मैं भूला-भटका हूँ राही, मंजिल दूर कहीं है। अनचाहा, चाहा बन जाता, मुश्किल एक यहींं है॥
माया के इस विकट जाल में, कब से यहाँ फँसा हूँ। अज्ञानी बन इस दलदल में, जाता यहाँ धँसा हूँ॥
ऐसे कठिन काल में आकर, रक्षा कर भगवान!
काम, क्रोध से मैं व्याकुल हूँ, राह तमिस्रा छाई। भटकाने को ये सब रिपु बन, राह रोकते धाई॥
चाह रहा हूँ बढ़ना पथ पर, पर छाई अँधियाली॥ आज विजन में भटक−भटककर, जीवन है यह खाली॥
जीवन को तुम ज्ञानवान, कर दो मेरे भगवान!
ध्रुव समान नन्हें बालक की, तुमने रक्षा की है। हिरणकश्यपु के जीवन से, तुमने शिक्षा दी है॥
टेर सुनी तुमने है गज की, ग्राह से उसे बचाया। चीर द्रौपदी का तुमने ही, आकर तुरत बढ़ाया॥
बढ़ने वाले इस राही को, राह दिखा भगवान!
तुम ही हो जन−मन के प्रेरक, तुम से जग चलता है। नाशवान यह जगत तुम्हारा, तुम से ही पलता है॥
मरुभूमि में पेड़ उगाते, इसमें क्या अचरज है। तुम्हीं सृष्टि के निर्माता, सब तेरे लिए सहज है॥
नाशवान जीवन अविनाशी, कर दो हे भगवान!
भवसागर के बीच पड़ी है, नैया बिन पतवार। तूफानी लहरों से, मेरा कर दो बेड़ा पार॥
पतितों के उद्धारक तुम हो, मैं हूँ पतित महान। भटक रहा हूँ कब से भगवन, मैं पापी अनजान।
इस अनजाने पापी का अब, पाप हरो भगवान।
पार लगाने वाले, मेरी नैया के भगवान॥
—कृत्यानंद सिंह