जल उठे यदि दीप सुंदर साधना का, तो प्रकाशित पंथ होगा, दूर तम!
कालिमा उड़ जाएगी निःश्वास बन—
हृदय पावन हो उठेगा सौम्य अति!
भावना जब द्वेष की निःशेष हो—
कर उठेगी वरण सच्ची सरल मति!!
मान या अपमान में भी जो रहे—
एक−सा, सुस्थिर−विवेकी और सम!
स्वावलंबी−धीर और प्रशांत हो—
जो करेगा सरल उर से वरण श्रम!!
बढ़ चले यदि कामना निष्काम ले तो सफल, पा सिद्धि−होगा दूर भ्रम!
हेम जलता है स्वयं जब अग्नि में—
मलिनता खो, प्राप्त करता रूप शुभ!
और जलकर जब मिटा देता अहं—
तभी प्रिय से मिल मुदित होता शलभ!!
चीर रजनी का तमस बहु सिहरती—
भोर पाने के लिए अविराम वह!
मूक साधक−सी जलाती रूप निज—
ज्योति−लघु, निष्काम पर-हित सरल वह!!
प्राप्त करने से प्रथम, कुछ त्याग करने का सनातन से रहा क्रम!
कूल मिल जाए, अगर यह चाहते—
पार कर तूफान, दृढ़ विश्वास ले!
मत निराशा से व्यथित हो अमाँ में—
धीर रख पूनम हंसेगी, आश ले!!
फूल खिलते जो कटीली डाल पर—
चूम धरती के चरण कहते सदा!
दुःख सहो हंस−हंस उठाकर भाल निज—
विघ्न−बाधा मिल, सुपथ रोकें यदा!!
साधना ही बन उठेगी साध्य-शुभ, यदि मिले शृंगार-साधन उचित-श्रम!
—रामस्वरूप खरे ‛साहित्य रत्न’
*समाप्त*