गायत्री उपासना— एक आवश्यक धर्मकर्त्तव्य

October 1962

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सद्बुद्धिदायिनी, एकमुखी, प्रथम स्तरीय गायत्री उपासना को भारतीय धर्म में प्रत्येक मनुष्य का एक अत्यंत आवश्यक अनिवार्य नित्यकर्म माना गया है। जिस प्रकार शौच, स्नान, भोजन, शयन आदि नित्यकर्म न करने से शारीरिक स्वास्थ्य संतुलन नष्ट होता है, उसी प्रकार गायत्री उपासना के अभाव में उस सद्बुद्धि से भी वंचित रहना पड़ता है, जो हमारे गुण, कर्म और स्वभाव को उच्चस्तरीय बनाने के लिए आवश्यक है। भौतिक समृद्धि और आत्मिक प्रगति के दो पहियों की गाड़ी पर ही हमारा सर्वांगपूर्ण जीवन विकास निर्भर रहता है। इसमें से एक अंग की उपेक्षा करने पर हमारी वही स्थिति हो जाती है, जो लंगड़े, काने एवं आधे शरीर में लकवा मारे हुए रोगी की होती है। मोटर का एक पहिया यदि चलते−चलते निकल पड़े तो उसके उलट जाने की दुर्घटना हो जाएगी। हमारी भौतिक समृद्धि तो बढ़ती जा रही है, पर आध्यात्मिक स्तर गिरी पड़ी स्थिति में ही बना हुआ है, ऐसी दशा में मोटर उलटने जैसी दुर्घटनाओं का दुःखद दृश्य हमें अपने जीवन में प्रत्यक्ष परिलक्षित होता है तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। किंतु जब यह गलती सुधार ली जाती है तो बिगड़े काम को बना लेने वाले बुद्धिमानों की तरह हम पुनः एक सुव्यवस्थित जीवनक्रम को विकसित हुआ देखते हैं।

हमारा व्यक्तिगत अनुभव

हमें अपने व्यक्तिगत जीवन का प्रायः सारे का सारा ही समय गायत्री की शोध, अन्वेषण और साधन करने में लगा देने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। इस महाविद्या के संबंध में शास्त्रों में क्या लिखा है, यह जानने के लिए प्रायः दो हजार प्रमुख धर्मग्रंथों को पढ़ा है। पढ़कर उनका सारसंग्रह किया है। संपूर्ण भारत के कोने−कोने में इस विद्या के ज्ञाता मनीषियों और साधनासंलग्न तपस्वियों की खोज की है, उनके चरण धो−धोकर उनके अनुभव का सार एकत्रित किया है। स्वयं भी अपने जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण समय एकनिष्ठ भाव से उसी उपासना में लगाया है। इतने प्रयास का निचोड़ यह निकाला है कि गायत्री उपासना में लगाए हुए किसी भी व्यक्ति के, कोई क्षण निष्फल नहीं जा सकते। उसका कोई-न-कोई सत्परिणाम उसे मिलता ही है और वह निश्चित रूप से उससे कहीं अधिक होता है, जितना कि उपासना में लगे हुए समय का मूल्य हो सकता है। हमारे सानिध्य और सहचरत्व में जिन लोगों ने यह उपासना की है, उनका भी ऐसा ही अनुभव है। आध्यात्मिक प्रगति की ओर हर साधक के कदम बढ़े हैं, चाहे वह कितने ही मंद क्यों न रहे हों।

गायत्री उपासना का सीधा प्रभाव साधक की अंतरात्मा पर सात्त्विकता की अभिवृद्धि के रूप में पड़ता है। उसके मनःक्षेत्र में समाया हुआ तमोगुण, असुरत्व, तत्क्षण घटना आरंभ हो जाता है। अपने दोष-दुर्गुण देखने और समझने की क्षमता उसमें जागृत होती है, साथ ही कुकर्मों के प्रति घृणा करने और सत्कर्मों की ओर आकर्षित होने का स्वभाव भी अनायास ही बनने लगता है। बहुत पढ़ने और सुनने से भी जिन लोगों ने अपने ऊपर कोई प्रभाव ग्रहण नहीं किया था, उनका मन इस उपासना के द्वारा स्वयं ही द्रवित हुआ है और उस आंतरिक परिवर्तन के कारण बाहरी जीवन में आश्चर्यजनक हेर−फेर दिखाई देने लगा है। आत्मसुधार की प्रक्रिया में गायत्री उपासना का इतना अधिक महत्त्व देखकर ही प्राचीनकाल में ऋषियों ने संभवतः इसे सर्वसाधारण के लिए एक अनिवार्य धर्मकर्त्तव्य घोषित किया था।

अन्तःप्रेरणा का विकास और प्रकाश

हमें अपने व्यक्तिगत संपर्क में आए हुए ऐसे हजारों व्यक्तियों का पता है, जिन्होंने गायत्री उपासना आरंभ करने के बाद अपने विचार और कार्यों में कायाकल्प जैसा परिवर्तन किया। जो लोग माँस खाते थे, नशेबाजी की लत जिन्हें बुरी तरह घेरे हुए थी, शराब, गाँजा, भाँग, अफीम, चरस, तमाकू के जो गुलाम बने हुए थे, उनमें से किसी ने एकबारगी, किसी ने धीरे−धीरे इन्हें बिना किसी बाहरी दबाव या उपदेश के अपने आप ही छोड़ दिया। उनके भीतर से ही कुछ ऐसी प्रेरणा और घृणा उत्पन्न हुई, जिसके कारण उन्हें इन सत्यानाशी दुर्व्यसनों को अनायास ही छोड़ देने का सुअवसर मिल गया। जुआ, सट्टा, चोरी, बेईमानी, रिश्वत, मिलावट आदि के द्वारा भारी कमाई करने वाले लोगों में से कितनों ने ही बुराइयों को सर्वांश में अथवा बहुत अंश में परित्याग कर दिया और गरीबी एवं सादगी का जीवन बिताते हुए कम खरच में मितव्ययितापूर्वक हँसी-खुशी एवं संतोष का जीवन बिताने लगे। गायत्री को माता−माता पुकारते रहने पर कितने ही व्यक्तियों की भावनाओं का ऐसा विकास हुआ कि उन्हें नारीमात्र में माता की प्रतिमा घूमती हुई दिखाई देने लगी और पहले जो व्यभिचार और दुराचार की दिशा में मन दौड़ा करता था, वह मार्ग बिलकुल ही अवरुद्ध हो गया। अश्लील साहित्य पढ़ने, गंदे चित्र देखने, गंदी आदतों में अपना शरीर निचोड़ने की जिन्हें बुरी लतें लगी हुई थीं, उनकी यह बुराइयाँ गायत्री उपासना के प्रभाव से बड़ी सरलतापूर्वक छूटती देखी गई हैं। चढ़ते खून के किशोर और नवयुवकों में ऐसे विचार बहुत करके देखे जाते हैं। हमारा सुनिश्चित मत है कि उसकी मानसिक स्थिति स्वच्छ करने में गायत्री उपासना जादू जैसा काम करती है।

स्नेह सौजन्य की अभिवृद्धि

जिन घरों में द्वेष, क्लेश, कलह और संघर्ष का वातावरण बना रहता था, परिवार के हर सदस्य को मनमुटाव की स्थिति में देखा जाता था, उन घरों में गायत्री का प्रवेश हुआ, सब लोग थोड़ी−थोड़ी उपासना करने लगे, तो कुछ ही दिनों में परिस्थितियाँ ही बदल गईं। द्वेष का स्थान प्रेम ने ले लिया और सब लोग स्नेह सहयोगपूर्वक मिल−जुलकर रहने लगे। कितने ही ऐसे लोगों को हम जानते हैं जो आए दिन बीमार रहते थे, कोई-न-कोई रोग उन्हें घेरे ही रहता था। शारीरिक कष्ट, अशक्तता, उपार्जन में असमर्थता और दवादारू में बढ़ते हुए खरच के कारण उन्हें निरंतर चिंता घेरे रहती थी, पर जब उन्होंने गायत्री उपासना आरंभ की तो यह दवा उन सबसे अधिक अचूक सिद्ध हुई, जो उनने बहुत पैसा खरच करके खरीदी थीं। किसी भी अनुभवी डाॅक्टर की अपेक्षा यह उपासनाक्रम उनके लिए अधिक लाभदायक सिद्ध हुआ। कारण स्पष्ट है, गायत्री की उपासना से व्यक्ति के अंतःकरण में सात्त्विकता और सद्बुद्धि का जो विकास होता है, उससे आहार-विहार, आचार-विचार, रहन-सहन, खान-पान सभी कुछ बदलता है और उस परिवर्तन का प्रभाव शरीर, मन, धन, व्यवसाय, परिवार, समाज सभी पर पड़ता है। अपना व्यवहार नम्र मधुर और सज्जनतापूर्ण हो जाने से लोगों के साथ बिगड़े हुए संबंध सुधरते हैं और शत्रुओं को मित्रों एवं सहायक के रूप में बदला हुआ पाया जाता है। अपना सुधार होने पर दूसरों का सुधरा हुआ व्यवहार उपलब्ध होना निश्चित ही रहता है।

अभाव एवं आपदाओं का समाधान

आर्थिक कठिनाई, संतान का अभाव, बीमारी, मुकदमा, शत्रुओं का प्रकोप, कुसमय, स्वजनों से मनोमालिन्य, प्रयत्नों में असफलता, आकस्मिक दुर्दैव, द्वेष, दुर्भाव, चिंता, निराशा, शोक-संतापों में ग्रसित व्यक्तियों को गायत्री उपासना की सलाह मान लेने के लिए यदि कभी तैयार कर लिया गया है, तो उसका परिणाम आशाजनक ही निकला है। प्रस्तुत कठिनाइयों का किसी-न-किसी मार्ग से आशाजनक समाधान हुआ है। श्रद्धा, भावना की दृष्टि से विचार करने वाले इसे मंत्र शक्तियाँ, माता की कृपा मानते हैं, पर वास्तविकता यह है कि उनके अपने विचार व्यवहार में ऐसा हेर-फेर हो गया होता है, जिसके कारण गुत्थियों के सुलझने और कठिनाइयों के हल होने का उपाय सहज ही बन पड़ता है। अशांत और उद्विग्न मन रहने पर अपने विचार और कार्य अस्त-व्यस्त रहते हैं, उत्तेजित और असंतुलित मन यह सोच नहीं पाता कि प्रस्तुत कठिनाइयों का सही हल क्या हो सकता है। गायत्री उपासना के प्रभाव से जब आत्मबल बढ़ता है, सद्बुद्धि का प्रकाश अंतःकरण में उत्पन्न होता है तो कठिनाई को पार करने का उचित मार्ग सूझ पड़ता है, इतना ही नहीं, उस पर चलने का साहस भी उत्पन्न होता है। उचित मार्ग अपनाकर मनुष्य संसार की बड़ी से बड़ी कठिनाइयों को पार कर सकता है, बड़ी-से-बड़ी उलझनें सुलझा सकता है, फिर छोटी-मोटी समस्याओं का हल होना तो कठिन ही क्या है ।

दिव्य विभूति की दिव्य अनुभूति

सद्बुद्धि को कल्पलता कहा गया है। जिस मस्तिष्क में उसे स्थान मिल जाएगा, वहाँ पुष्पवाटिका जैसी महक उठती रहेगी और चित्त को आह्लादित करने वाली धारा प्रवाहित होती रहेगी। चंदन का वृक्ष अपने आस-पास के पौधों को सुगंधित बना लेता है। संतुलित मस्तिष्क चंदन वृक्ष से बढ़कर है, वह स्वयं तो शांति की सुगंध प्राप्त करता ही है, अपने संपर्क में आने वाले अन्य अगणित मस्तिष्कों को भी सन्मार्गगामी बना देता है। गायत्री उपासना का प्रभाव मनःक्षेत्र के शांत, स्वस्थ और प्रगतिशील बनाने में वही काम करता है, जो वनस्पतियों के लिए वर्षा का जल किया करता है। कहते हैं कि ‘नागदमन’ बूटी की गंध पाकर वहाँ से साँप बहुत दूर भाग जाते हैं। कुविचारों और दुर्भावनाओं के साँपों को दूर भगाने के लिए गायत्री उपासना को एक उच्चकोटि की ‘नागदमन’ बूटी कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी। अनुपयुक्त कामनाओं को हटाकर चित्त को तृष्णा और वासना से रहित बना देना या संतोष उत्पन्न करने वाला वातावरण, जहाँ गायत्री उपासना उत्पन्न करती है, वहाँ उचित आवश्यकताओं को पूर्ण करने के योग्य आवश्यक साहस, प्रतिभा एवं सूझ-बूझ भी उसके द्वारा उत्पन्न होती है। इस प्रकार अभीष्ट कामनाओं की पूर्ति कुछ कठिन नहीं रह जाती। गायत्री को कामधेनु इसीलिए कहा गया है। इसका श्रद्धापूर्वक पयपान करने के उपरांत कोई अतृप्ति शेष नहीं रह जाती।

आंतरिक दुर्बलताओं और त्रुटियों के कारण ही मनुष्य का सांसारिक जीवन अभावग्रस्त, अविकसित एवं अशांत रहता है। भीतर की कमजोरी ही बाहर दीनता और हीनता के रूप से दृष्टिगोचर होती है। आत्मघाती लोग ही इस संसार में तिरस्कृत अवांछित घृणित उपेक्षित और असफल रहते हैं। जिसके भीतर आत्मबल भरा होगा, जिसके अंतर में प्रकाश उठ रहा होगा, उसके बाह्य जीवन का प्रत्येक क्षेत्र, आशा उत्साह, स्फूर्ति, तेजस्विता और पुरुषार्थ से परिपूर्ण दिखाई देगा। भीतरी बल की आभा को बाहर प्रकट होने से कोई आवरण रोक नहीं सकता। गरीबी, अस्वस्थता एवं विपन्न परिस्थितियों में पड़े हुए होने पर भी मनस्वी व्यक्ति अपनी महानता की प्रभा फैलाते रहते हैं। ऐसे लोगों की दुर्दशा क्षणिक ही हो सकती है, चिरस्थायी नहीं। व्यक्ति का विकसित व्यक्तित्व ही वस्तुतः उसकी सच्ची संपत्ति सिद्ध होती है। यह संपत्ति जिसके पास मौजूद है, उसे न तो दरिद्र कहा जा सकता है और न असफल। बादलों के टुकड़े चंद्रमा को देर तक कहाँ छिपाए रहते हैं? विपन्नता किसी मनस्वी व्यक्ति को दुर्दशाग्रस्त स्थिति में देर तक कहाँ पड़ा रख सकती है? जहाँ आत्मबल होगा, वहाँ कोई भी अभाव, चाहे वह व्यक्तिगत हो अथवा सांसारिक अधिक समय तक टिक नहीं सकेगा। गायत्री उपासना मनुष्य के व्यक्तित्व, आंतरिक स्तर और आत्मबल को बढ़ाती है, जिससे उसकी सुख−शांति और समृद्धि का मार्ग हर दिशा में प्रशस्त होता है।

उपासना— एक आवश्यक धर्मकर्त्तव्य

हमारे नित्यकर्म में जिस प्रकार स्नान, भोजन, श्रम, विश्राम आवश्यक हैं, उसी प्रकार गायत्री उपासना के लिए एक छोटा समय भाग नियत रहना चाहिए। सद्बुद्धि से बढ़कर और कोई संपत्ति इस संसार में नहीं। जब कि साधारण मूल्य वाली वस्तुओं के उपार्जन के लिए हम इतना श्रम करते हैं तो क्या हमें इस धरती की सबसे श्रेष्ठ संपदा का उपार्जन करने के लिए कुछ भी समय न लगाने की हठ पर ही अड़ा रहना उचित है? गायत्री के प्रथम स्तर जिसमें जप, अनुष्ठानों, बीजमंत्रों और अमुक विधि−विधानों की आवश्यकता होती है, सर्वसाधारण के लिए सरल है। इसमें कोई भूल रहने पर भी हानि की संभावना नहीं रहती। थोड़ा करने या विधि−विधान की पूरी जानकारी न होने पर लाभ भले ही थोड़ा मिले, पर हानि या प्रतिकूल फल की तो किसी भी दशा में कोई आशंका नहीं रहती। मानव प्राणी में मानवता की विशेषता को बढ़ाने वाली इस आध्यात्म विज्ञानसम्मत, परम श्रेयस्कर प्रक्रिया को, हममें से प्रत्येक को किसी-न-किसी रूप में अपनाना ही चाहिए। दैनिक जीवन का एक आवश्यक धर्मकर्त्तव्य समझकर उसे अपने नित्यकर्म में उचित स्थान देना ही चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118