनके चापलूस मुसाहिब ही करते रहे हैं। हाँ-में-हाँ मिलाकर गलती को और अधिक बढ़ने देना शुभचिंतकों का काम नहीं है। सच्ची सलाह— नम्रता, सज्जनता, मधुरता और आत्मीयता की भावना से ओत-प्रोत होकर— एकांत में ठीक प्रकार समझाते हुए दी जाए तो वज्रमूर्खों को छोड़कर समझदार लोग उस पर ध्यान देते भी हैं और सुधरने का प्रयत्न भी करते हैं। ऐसे प्रसंगों में बहुत सावधानी बरतनी पड़ती है, क्योंकि अपने अहंकार को जरा भी ठेस लगने से लोग आगबबूला होने लगते हैं और अपमान की गंध सूँघने लगते हैं, सो ऐसी सलाह देते समय भीगते बंदर द्वारा सीख देने वाली, बया पक्षी का घोंसला नोंच डालने वाली कथा का भी स्मरण रखना चाहिए। पर अपने हितैषी के लिए तो यह जोखिम भी उठाना चाहिए और अवसर देखकर उचित सलाह देनी चाहिए। चुप बैठे रहने से बुराई घटती नहीं बढ़ती ही रहती है। अपने को ही नहीं, अपने स्वजन-संबंधियों को भी निरहंकारी बनने की सलाह देते रहना चाहिए।

दूसरों को उचित मान देने में भी कंजूसी नहीं करनी चाहिए। इससे अपनी निरहंकारिता बढ़ती है। गुरुजनों का चरणस्पर्श करने की प्रक्रिया गत वर्ष कृतज्ञता का सद्गुण बढ़ाने के संदर्भ में दी गई थी। इस वर्ष हमें दूसरे लोगों को हाथ जोड़कर अपनी नम्रता दर्शाते हुए अभिवादन करने की आदत बढ़ानी चाहिए। आमतौर से लोग मिलने−जुलने का अवसर आने पर भी प्रायः बहुत कम ही एकदूसरे का अभिवादन करते हैं। कई तो ऐसा सोचते हैं कि इस संबंध में पहल करने वाला छोटा हो जाता है, सो हम क्यों छोटे बनें। कई बार प्रेम का अभाव, रूखापन और उदासी, उपेक्षा आदि कारण भी इसके होते हैं। यह सभी बातें बुरी हैं। हमें अपने सभी प्रेमी परिचितों का सम्मान करना चाहिए और यदि छोटे लोग अपना कर्त्तव्य भूल रहे हैं, वे पहले से हमें अभिवादन नहीं करते तो इसकी जरा भी परवाह न करके हमें अपनी सज्जनता का परिचय देते हुए पहले से ही अभिवादन करना चाहिए। सबमें ईश्वर है, सबमें कोई विशेषता है। किसी-न-किसी बात में हर कोई हमसे बड़ा है, फिर हमें उसके बड़प्पन का ध्यान, रखते हुए पहले से अभिवादन करने में संकोच क्यों होना चाहिए।

‘तू’ नहीं, ‘आप’

दूसरों को— छोटों को भी ‘तू’ संबोधन नहीं करना चाहिए। इसमें अपने अहंकार की गंध रहती है। पत्नी को, बच्चों को, अपने से छोटों को भी तुम या आप ही कहना चाहिए और आदेश के साथ सम्मान सूचक शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। 'तू वहाँ चला जा' कहने की अपेक्षा ‘तुम वहाँ चले जाओ’ या 'आप वहाँ चले जाइए।' कहने में जीभ न तो घिस जाती है और न घटती है, बोलने में कुछ भार भी नहीं पड़ता और देर भी नहीं लगती। केवल पुरानी आदत को सुधारना पड़ता है, सो प्रयत्न करने से थोड़ी भूल−चूक के बाद कुछ ही दिन में आसानी से सुधर भी जाता है। हमारे इस आत्मसुधार से दूसरों को उचित सम्मान मिलता हैं। उन्हें प्रसन्नता भी होती है। अपना कर्त्तव्य निभता है। अहंकार घटता है और एक उचित परंपरा का प्रसार होता है। गाली-गलौज और फूहड़-कटु शब्दों की गुंजाइश तो इन सभ्य संबोधनों का अभ्यास होने पर बहुत ही कम रह जाती है।

कहते हैं कि प्यार में ईश्वर को भी ‘तू’ कहते हैं तो अपने प्रियजनों को तू क्यों न कहें? यह प्रश्न निरर्थक है। ईश्वर महान है, उसे शब्दों की नहीं, भावना की परख होती है। पर हम मनुष्य तुच्छ होने के कारण शब्दों द्वारा भावना को परखते हैं, माना कि स्त्री या बच्चों को कोई ईश्वर जितना प्रिय या महान मान ले तो भी इसमें क्या हर्ज है कि उन्हें तू की अपेक्षा ‘तुम’ या ‘आप’ का संबोधन करें। इससे एक स्वस्थ परंपरा का जन्म होता है। हमें देखकर घर के दूसरे लोग भी एक सद्गुण सीखते हैं तो बुरी बात को हटा क्यों न दिया जाए। प्रियजनों से प्यार करने का ‘तू’ कहना ही एकमात्र आधार नहीं है। इस एक को छोड़कर और भी ऐसी अनेकों बातें, सेवाएँ ऐसी हो सकती हैं, जिनसे प्रगाढ़ प्रेम प्रकट किया जा सके। अपनी निरहंकारिता घटती हो, दूसरों को उचित मान मिलता हो और एक सभ्य परंपरा का जन्म होता हो तो हमें इसके लिए अपनी अब तक की ‘तू’ बोलने की आदत को सुधार ही लेना चाहिए। यदि इतने छोटे सुधार करने में भी हम संकोच करेंगे, झिझकेंगे तो आत्मनिर्माण, परिवार निर्माण, युग−निर्माण जैसे महान निर्माण कार्यों का उत्तरदायित्व किस प्रकार उठाया जा सकेगा?

एक सभ्य परंपरा का पुण्य-प्रसार

विज्ञानमयकोश की साधना के लिए इस वर्ष हम सब निरहंकारिता का अभ्यास करेंगे। अपने कार्यों में जहाँ−जहाँ अहंकार की गंध आती हो ,वहाँ से उसकी सफाई करेंगे। नम्रता, सज्जनता और सादगी अपने हर काम में बढ़नी चाहिए। दूसरों को—छोटों को भी—हाथ जोड़कर अभिवादन करने की आदत डालनी चाहिए और ‘तू’ का बहिष्कार करके ‘तुम’ या ‘आप’ का प्रयोग करने का प्रयत्न करते हुए, इसे धीरे−धीरे अपने स्वभाव में सम्मिलित कर लेना चाहिए। यह सुधार आध्यात्मिक दृष्टि से जितना श्रेष्ठ है, उतना ही सामाजिक दृष्टि से भी उपयोगी सिद्ध होगा। इसका प्रयोग अपने घर की प्रयोगशाला में आज से ही आरंभ कर देना चाहिए।


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