ब्रह्मचर्य और निरालस्य का व्रतधारण

October 1962

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नर को नारायण और पुरुष को पुरुषोत्तम बनाने का लक्ष्य लेकर युगनिर्माण योजना का आरंभ हुआ है। मानव तुच्छ नहीं महान है। वह महान तत्त्व से अवतरित होता है, महान लक्ष्य लेकर इस पृथ्वी पर आता है और महानता की शानदार जिंदगी जीते हुए, महान आदर्श उपस्थित करते हुए, महान तत्त्व को उपलब्ध करने के लिए ही उसकी जीवनयात्रा चलती है। इस राजमार्ग पर वह चलता रहे तो उसे पग-पग पर आनंद, संतोष और उल्लास की परिस्थिति अनुभव होगी। अपने आस-पास का सारा वातावरण उसे सज्जनता और सौम्यता से ओत-प्रोत दिखाई देगा। जहाँ बदमाशी और गंदगी है, वहाँ उसे हटाने और मिटाने को एक परीक्षा या कसौटी की तरह समझकर सुलझे हुए दृष्टिकोण का व्यक्ति खिन्न होने की अपेक्षा कठोर कर्तव्यपालन को एक चुनौती के रूप में स्वीकार करेगा।

छोटी बातों का बड़ा महत्त्व

महानता के इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमें छोटी बातों से अपना प्रयत्न आरंभ करना पड़ता है, उनके मिलने से ही सर्वांगपूर्ण महानता विकसित होती है। छोटे−छोटे पिंडों से मिलकर यह विशाल ब्रह्मांड बना है और हर पिंड सूक्ष्म अंडों का, अणुओं का समूहमात्र है। इसी प्रकार छोटी−छोटी अच्छी आदतें, अच्छी भावना, अच्छी मान्यता, अच्छी श्रद्धा, अच्छी प्रवृत्ति, अच्छी आकांक्षा मिलकर एक 'सर्वतोमुखी श्रेष्ठता' विकसित होती है। कोई महापुरुष, संत या ऋषि और कुछ नहीं, केवल छोटी−छोटी अच्छाइयों का एक समूह हैं। यह छोटी अच्छाइयाँ यदि समाप्त हो जाएँ तो उसका सारा वैभव, बुद्धिबल और पुरुषार्थ मिलकर भी महानता की रक्षा न कर सकेगा, वह फिर तुच्छ का तुच्छ बन जावेगा। छोटी अच्छाइयाँ देखने में सूक्ष्म लगती हैं, पर वस्तुतः इन्हीं ईंटों को चुनकर महानता का विशाल भवन खड़ा किया जाता है।

छोटी−छोटी, अच्छी-बुरी आदतें विकसित होने पर मनुष्य के जीवन को बनाने और बिगाड़ने में भारी योगदान करती हैं। चोरी, जुआ, नशा, व्यभिचार, आलस आदि की बुरी आदतें आरंभ में बहुत छोटे रूप में ही उत्पन्न होती हैं, पर जब मनुष्य के मस्तिष्क पर पूरी तरह छा जाती हैं और उसे अपना गुलाम बना लेती हैं तो फिर वह बेचारा ऐसा बेबस हो जाता है कि इन घृणित बातों से ऊपर उठ ही नहीं पाता। अपने सर्वस्व को इन्हीं दुष्प्रवृत्तियों की वेदी पर बलिदान कर देता है।

छोटी अच्छाइयों का सत्परिणाम

जिस प्रकार छोटी बुराइयाँ आरंभ होकर भयंकर रूप धारण करती हैं, उसी प्रकार अच्छाइयों का छोटा आरंभ यदि क्रमबद्ध रूप से अग्रसर होता रहे तो उसका अंतिम परिणाम ऐसा महान हो सकता है, जिस पर गर्व और संतोष व्यक्त किया जा सके। अन्नमयकोश की साधना के यह दो व्रत भले ही छोटे लगें, पर उनके परिणाम वासना पर नियंत्रण होते चलने से मनुष्य की श्रेष्ठता बढ़ाने के लिए बहुत ही सहायक हो सकते हैं। वासना और तृष्णा की डाकिनों में से एक को— वासना को, यदि कुछ काबू में रखा जा सके तो निःसंदेह इस संसार की आधी विपत्ति हल हो सकती है। मानवीय शरीर और मन का सत्यानाश करने वाली डाकिन वासना है, जिससे समाज में अगणित प्रकार के पाप, द्वेष, अनाचार, अत्याचार उत्पन्न होते हैं। इन दोनों को सीमित किए बिना आत्मिक सद्गुणों का असीम विस्तार हो सकना संभव नहीं। इसलिए अध्यात्म विद्या के आचार्य विविध विधि साधनाएँ बनाकर मानव अंतःकरणों को इन कषाय-कल्मषों से विमुक्त करने का प्रयत्न किया करते हैं। अन्नमयकोश की साधना के लिए हमारे दो प्रयत्न भी इस दिशा में उठाए गए आरंभिक कदम हैं, जिनका सत्परिणाम, सादगी, संतोष, सौम्यता और सज्जनता के रूप में कुछ ही समय में प्रस्फुटित हुआ देखा जा सकता है।

गृहस्थ में तपश्चर्या का विधान

अंतःप्रदेश में जड़ जमाकर बैठी हुई असुरता से लड़ने के लिए जो कष्टसाध्य प्रयास साधक को करना पड़ता है, उसे तप कहते हैं। अन्नमयकोश की साधना तपश्चर्या नाम से पुकारी जाती है। उसे आहार की तपश्चर्या और विहार की तपश्चर्या, दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। आहार की तपश्चर्या को अस्वाद व्रत और पदार्थ सीमाबंध के रूप में पिछले लेख में प्रस्तुत कर चुके हैं। विहार की तपश्चर्या में (1) ब्रह्मचर्य और (2) निरालस्य, इन दो बातों को रखा गया है। कामसेवन की समस्या व्यक्तिगत मानी जाती है, पर वस्तुतः वह पूर्णतया सामाजिक है। व्यक्तियों के स्वास्थ्य से उसका सीधा संबंध है। और संतान की दुर्बलता से हमारी भावी पीढ़ियों को सत्यानाश होना भी एक ऐसी महत्त्वपूर्ण बात है, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। व्यक्तिगत जीवन में शरीर का खोखलापन, दुर्बलताजन्य-कायाकष्ट , मूत्ररोग, जननेंद्रिय संबंधी बीमारियाँ, अल्पायु, जवानी में बुढ़ापा, औषधियों का खरच, उपार्जन में अशक्तता, चित्त में खिन्नता, पीड़ा, घरवालों की परेशानी, स्वजनों की घृणा और झुँझलाहट, मानसिक दीनता , चिड़चिड़ापन, विचारशक्ति का अभाव, चंचलता आदि अगणित व्यथाएँ ऐसी हैं, जो अव्यवस्थित, अनियंत्रित कामसेवन करने वालों के पीछे लग जाती हैं और जीवन के रस से ही उन्हें हाथ धोकर निराशा और उदासीनता भरा निकृष्ट जीवनयापन करने के लिए विवश होना पड़ता है।

ब्रह्मचर्य से जीवन विकास

ब्रह्मचर्य की महत्ता का आरोग्यशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र एक स्वर से गुणगान करते हैं। दोनों ही यह मानते हैं कि व्यक्तित्त्व के सर्वांगीण विकास के लिए ब्रह्मचर्य को अमृत ही मानना चाहिए। “मरणं बिन्दुपातेन, जीवनं बिन्दु धारणम्।” की उक्ति में ऋषि ने यही कहा है कि ब्रह्मचर्य को ही जीवन और उसके नाश को ही मरण मानना चाहिए। जिन्हें जिंदगी से प्यार नहीं, जो मौत के मुँह में जाने के लिए आतुर हैं उन्हें अनियंत्रित कामसेवन का रास्ता अपना लेना चाहिए। सर्वनाश कुछ ही समय में उनके सामने आ खड़ा होगा। महापुरुषों में, महानता में सदा से ब्रह्मचर्य का बड़ा योग रहा है।

हनुमान, भीष्म, शंकराचार्य, दयानंद आदि में ब्रह्मचर्य का तेज किस प्रकार प्रस्फुटित हुआ था, यह सर्वविदित है। पहलवानों को इस संबंध में काफी सावधानी बरतनी पड़ती है। बुद्धिजीवी लोगों में से जो उत्कृष्ट श्रेणी के हैं, वे ऊर्ध्वरेता रहकर ही देर तक अपनी बौद्धिक प्रतिभा को स्थिर रख पाते हैं। काम-वासना में नष्ट होने से जो शक्ति बचा ली जाती है, वह ओज, तेज, सौंदर्य−उल्लास, शौर्य, साहस, स्फूर्ति आदि महत्त्वपूर्ण तत्वों में परिणत होकर शरीर में छलकने लगती है तो मानव शरीर की शोभा और स्थिरता पहले की अपेक्षा बहुत बढ़ जाती है। रोगों का मुकाबला करने वाली जीवनीशक्ति उन्हीं शरीरों में रह पाती है, जो अपना सार निचोड़ते रहने में सावधानी बरतते हैं। भजन, ध्यान, श्रद्धा, भक्ति और ईश्वरप्राप्ति के योग्य मनोभूमि बनाने वालों को वासना की ओर से अपना मुँह मोड़ना ही पड़ता है। जिसे इंद्रिय लोलुपता घेरे रहती है, उसके लिए उच्च श्रेणी के व्यक्तियों में अपनी गणना करा सकना कठिन है।

विवाहित जीवन की मर्यादाएँ

अविवाहित, अखंड ब्रह्मचारी रहना सबके बस की बात नहीं है। कोई विशिष्ट व्यक्ति उस आदर्श का पालन करे तो उनकी प्रशंसा करनी चाहिए, पर सर्वसाधारण के लिए विवाहित जीवन सरल, सुविधाजनक और सुव्यवस्थित प्रगति की दृष्टि से उचित ही है। चार वर्णाश्रमों की पद्धति वैज्ञानिक भी है और व्यावहारिक भी। नर और नारी में जो अपूर्णता है, वह एकदूसरे के साथ एकात्म होकर पूर्ण करें, यह उचित है और आवश्यक भी। किंतु विवाह होने का मतलब यह नहीं है कि दोनों सर्वनाश के गड्ढे में ओंधे मुँह गिरने के लिए अंधी दौड़ लगाने लगें। महात्मा गाँधी ने 'अनीति की राह पर' नामक अपनी पुस्तक में विवाहित जीवन में रहते हुए अधिकाधिक ब्रह्मचर्य पालन करने पर बहुत जोर दिया है। वे स्वयं 36 वर्ष की आयु से अखंड ब्रह्मचर्य पालन करने लगे थे। पति-पत्नी की आत्मीयता, प्रेम-भावना और प्रसन्नता बढ़ाने में अंधी वासना सहायक नहीं, वरन हानिकारक ही सिद्ध होती है। सुसंतति की प्राप्ति और सौंदर्य की रक्षा की दृष्टि से तो यह और भी अधिक आवश्यक है कि दांपत्ति जीवन में ब्रह्मचर्य को समुचित स्थान मिले। यह भली भाँति समझ लेना चाहिए कि महानता के ऊँचे मार्ग पर चढ़ने के लिए जिस पेट्रोल की आवश्यकता है, वह इंद्रिय संयम के द्वारा बचाकर ही एकत्रित किया जा सकता है। जिनका जीवन-रस इन घृणित छिद्रों में होकर अमर्यादित रूप से टपकता रहेगा, उनके पास वह पूँजी बच न सकेगी, जिसके मूल्य पर महानता को उपलब्ध कर सकना संभव होता है।

मानसिक कुकल्पनाओं से बचें

अपने दांपत्ति जीवन से बाहर की वासना के बारे में कल्पना करना, सोचना, उत्पन्न होना, उसके लिए कदम उठाना तो नियत कामसेवन की अपेक्षा अनेकों गुना अधिक हानिकारक है। शास्त्रों में मानसिक और शारीरिक व्यभिचार को पाप और पतन का कारण एवं नरक में ले जाने वाला अपराध बताया गया है। नैतिकता और कानून की दृष्टि से भी वह हेय है। आरोग्य, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र एवं अध्यात्म की दृष्टि से विचार किया जाए, तब तो व्यभिचार एक बहुत ही भयानक कुकर्म सिद्ध होता है। अनेकों प्रकार की अशांतियाँ उत्पन्न करना, इस हेयकर्म का प्रत्यक्ष फल सर्वत्र देखा जा सकता है।

गायत्री उपासना की उच्चस्तरीय साधना का क्रम ब्रह्मचर्य की उपेक्षा करके आगे नहीं बढ़ सकता। पाठक जानते हैं कि गायत्री के छोटे−बड़े अनुष्ठानों के समय ब्रह्मचर्य का अनिवार्य रूप से पालन करना पड़ता है। अन्नमयकोश की साधना सारे जीवन चलने वाली है, इसलिए वैसा निषेधात्मक प्रतिबंध तो इसमें नहीं है, पर इतना प्रत्येक साधक को मानकर चलना पड़ेगा कि वह अपनी कामसेवन संबंधी गतिविधियों पर आगे क्रमशः अधिक ध्यान देगा और उसे अधिक सीमाबद्ध करेगा। सृष्टि के सभी जीव-जंतु संतानोत्पादन की प्रचंड स्फुरणा होने पर ही नियत समय पर एक बार कामसेवन करते हैं और जब तक दूसरे बच्चे की आवश्यकता न हो नर-मादा का संयोग नहीं होता। मादा की प्रेरणा पर ही नर उत्तेजित होता है, अपनी ओर से वह कभी मादा से छेड़−छाड़ नहीं करता। मनुष्य को पशु-पक्षियों से अधिक विवेकवान और संयमी होना चाहिए न कि अधिक मूर्ख और अधिक असंयमी।

न्यूनतम मर्यादा का अनिवार्य परिपालन

इस संबंध में आज की जो स्थिति है उसे सुनने-समझने से हर विचारशील व्यक्ति की आँखें बरसने लगती हैं। वासना का मंद विष खाकर लोग किस प्रकार आत्मघात करते चले जा रहे हैं, यह करुण कथा सब प्रकार चिंताजनक है। इस दिशा में नियंत्रण न रखा जा सका तो उसका परिणाम व्यक्ति और समाज के लिए सब प्रकार घातक ही होने वाला है। जनसाधारण को इस दुष्प्रवृत्ति से बचना ही चाहिए, पर गायत्री उपासकों के लिए तो यह आत्मिक प्रगति का प्रधान आधार ही माना गया है। अन्नमयकोश के साधकों को वासना पर नियंत्रण कायम करने के लिए बड़े और साहसपूर्ण कदम उठाने चाहिए। सप्ताह में एक बार से गिरी हुई मर्यादा तो किसी की भी न रहे। इस स्तर से भी नीचे उतर पड़ना आत्मिक प्रगति के लिए ही नहीं, शारीरिक सुरक्षा और मानसिक स्थिरता के लिए भी घातक है। यह न्यूनतम अवधि इस गए-गुजरे जमाने और लोगों के दुर्बल मानसिक स्तर को देखते हुए ही मानी जा सकती है। वस्तुतः इससे अधिक बड़ी मर्यादाएँ ही बनाना किसी विचारशील या अध्यात्मवादी सद्गृहस्थों के लिए संतोष की बात हो सकती है। जिनका विवाह नहीं हुआ है, जोड़ा बिछुड़ चुका है या दूर देश में रहने के कारण संयोग का अवसर नहीं है, उन्हें तो अपने ऊपर पूर्ण नियंत्रण रखते हुए शक्तिसंचय के लिए ही तत्पर रहना चाहिए।

संतान के लिए श्रेष्ठ अनुदान

हर व्यक्ति यह पसंद करता है कि उसे सुसंतति प्राप्त हो। पूर्वकाल में तो इसके लिए कितनों ने ही कठिन तपस्या की थी और देवताओं से संतान का वरदान पाया था। सचमुच! जिनके घर में स्वस्थ, सुंदर, दीर्घजीवी, बुद्धिमान, होनहार, सदाचारी बालक जन्मते हैं, वे सब प्रकार धन्य हैं। ऐसी बाल−विभूतियों की उपलब्धि में जहाँ माता−पिता की शिक्षा−दीक्षा, सुसंस्कार, स्वभाव, बुद्धिमत्ता, आर्थिक स्थिति आदि कारण हैं, वहाँ सबसे बड़ा कारण उनका ब्रह्मचर्य है। शरीर का अंतिम सार— धातु परिपक्व और परिपुष्ट होने पर ही इस योग्य होता है कि उससे उत्कृष्ट कोटि का प्रजनन हो सके। बालकों में ओज, तेज, साहस, पुरुषार्थ, शौर्य, धैर्य, आदर्शवाद आदि उच्च गुणों का सीधा संबंध माता−पिता के ब्रह्मचर्य से है। कामवासना के कीड़े अपना शरीर और मनोबल तो खोते ही हैं, संतान भी दुर्बल, रोगी, अल्पायु, मंदबुद्धि, आलसी, कायर और ऐसे ही अन्य दुर्गुणों से ग्रसित उत्पन्न होती है। अपराधी मनोवृत्ति के बालक आमतौर से असंयमी और दुराचारी माता−पिता की संतान होते हैं।

सुसंतति का अमूल्य उपहार

संतान के लिए लोग इच्छुक तो बहुत रहते हैं, उनके लिए खरच भी खूब करते हैं और उत्तराधिकार में छोड़ भी बहुत जाते हैं, पर वे श्रेष्ठ सद्गुणों से संपन्न होकर जन्में, इनके लिए तप, त्याग कुछ भी नहीं करते। ब्रह्मचर्य का अधिकाधिक पालन करना अपनी भावी संतान की सबसे बड़ी सेवा है। पोशाक, जेवर, दहेज, शिक्षा, भोजन, जायदाद देकर हम बच्चों का उतना भला नहीं कर सकते, जितना उन्हें सुदृढ़ जीवनतत्त्व और सद्गुणों का आत्मिक उपहार देकर सुखी और समृद्ध बना सकते हैं। बच्चों के लिए माता−पिता बहुत कष्ट सहते हैं और त्याग भी करते हैं। क्या ही अच्छा होता यदि उनने ब्रह्मचर्य की साधना करके उनके लिए सर्वश्रेष्ठ तप-त्याग किया होता। हर तपस्या का एक श्रेष्ठ वरदान मिलता है, ब्रह्मचर्य की तपस्या से शारीरिक मानसिक आध्यात्मिक उन्नति के अनेकों लाभ, वरदानों के साथ एक ईश्वरीय उपहार यह भी है कि ऐसी होनहार संतान मिले, जो पिता−माता के गौरव एवं यश को बढ़ाकर सच्चे अर्थों में वंश चलाने वाली सिद्ध हो।

आलस— एक प्रकार की आत्महत्या है

दूसरा व्रत निरालस्य का है। आलस में पड़े−पड़े हम अपना बहुमूल्य बहुत-सा समय आए दिन नष्ट करते रहते हैं। मंद गति से, हलका−हलका बेमन काम करने से समय पूरा नष्ट हो जाता है, पर काम एक चौथाई भी दिखाई नहीं देता, जो होता है वह भी फूहड़पन से भरा हुआ— अधूरा आदि अनुपयुक्त । ऐसे कामों को समय और श्रम की बर्बादी ही कहा जा सकता हैं। लोग समझते हैं हम दिन भर काम करते हैं और फुर्सत नहीं पाते। आलस और ढीलेपन की प्रवृत्ति बहुत ही बुरी है। ईश्वर ने समयरूपी संपत्ति प्रचुर मात्रा में देकर ही मनुष्य को उसके मूल्य पर चाहे जो विभूति उपलब्ध कर सकने की सुविधा दी है, पर जो लोग समय का मूल्य ही नहीं समझते और जिंदगी के दिन ज्यों त्यों काटते रहते हैं, उन्हें निम्नकोटि का असफल और अभावग्रस्त जीवन व्यतीत करने के लिए ही विवश होना पड़ता है।

समयरूपी दैवी संपत्ति को आलस्य से बर्बाद करना ऐसा ही है, जैसे परसी हुई थाली को लात मारकर छितरा देना। आलसी मनुष्य अपने आपका सबसे बड़ा शत्रु है। शरीर के भीतर प्रत्येक अंग-प्रत्यंग अपनी नियत क्रियाशीलता में अहिर्निश कार्यरत रहता है, फिर बाहर की देह को ही क्यों आलसी होना चाहिए, क्यों काम से घृणा करनी चाहिए, क्यों परिश्रम से जी चुराना चाहिए। आलस और दरिद्रता एक ही वस्तु के दो पहलू हैं। लक्ष्मी सदा उत्साही, उद्योगी और पुरुषार्थी लोगों का आश्रय ढूँढ़ती है। आलसी तो अनायास प्राप्त हुई पैतृक संपत्ति तक को सुरक्षित नहीं रख सकते। अध्यात्म का अर्थ है— प्रबल पुरुषार्थ।

सवेरे जल्दी उठने की आदत

अखण्ड ज्योति परिवार के सब सदस्यों को पंचकोशी साधना कर सकना कठिन प्रतीत हो तो उसके उपयोगी अंशों को तो अपना ही लेना चाहिए, वह भी साधना ही गिनी जाएगी। जप, तप न बन पड़े तो भी ब्रह्मर्चय का सीमाबंध और आलस्य के विरुद्ध विद्रोह का झंडा खड़ा करने के लिए हममें से प्रत्येक को खड़ा हो ही जाना चाहिए। सबेरे जल्दी उठने की आदत निरालस्यता का पहला चिह्न है। जिन्हें रात की कोई खास ड्यूटी करनी पड़ती है, उनकी बात दूसरी है। इन अपवादों को छोड़कर हममें से प्रत्येक को सूर्योदय से कम-से-कम एक घंटा पूर्व तो उठ ही बैठना चाहिए। नित्यकर्म से निवृत्त होकर अपने उस कार्य में लग जाना चाहिए, जो सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है। प्रातःकाल की परिस्थिति और मनःस्थिति ऐसी होती है कि उसमें जो भी काम किया जाए, वह सफल होता चला जाएगा।

नियमित दिनचर्या और क्रमबद्धता

जल्दी उठने के लिए जल्दी सोना आवश्यक है। अपना कार्यक्रम ऐसा बनाना चाहिए कि सूर्य अस्त होने से तीन−चार घंटे के भीतर सोने की व्यवस्था बन जाए। यह कहावत ही नहीं, तथ्य भी है कि, "जल्दी सोना और जल्दी उठना मनुष्य को स्वस्थ, बुद्धिमान और संपत्तिवान बनाता है।" जिनका ब्राह्ममुहूर्त्त सोते रहने और सुस्ती में पड़े ऐंड़ते रहने में बीतता है, उन अभागों का आधा जीवन व्यर्थ ही बर्बाद हो जाता है। सवेरे के दो−तीन घंटे इतने मूल्यवान होते हैं कि उनकी तुलना में पूरे दिन भर के सारे घंटे मिलकर भी कम सिद्ध होते हैं। लेखकों, कवियों, वैज्ञानिकों, विद्यार्थियों, बुद्धिजीवियों, साधकों और सत्पुरुषों को प्रातःकाल का समय प्राणप्रिय होता है। वे उसे किसी भी मूल्य पर खोने और गंवाने को तैयार नहीं होते। समय का ठीक तरह विभाजन करके उस कार्यक्रम पर चलते हुए मनुष्य आसानी से दूना काम कर सकता है। हममें से प्रत्येक को अपनी दिनचर्या बनाते रहना चाहिए और कठोरतापूर्वक उसे पालन करते हुए अपने जीवन को क्रमबद्ध बनाना चाहिए।

अध्यात्म की एक पुण्य परंपरा

प्राचीनकाल के सभी ऋषि−महर्षि अपने समय का एक-एक क्षण क्रियासंलग्न रखते थे और अपने शिष्यों को, छात्रों को, और जनसाधारण को ऐसी ही प्रेरणा देते थे कि वे समयरूपी ईश्वरीय अमूल्य उपहार का एक क्षण भी आलस और प्रमाद में नष्ट न करें। क्रमबद्ध, व्यवस्थित और प्रोग्राम बनाकर, समय का विभाजन करते हुए, नियत समय पर, नियत कार्य पूरे मनोयोग और दिलचस्पी से करना ही श्रम और समय का सदुपयोग कहा जाता है। हममें से प्रत्येक को अपनी गतिविधियाँ इसी प्रकार नियमित करनी चाहिए। एक क्षण भी बिना आलस में बिताए, रोटी कमाना, शरीर-व्यवस्था, मनोरंजन, परिवार-निर्माण, लोकसेवा, ईश्वर-उपासना आदि आवश्यक कार्यों में हमारा समय बँटा हुआ हो और जब भी जो भी काम करें, पूरे उत्साह पूरे मनोयोग, पूरे परिश्रम और पूरी दिलचस्पी के साथ एक खेल समझकर पूरा करें। इस प्रक्रिया से कार्य की उत्कृष्टता बढ़ती है और थकान पास भी नहीं भटकने पाती।

श्रम और समय को जो लोग प्यार करते हैं, वस्तुतः वे ही उसका लाभ उठा पाते हैं। अध्यात्म मार्ग के पथिकों को, गायत्री उपासना के अंतर्गत अन्नमयकोश की साधना करने वालों को असंयम से लड़ना चाहिए और आलस से भी। इस मोर्चे को फतह करके ही आगे की प्रगति के द्वार खुलते हैं।


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