चिकित्सा-शिक्षा, साधना और सत्संग

October 1962

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

गत आठ महीनों से गायत्री तपोभूमि में प्राकृतिक चिकित्सा एवं कल्प-विधान का जो कार्यक्रम चल रहा था, उससे करीब 200 व्यक्ति लाभ उठा चुके हैं। इस बीच में जो अनुभव हुए हैं, उनसे कल्प-चिकित्सा की एक अधिक प्रभावशाली और सफल प्रणाली 'चांद्रायण व्रत' की सिद्ध हुई है। दूधकल्प, छाछकल्प आदि के द्वारा रोगियों को जितना समय और पैसा खरच करना पड़ता है, उसकी तुलना में ‛चांद्रायण व्रत’ में समय भी कम लगता है, खरच भी कम पड़ता है और लाभ भी अधिक होता है। इस अनुभव के आधार पर अब यहाँ चिकित्सा-प्रक्रिया में कुछ विशेष हेर-फेर किया जा रहा है। उसे शारीरिक लाभ वाली ही न रहने देकर आध्यात्मिक लाभों से संयुक्त भी बना दिया गया है।

चांद्रायण व्रत

धर्मग्रंथों में पापों का प्रायश्चित्त करने के लिए 'चांद्रायण व्रत' का भारी महात्म्य वर्णन किया गया है और लिखा है कि, "इससे आत्मा पर चढ़े हुए मल धुलते हैं एवं अन्तःकरण निर्मल होता है"  इस व्रत का विधान यह है कि पूर्णमासी के दिन मनुष्य अपना पूर्ण आहार करता है और जितना आहार होता है, उसका पंद्रहवाँ भाग प्रतिदिन कम करता जाता है। यह कमी करते−करते अंत में अमावस्या के दिन पूर्ण निराहार रहना होता है। प्रतिपदा को भी निराहार ही रहते हैं और दौज को पूर्णाहार का पंद्रहवाँ भाग लेकर फिर उतना−उतना ही रोज बढ़ाते हैं। जैसे पहले कृष्णपक्ष में प्रतिदिन क्रमशः आहार घटाया गया था, उसी प्रकार अगले शुल्कपक्ष में क्रमशः आहार बढ़ाते हुए पूर्णिमा को पूरा भोजन ले लेते हैं। आहार में क्या वस्तु रहें, यह व्रत करने वाले की स्थिति देखकर निर्णय किया जाता है।

चंद्रमा जिस प्रकार पूर्णमासी को पूरा निकलता है, फिर कृष्णपक्ष में एक−एक कला घटता हुआ अमावस्या को पूर्ण अदृश्य हो जाता है। उसी क्रम से व्रत करने वाले का भोजन भी घटता है। शुक्लपक्ष में चंद्रमा जिस प्रकार एक−एक कला बढ़ता है, उसी प्रकार आहार का क्रम भी बढ़ाया जाता है। चंद्रमा पर उस व्रत का आधार रहने से इसे ‘चांद्रायण व्रत’ कहा जाता है और ठंडी किरणों की भाँति ही उसे शांतिदायक माना जाता है। व्रत के शास्त्रीय-विधान में गोबर और गोमूत्र को शरीर पर लेपकर स्नान करना, पंचगव्य, गोदुग्ध, गोदधि, गोघृत आदि पाँच पदार्थों का सेवन तथा ब्रह्मचर्य, मौन,आदि कितनी ही तपश्चर्याओं का सम्मिश्रण है। साथ ही जप, अनुष्ठान का विधान भी है।

चिकित्सा और प्रायश्चित्त

अपनी चिकित्सा-प्रणाली में अब चांद्रायण व्रत को प्रमुख आधार मान लिया गया है। अभी आमतौर से उदर रोगी ही यहाँ आते हैं, उनकी चिकित्सा इसी विधि से की जाएगी। पंचतत्त्वों के विधान में एनीमा द्वारा पुराने संग्रहित मल की सफाई, मिट्टी की पट्टी द्वारा संचित विषों का निष्कासन, कटिस्नान (टब बाथ) द्वारा रक्ताभिसरण, सूर्यस्नान द्वारा सूक्ष्म विद्युत-प्रवाह का स्नायु तंतुओं में संचार, वाष्पस्नान द्वारा दूषित तत्त्वों का स्वेद द्वारा निष्कासन, आदि का जो विधान है, उसका तो चिकित्सार्थी को समुचित प्रयोग कराया ही जाता रहेगा। साथ ही पापों के प्रायश्चित्त वाला विधान भी रहेगा। इससे शरीर और अंतःकरण दोनों को ही शुद्ध करने का प्रयत्न किया जाता रहेगा। अन्य अनेक दुःखों की भाँति रोग भी हमारे किन्हीं पापों के ही फल होते हैं। आत्मा की शुद्धि और पापों का प्रायश्चित्त करते हुए जो शारीरिक चिकित्सा का क्रम चलेगा, वह अवश्य ही दुहरा लाभ पहुँचावेगा।

एक मास की तपश्चर्या

इस एक मास में सवालक्ष गायत्री अनुष्ठान बड़े आनंदपूर्वक पूर्ण हो जाता है। मौन, ब्रह्मचर्य, भूमिशयन, चमड़े का त्याग, अपनी सेवा आप करना आदि तपश्चर्याएँ भी जो घर में चलनी कठिन पड़ती हैं, यहाँ आसानी से निभ जाती हैं। नित्यप्रति हवन में सम्मिलित होने का लाभ तो यहाँ सहज ही उपलब्ध है, तपोभूमि के निकट की जो जमीन अब उपलब्ध हो गई है, उसमें सुगंधित पुष्पों, लता, गुल्मों, तुलसी पल्लवों और जड़ी−बूटियों के पौधों से आच्छादित एक सुरम्य तपोवन बनाया जा रहा है, उसमें दिन भर रहने से वन-काननों जैसा मन को शान्ति देने वाला वातावरण भी उपलब्ध होगा। ऐसे वातावरण में एक मास की तपश्चर्यायुक्त साधना वस्तुतः आध्यात्मिक चिकित्सा है, उसका प्रधान लाभ तो आत्मा को ही मिलने वाला है। शारीरिक चिकित्सा का लाभ तो एक गौण लाभ रह जाता है।

शरीर के लिए जिस प्रकार चिकित्साक्रम बनाया जाता है, उसी प्रकार इस जन्म में बन पड़े पापों का स्वरूप जानकर इसी प्रकार आधार पर उनका विशेष प्रायश्चित्त भी यदि आवश्यक होता है तो इस चांद्रायण व्रत के साथ जोड़ दिया जाता है। पूर्वजन्मों के पाप, जो प्रारब्ध बन चुके हैं और जिनका इस जन्म में भोगना अनिवार्य हो गया है, उसके बारे में कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, पर इस जन्म के पाप, जो अभी प्रारब्ध संस्कारों के रूप में परिपक्व नहीं हुए हैं, वे प्रायश्चितों के द्वारा समाप्त हो जाते हैं। मुकदमा चलने पर जेल की सजा हो जाए, तब तो माफी माँगने पर भी छूटना मुश्किल है, पर फैसला होने से पहले यदि अपने प्रतिपक्षी को संतोष देने वाला कोई समझौता हो जाए तो जेल जाने की नौबत नहीं आती। इस जन्म के अशुभ कर्मों में से बहुत थोड़ों का फल इसी जन्म में हो पाता है। उनमें से अधिकांश का दंड आमतौर से अगले जन्म में मिलता है। उन्हें यदि अभी समाप्त कर लिया जाए और शेष जीवन में दुष्कर्म न किए जाएँ तो आगे का परलोक शांति और सद्गति से परिपूर्ण हो सकता है। अपना दूरवर्त्ती भविष्य उज्ज्वल बनाने की दृष्टि से भी यह व्रत-चिकित्सा एक दुहरा लाभ देने वाली पद्धति सिद्ध होगी।

संजीवन विद्या का शिक्षण

तीसरा एक लाभ यह भी है कि इस एक महीने में यहाँ विधिवत् शिक्षणक्रम का लाभ मिलेगा। युगनिर्माण योजना के अनुरूप स्वजनों का जीवन ढालने के लिए हमें उनसे बहुत कुछ कहना है। जीवन अनेक दिशाओं में फैला हुआ है, उसकी प्रत्येक दिशा में अगणित गुत्थियाँ और समस्याएँ सामने रहती हैं। यदि यह हल नहीं हो पातीं तो जीवन नरक बन जाता है। चिंता, भय, शोक, निराशा, खिन्नता और व्यथा को सहन करते हुए जिंदगी के दिन काटने पड़ते हैं। सुलझे हुए दृष्टिकोण को अपनाकर मनुष्य स्वल्प साधनों और विपन्न परिस्थितियों में भी हँसने, संतुष्ट रहने एवं प्रगति की ओर चलने का मार्ग प्राप्त कर सकता है। जिंदगी जीने की विद्या का नाम ही ‘संजीवन विद्या’ है। इसी की जानकारी न होने से अधिकांश लोग दुख-दारिद्रय में डूबे पड़े रहते हैं। इस एक मास के शिक्षणक्रम का मूल आधार ‘संजीवन विद्या’ (जिंदगी जीने की कला) ही होगा। इसे ही व्यवहारिक आध्यात्मवाद भी कह सकते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा, कल्प−चिकित्सा तो इस संजीवन विद्या का एक छोटा-सा अंग ही है, उसकी भी विधिवत् शिक्षा इस एक मास में मिलेगी, जिससे शिक्षार्थी अवसर आने पर अपने और अपने स्वजन-संबंधियों की प्राकृतिक चिकित्सा करके बिना किसी खरच के रोग−मुक्ति का लाभ दे सकें।

निरोगों के लिए अधिक उपयुक्त

इस चांद्रायण व्रत-साधन एवं संजीवन विद्या शिक्षण से लाभ उठाने के लिए यह जरूरी नहीं कि कोई रोगी हो, तभी आवे। सच तो यह है, जो जितना निरोग होगा, वही उतना अधिक लाभ उठा सकेगा। शरीर चिकित्सा के झंझटों में ही न लगे रहकर उसे इस जीवन-शोधन एवं आत्मनिर्माण के कार्यक्रम में अधिक समय लगाने का अवसर मिले तो उसी अनुपात से लाभ भी अधिक होगा। अब तक भी यहाँ असाध्य छूत रोगों से ग्रसित अशक्त, दुर्बल, कराहने, खाँसने और थूकने वाले गंभीर रोगी नहीं लिए गए हैं, क्योंकि उनके उपयुक्त स्थान तथा साधन यहाँ नहीं हैं। आमतौर से कब्ज सरीखे पेट के या अन्य साधारण रोगों के रोगियों को ही यहाँ आने की स्वीकृति दी गई है। आगे भी उतनी ही सीमा तक रहना संभव हो सकेगा; क्योंकि अपना जीवन लक्ष्य सदा से सत्प्रवृत्तियों की अभिवृद्धि रहा है। ईसाई मिशनरी जिस प्रकार चिकित्सा के माध्यम से अपनी विचारधारा का प्रसार करते हैं, वही मंतव्य हमारा भी है; इसीलिए जो सुनने और समझने की स्थिति में हैं, वे ही रोगी यहाँ आने दिए जाते हैं। आगे भी यही क्रम चलेगा। जो लोग रोगी नहीं हैं, वे आरोग्य-रक्षा तथा दूसरों की स्वास्थ-सेवा कर सकने की शिक्षा प्राप्त करने आ सकते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा का एक विधिवत् पाठ्यक्रम भी एक महीने में संपन्न होता है और उसमें उत्तीर्ण होने वालों को प्रमाणपत्र भी दिया जाता है।

हमारी इच्छा है कि अपने परिवार में सभी व्यक्ति एक−एक करके इस शिक्षाक्रम का लाभ प्राप्त करने के लिए मथुरा आते रहें। स्वजनों के साथ रहने और रखने में अन्य लोगों की तरह हमें भी सुख मिलता है। हमारा अनुमान है कि हमारी ही भाँति स्वजनों को भी यह सुख मिलता होगा। अपनी मन की व्यथा और भावनाओं को हम जल्दी−पल्दी के कार्यक्रमों में कुछ ठीक तरह व्यक्त भी नहीं कर पाते। एक महीने हमारे समीप रहने वालों से हमें बहुत कुछ अपनी कहने और उनकी सुनने का अवकाश मिलेगा।

परिजनों को हमारा निमंत्रण

पहले रोगी आवेदनपत्र भेजते थे कि, ‟हम रोगी हैं, चिकित्सा के लिए तपोभूमि में आने की हमें स्वीकृति दी जाए।” अब हम निमंत्रण भेजते हैं कि, ‟प्रत्येक परिजन हमारे पास एक महीने रहकर साधना, तपश्चर्या, चिकित्सा, शिक्षा एवं आत्मिक एकता का लाभ प्राप्त करने के लिए मथुरा आवें।”

अंग्रेजी तारीखों से नहीं, भारतीय महीनों की पूर्णिमा से अगली पूर्णिमा तक किसी भी महीने यहाँ रहने को आया जा सकता है। आने-जाने तथा तीर्थयात्रा एवं घूमने-फिरने में 10-5 दिन, और भी लग जाते हैं, इसलिए 40 दिन का अवकाश जब निकलता हो, तभी आना चाहिए। आने से पूर्व स्वीकृति लेना हर हालत में आवश्यक है, क्योंकि यहाँ स्थान कम और आगंतुकों की संख्या स्वभावतः अधिक रहेगी। एक साथ अधिक लोगों से विस्तारपूर्वक विचार-विनिमय नहीं हो सकता, इसलिए थोड़े−थोड़े लोगों को ही यहाँ आने देने की नीति अपनाई गई है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118