लोम-विलोम सूर्यवेधन प्राणायाम

October 1962

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्राणमयकोश की साधना में प्राणविद्या का क्रमिक शिक्षण प्राप्त करना पड़ता है। गतवर्ष इस संदर्भ में प्राणाकर्षण प्राणायाम की शिक्षा दी गई थी। और बताया गया था कि—

गत वर्ष की प्राणशिक्षा

(1) “प्रातःकाल नित्यकर्म से निवृत्त होकर पूर्वाभिमुख पालथी मारकर बैठिए। दोनों हाथ घुटनों पर रखिए, मेरुदंड सीधा रखिए। नेत्र बंद कर लीजिए। ध्यान कीजिए कि अखिल आकाश में तेज और शक्ति से ओत-प्रोत प्राणतत्त्व व्याप्त हो रहा है। गरम भाप के, सूर्य के प्रकाश में चमकते हुए बादलों जैसी शक्ल के, प्राण का उफान हमारे चारों ओर उमड़ता चला आ रहा है। और उस प्राण-उफान के बीच हम निश्चिन्त, शांतचित्त एवं प्रसन्न मुद्रा में बैठे हुए हैं।”

(2) ‟नासिका के दोनों छिद्रों से धीरे-धीरे साँस खींचना आरंभ कीजिए और भावना कीजिए कि प्राणतत्त्व के उफनते हुए बादलों को हम अपनी साँस द्वारा भीतर खींच रहे हैं। जिस प्रकार पक्षी अपने घोंसले में, साँप अपने बिल में प्रवेश करता है, उसी प्रकार प्रवाह हमारी नासिका द्वारा साँस के साथ शरीर के भीतर प्रवेश करता है और मस्तिष्क, छाती, हृदय, पेट, आँतों से लेकर समस्त अंगों में प्रवेश कर जाता है।”

(3) “जब साँस पूरी खिंच जाए तो उसे भीतर रोकिए और भावना कीजिए कि, ‟जो प्राणतत्त्व खींचा गया है, उसे हमारे भीतरी अंग−प्रत्यंग सोख रहे हैं। जिस प्रकार मिट्टी पर पानी डाला जाए तो वह उसे सोख जाती है, उसी प्रकार अपने अंग सूखी मिट्टी के समान हैं और जलरूपी इस खींचे हुए प्राण को सोखकर अपने अंदर सदा के लिए धारण कर रहे हैं। साथ ही प्राणतत्त्व में सम्मिश्रित चैतन्य, तेज, बल, उत्साह, साहस, धैर्य, पराक्रम सरीखे अनेक तत्त्व हमारे अंग-प्रत्यंग में स्थिर हो रहे हैं।”

(4) “जितनी देर साँस आसानी से रोकी जा सके, उतनी देर रोकने के बाद धीरे-धीरे साँस बाहर निकालिए। साथ ही भावना कीजिए कि प्राणवायु का सारतत्त्व हमारे अंग-प्रत्यंगों के द्वारा खींच लिए जाने के बाद अब वैसा ही निकम्मा वायु बाहर निकाला जा रहा है, जैसा कि मक्खन निकाल लेने के बाद निस्तार दूध हटा दिया जाता है। शरीर और मन में जो विकार थे, वे सब इस निकलती हुई साँस के साथ घुल गए हैं और काले धुँए के समान अनेक दूषणों को लेकर वह बाहर निकल रहे हैं।”

(5) “पूरी साँस बाहर निकल जाने के बाद कुछ देर बाहर साँस रोकिए अर्थात बिना साँस के रहिए और भावना कीजिए कि अंदर के जो दोष बाहर निकाले गए थे। उनको वापिस न लौटने देने की दृष्टि से दरवाजा बंद कर दिया गया है और वे बहिष्कृत होकर हमसे बहुत दूर उड़े जा रहे हैं।”

“इस प्रकार पाँच अंगों में विभाजित इस प्राणाकर्षण प्राणायाम को नित्य ही जप से पूर्व करना चाहिए। आरंभ 5 प्राणायामों से किया जाए। अर्थात उपरोक्त क्रिया पाँच बार दुहराई जाए। इसके बाद हर महीने एक प्राणायाम बढ़ाया जा सकता है। यह प्रक्रिया धीरे-धीरे बढ़ाते हुए एक वर्ष में आधा घंटा तक पहुँचा देनी चाहिए।”

उपरोक्त प्राणाकर्षण-विधान गत वर्ष अक्टूबर मास के अंक में छपा था। इस एक वर्ष में जिन्होंने इस विधान के अनुसार साधना की है, उन्होंने आशातीत सत्परिणाम प्राप्त किया है। जो निरुत्साह और निराश रहा करते थे, जिनकी नस−नाड़ियाँ शिथिल रहा करती थीं, जरा-सा काम करने पर जो थक जाते थे, थोड़ी भी कठिनाई में जिनका दिल धड़कने लगता है। चिंता और आकांक्षा से जिनका चित्त आतंकित रहा करता था, वे इस प्राणायाम के प्रयोग से अपने अंदर जादू जैसा परिवर्तन अनुभव करने लगे हैं। उन्हें अनुभव होता है कि कोई अतिरिक्त शक्ति उनके शरीर में प्रवेश कर गई है और उसकी सहायता से आत्मविश्वास एवं आत्मबल दूना हो गया है। काम में मन लगने और आशावादी रहने का एक विशेष परिवर्तन 90 प्रतिशत साधकों में हुआ है।

इस वर्ष का अगला पाठ्यक्रम

जिनने प्रथम वर्ष की यह प्राणाकर्षण साधना आरंभ न की हों, उन्हें यह अंक मिलते ही तुरंत आरंभ कर देनी चाहिए। प्राणतत्त्व जितना बहुमूल्य है, उतना ही सुलभ भी। इतनी सुलभ वस्तु जो भावनापूर्वक साँस खींचनेमात्र से अपने को उपलब्ध हो सकती है और गुणों की दृष्टि से जो संसार की किसी भी मूल्यवान वस्तु से कम महत्त्व की नहीं है, उसकी उपेक्षा किया जाना निश्चय ही दुर्भाग्यपूर्ण है। आध्यात्मिक साधनाएँ समय की बर्बादी नहीं हैं। भौतिक पुरुषार्थों से प्राप्त होने वाले लाभों की अपेक्षा विधिवत किए हुए आध्यात्मिक पुरुषार्थों का लाभ निश्चय ही अत्यधिक होता है। प्राणाकर्षण प्राणायाम एक चुनी हुई सरल साधना है, जिसका प्राणमयकोश के परिमार्जन में महत्त्वपूर्ण स्थान माना गया है।

जिन लोगों ने प्रथम वर्ष की साधना आरंभ नहीं की है, उनके लिए एक वर्ष तक उपरोक्त साधना करते रहना ही उचित है। किंतु जो एक वर्ष तक इसे कर चुके, उनके लिए 'लोम-विलोम, सूर्यवेधन प्राणायाम' साधना का द्वितीय वर्षीय कार्यक्रम उचित एवं उपयुक्त रहेगा। यह साधना इस प्रकार करनी चाहिए—

(1) किसी शांत एकांत स्थान में प्रातःकाल स्थिर चित्त होकर बैठिए। पूर्व की ओर मुख, पालथी मारकर सरल पद्मासन से बैठना, मेरुदंड सीधा, नेत्र अधखुले, घुटनों पर दोनों हाथ, यह प्राणमुद्रा कहलाती है— इसी पर बैठना चाहिए।

(2) बाँए हाथ को मोड़कर तिरछा कीजिए। उसकी हथेली पर दाहिने हाथ की कोहनी रखिए। दाहिना हाथ ऊपर उठाइए। अंगूठा दाहिने नथुने पर और मध्यमा तथा अनामिका उंगलियाँ बाँए नथुने पर रखिए।

(3) बाँए नासिका के छिद्र को मध्यमा (बीच की) और अनामिका (तीसरे नंबर की ) उंगली से बंद कर लीजिए। दाहिने नथुने से धीरे−धीरे साँस खींचना आरम्भ कीजिए। साँस फेफड़े तक ही सीमित न रहे, उसे नाभि तक ले जाना चाहिए और धीरे−धीरे इतनी वायु पेट में ले जानी चाहिए, जिससे वह पूरी तरह फूल जाए।

(4) ध्यान कीजिए कि सूर्य की किरणों जैसा प्रवाह, वायु में सम्मिश्रित होकर दाहिने नासिका छिद्र में अवस्थित पिंगला नाड़ी द्वारा अपने शरीर में प्रवेश कर रहा है और उसकी ऊष्मा अपने भीतरी अंग−प्रत्यंगों को तेजस्वी बना रही है।

(5) साँस को कुछ देर भीतर रोकिए। दोनों नासिका छिद्र बंद कर लीजिए और ध्यान कीजिए कि नाभिचक्र में प्राणवायु द्वारा एकत्रित हुआ तेज, नाभिचक्र में एकत्रित हो रहा है। नाभिस्थल में चिरकाल से प्रसुप्त पड़ा हुआ सूर्यचक्र, इस आगत प्रकाशवान प्राणवायु से प्रभावित होकर प्रकाशवान प्राणवायु से प्रभावित होकर प्रकाशवान हो रहा है और उसकी चमक बढ़ती जा रही है।

(6) दाहिने नासिका छिद्र को अंगूठे से बंद कर लीजिए। बाँया खोल दीजिए। साँस को धीरे−धीरे बाँए नथुने से बाहर निकालिए और ध्यान कीजिए कि सूर्यचक्र को सुषुप्त और धुँधला बनाए रहने वाले कल्मष, इस छोड़ी हुई साँस के साथ बाहर निकल रहे हैं। इन कल्मषों के मिल जाने के कारण साँस खींचते समय जो शुभ्र-वर्ण तेजस्वी प्रकाश भीतर गया था, वह अब मलीन हो गया और पीतवर्ण होकर साँस के साथ बाँए नथुने की इड़ा नाड़ी द्वारा बाहर निकल रहा है।

(7) दोनों नथुने फिर बंद कर लीजिए । फेफड़ों को बिना साँस के खाली रखिए। ध्यान कीजिए कि बाहरी प्राण बाहर रोक दिया गया है। उसका दबाव भीतर प्राण पर बिलकुल भी न रहने से वह हलका हो गया है। नाभिचक्र में जितना प्राण सूर्यपिण्ड की तरह एकत्रित था, वह तेजपुंज की तरह ऊपर की ओर अग्निशिखाओं की तरह ऊपर उठ रहा है। उसकी लपटें पेट के ऊर्ध्व भाग,फुफ्फुस से फैलती हुई कंठ तक पहुँच रही हैं। भीतरी अवयवों में सुषुम्ना नाड़ी में से प्रस्फुटित हुआ यह प्राणतेज अंतःप्रदेश को प्रकाशमान बना रहा है।

(8) अंगूठे से दाहिना छिद्र बंद कीजिए और बाँए नथुने से साँस खींचते हुए ध्यान कीजिए कि इड़ा नाड़ी द्वारा सूर्यप्रकाश जैसा प्राणतत्त्व साँस से मिलकर शरीर में भीतर प्रवेश कर रहा है और वह तेज सुषुम्ना विनिर्मित नाभिस्थल के सूर्यचक्र में प्रवेश करके वहाँ अपना भंडार जमा कर रहा है। इस तेज संचय से सूर्यचक्र क्रमशः अधिक तेजस्वी बनता चलता जा रहा है।

(9) दोनों नासिका छिद्रों को बंद कर लीजिए। साँस को भीतर रोकिए। ध्यान कीजिए कि साँस के साथ एकत्रित किया हुआ तेजस्वी प्राण, नाभिस्थित सूर्यचक्र में अपनी तेजस्विता को चिरस्थायी बना रहा है। तेजस्विता निरंतर बढ़ रही है और वह अपनी लपटें पुनः ऊपर की ओर अग्निशिखा की तरह ऊर्ध्वगामी बना रही है। इस तेज से सुषुम्ना नाड़ी निरंतर परिपुष्ट हो रही है।

(10) बाँया नथुना बंद कीजिए और दाहिने से साँस धीरे−धीरे बाहर निकालिए। ध्यान कीजिए कि सूर्यचक्र का कल्मष धुँए की तरह तेजस्वी साँस में मिलकर उसे धुँधला पीला बना रहा है और पीली प्राणवायु पिंगला नाड़ी द्वारा बाहर निकल रही है। भीतरी कषाय-कल्मष बाहर निकलने से अंतःकरण बहुत हलका हो रहा है।

(11) दोनों नासिका छिद्रों को पुनः बंद कीजिए और उपरोक्त नं. 6 की तरह फेफड़ों को साँस से बिलकुल खाली रखिए। नाभिचक्र से कंठ तक सुषुम्ना का प्रकाशपुंज ऊपर उठता देखिए। भीतरी अवयवों में एक दिव्य-ज्योति जगमगाती अनुभव कीजिए।

परिभाषा एवं ज्ञातव्य

यह एक लोम−विलोम सूर्यवेधन प्राणायाम हुआ। साँस के साथ खींचा हुआ प्राण, नाभि में स्थित सूर्यचक्र को जागृत करता है। उसके आलस्य और अंधकार को वेधता है और वह सूर्यचक्र अपनी परिधि की वेधन करता हुआ सुषुम्ना मार्ग से उदर, छाती और कंठ तक अपना तेज फेंकता है। इन कारणों से इसे सूर्यवेधन कहते हैं। लोम कहते हैं सीधे को, विलोम कहते हैं उलटे को। एक बार सीधा, एक बार उलटा। फिर उलटा, फिर सीधा। फिर उलटा, फिर सीधा। बाँए से खींचना, दाँये से निकालना। दाहिने से खींचना बाँए से निकालना। यह उलटा-सीधा चक्र रहने से इसे लोम-विलोम कहते हैं। प्राणायाम की प्रकृति के अनुसार इसे लोम-विलोम सूर्यवेधन प्राणायाम कहा जाता है। साँस खींचने को पूरक, रोकने को अंतःकुंभक, निकालने को रेचक और बाहर साँस रोकने को बाह्यकुंभक कहते हैं। बाँए स्वर में चंद्रधारा एवं इड़ा नाड़ी और दाहिने स्वर में सूर्यधारा एवं पिंगला नाड़ी अवस्थित हैं। दोनों के मिलने के स्थल पर जो प्रकाशपुंज एवं तड़ित प्राण उत्पन्न होता है, उसे सुषुम्ना कहते हैं। यह परिभाषा भी हमें स्मरण रखनी चाहिए। एक बार उलटा, एक बार सीधा। एक बार दाँए से खींचना बाँए से निकालना, एक बार बाँए से खींचकर दाँए से निकालना, यह दोनों क्रियाएँ मिलने से एक पूर्ण लोम-विलोम सूर्यवेधन प्राणायाम बनता है। आरंभ में इन्हें तीन की संख्या से करना चाहिए। फिर हर महीने एक बढ़ाते हुए सात महीनों में इन्हें दस तक पहुँचा देना चाहिए। साँस को छोड़ने-निकालने की क्रिया जितनी धीमी रखी जा सके, उतनी ही अच्छी है। ध्यान रखिए कि भावना जितनी ही गहरी होगी, उतना ही अधिक सत्परिणाम उत्पन्न होगा।

प्रकाशपुंज के ज्योतिस्फुल्लिंग

गायत्री का देवता सविता है। सविता सूर्य को कहते हैं। प्रथम कक्षा के साधकों को प्रतिमा के आधार पर ध्यान करना पड़ता है, पर उसमें भी सूर्यमंडल के मध्य में अवस्थित माता की प्रतिमा होती है। इससे ऊँची कक्षा में सूर्य के समान गोलाकार प्रकाशपुंज ही गायत्री माता का स्वरूप रह जाता है और उसी का ध्यान करते हैं। यह ध्यान करते हुए प्रकाश पर्याप्त मात्रा में अपने अंतःप्रदेश में व्याप्त होता है तो ही यह प्रकाशपुंज का ध्यान ठीक तरह जमता है। इस उद्देश्य की पूर्ति इस सूर्य प्राणायाम से होती है। अपने भीतर-बाहर सब कुछ प्रकाशवान दीखता है। तमोगुणरूपी अंधकार तिरोहित होने लगता है और यदा−कदा आध्यात्मिक चेष्टाएँ विभिन्न रंग-रूप के, ज्योति-स्फुल्लिंगों के रूप में साधकों को परिलक्षित होती रहती हैं। प्रकाशदर्शन की अनुभूतियाँ आशा और उल्लास की प्रतीक मानी जाती हैं।

प्राणतत्त्व की एक उपयुक्त मात्रा इस प्राणायाम से साधकों को उपलब्ध होगी। यह मात्रा थोड़ी होते हुए भी अपनी शारीरिक, मानसिक, सांसारिक एवं आध्यात्मिक प्रगति में बहुत सहायक होती है। साधारण गृहस्थों एवं कार्यव्यस्त व्यक्तियों के उपयुक्त अखण्ड ज्योति के पृष्ठों पर साधनाक्रम बताया जा रहा है। जिन्हें अधिक अवकाश है, जिनका समय और मस्तिष्क खाली रहता है वे इन साधनाओं में अधिक तीव्रता उत्पन्न करके अधिक लाभ उठा सकते हैं। प्राण को निग्रहीत करने से मनुष्य मनचाही आयु प्राप्त कर सकता है। भीष्म की तरह शरशैय्या पर पड़े हुए भी छह महीने तक मृत्यु को टाल सकता है। इच्छानुसार जब चाहे समाधि लेकर प्राण त्याग कर सकता है। साधारण जीवन में वह एक शक्तिपुंज, बिजलीघर के समान सिद्ध होता है जिसकी प्रेरणा से उनका निज का जीवन ही नहीं, संबंधित वातावरण भी सुदूर देशों तक प्रभावित होता है। प्राण की महत्ता असाधारण है और वैसी ही प्राणायाम की भी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles