प्राण−प्रवाह की शक्ति−संचार साधना

October 1962

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अखिल आकाश में संव्याप्त महाप्राण को, भावना तथा श्वासक्रिया के सम्मिश्रित प्रयोग द्वारा खींचना और अपने अंदर धारण करना, प्राणायाम कहलाता है। प्राणायाम नित्यकर्मों में आने से बहुत सरल भी है और उसकी उच्च भूमिकाएँ इतनी ही कठिन एवं महत्त्वपूर्ण भी हैं कि इसी विद्या का गाहन-अवगाहन करके मनुष्य देवतुल्य सामर्थ्यवान बन सकता है। यम ने नचिकेता को इसे पंचाग्नि-विद्या के नाम से सिखाया था। प्रश्न उपनिषद् में प्राणविद्या के कुछ तथ्यों पर प्रकाश आता है, इससे प्रतीत होता है कि प्राणतत्त्व पर आधिपत्य प्राप्त कर लेने वाला व्यक्ति सामान्य व्यक्ति न रहकर अगणित विभूतियों का अधिपति बन जाता है। 84 प्रकार के प्राणायामों का योग-ग्रंथों में वर्णन मिलता है। इनमें से प्राणमयकोश का परिमार्जन करने की दृष्टि से, जितने सर्वसाधारण के लिए सुलभ हैं, उन्हें आगामी नौ वर्षों में बता दिया जाएगा। जो केवल विशिष्ट साधकों के लिए ही उपयुक्त हैं, जिन विधानों में भूल हो जाने से खतरे की आशंका रहती है और जो केवल अनुभवी मार्गदर्शकों के सामने ही किए या सीखे जा सकते है, उनका वर्णन इन पृष्ठों पर न करेंगे। उन्हें व्यक्तिगत शिक्षण के लिए ही सुरक्षित रखा जाएगा। कुंडलिनी जागरण, षट्चक्रों का वेधन, प्राण-संधान, निर्विकल्प और सविकल्प समाधियाँ यद्यपि प्राणविद्या के अंतर्गत दी जाती हैं, फिर भी वह विषय ऐसा जटिल है कि लिखने, छापने और पढ़ने मात्र से उसका किया जाना संभव नहीं। अधिकार और पात्रत्व बढ़ने पर ही कोई व्यक्ति उन विशिष्ट साधनाओं से लाभ उठा सकता है।

व्यक्ति-विद्युत का धारा-प्रवाह

प्राणतत्त्व का एक दूसरा प्रयोग भी है, जिसे 'व्यक्ति-विद्युत' कहते हैं। मैस्मरेजम के ज्ञाता जिसे पर्सनल ‘मेग्नेटिज्म’ के नाम से कुछ अंश तक जान सके हैं और उसके प्रयोगों की थोड़ी-सी प्रक्रिया काम में लाने लगे हैं, वह व्यक्ति-विद्युत के महान विज्ञान का ही एक छोटा-सा अंश है, भारतीय योगी इसे शक्ति-संचार या शक्तिपात के रूप में प्रयुक्त करते हैं। 'मानवीय विद्युत के चमत्कार' नामक हमारी पुस्तक जिन्होंने पढ़ी है, वे जानते हैं कि मनुष्य का शरीर और मन अपने भीतर कितनी भारी मात्रा में बिजली धारण किए हुए हैं और उसके द्वारा किन−किन प्रयोजनों की सिद्धि होती है। प्राण इससे भी उत्कृष्ट कोटि की विद्युत है। कोई प्राणवान व्यक्ति यदि चाहे तो अपने प्राणबल से दुर्बल प्राण वालों को उसी प्रकार लाभान्वित कर सकता है, जैसे कोई धनी व्यक्ति अपने पैसे से निर्धनों का भला कर सकता है।

शिक्षा के साथ−साथ शक्तिदान भी

साधना-क्षेत्र में गुरु−शिष्य परंपरा से इस शक्ति का आदान−प्रदान होता रहता है। अध्यापक अपने शिष्यों को केवल ज्ञान देते हैं, पर गुरु अपने शिष्यों को शिक्षा के साथ−साथ शक्ति का एक भाग भी दिया करते हैं। इसलिए गुरु को धर्मपिता कहा जाता है। शरीर को जन्म देने वाला पिता अपनी संतान की शिक्षा−दीक्षा भी करता है और अपनी कमाई हुई संपत्ति का एक बड़ा भाग उन पर खरच भी करता है। गुरुओं को भी ऐसा ही करना पड़ता है। गुरु को धर्मपिता इसलिए कहते हैं, क्योंकि वह अपने धर्मपुत्रों, शिष्यों को, निस्वार्थ भाव से अपनी उपार्जित तपश्चर्या का एक अंश उपहार में देकर उनको सुखी और समुन्नत बनाने के लिए बहुत कुछ आत्मत्याग करता रहता है।

यों अभिवादन का उत्तर आशीर्वाद में देने का एक आम रिवाज है। जिसे हम प्रणाम करेंगे, वह गुरुजन कुछ-न-कुछ मंगल वचन ही उत्तर में कहेंगे। पर वे आशीर्वाद सार्थक किसी−किसी के ही होते हैं। कारण स्पष्ट है, कोई हीन वीर्य पदार्थ फलप्रद नहीं होता। सड़ा, घुना बीज कहाँ उगता है? आशीर्वाद के साथ-साथ अपने पुण्य और तप का एक अंश यदि नहीं दिया गया तो उसे शिष्टाचारमात्र ही माना जाएगा और उसका प्रतिफल सुनने वाले को मनोरंजन जितना ही होगा। सामर्थ्यवान गुरु, अधिकारी-सत्पात्रों को उनकी श्रद्धा और सत्प्रवृत्तियों से प्रसन्न होकर यदि सच्चा आशीर्वाद देते हैं तो वह सफल ही होते देखा जाता है। कभी−कभी कोई विरले प्रारब्ध ही ऐसे होते हैं, जो भोगने के अतिरिक्त और किसी प्रकार समाप्त नहीं होते। ऐसे कठिन प्रारब्ध भी सच्चे आशीर्वाद से बहुत हलके होकर आसानी से भुगत लिए जाने योग्य बन जाते हैं। सच्चे आशीर्वादों का महत्त्व सर्वविदित है। इसलिए कोई शुभ कार्य करते समय सत्पुरुषों का आशीर्वाद प्राप्त किया करते हैं। यदि वह मिल जाता है तो मंजिल बहुत सरल हो जाती है।

दिव्य शक्तियों का उच्च अनुदान

गायत्री उपासना की उच्चस्तरीय पंचकोशी साधन-शिक्षा प्राप्त करने वाले साधकों के लिए एक विशिष्ट आशीर्वाद का प्रेरणा-प्रवाह हम लोगों को उपलब्ध है। शक्ति-संचार साधना के नाम से गत वर्ष उसकी जानकारी साधकों को हो चुकी है। प्रत्येक रविवार को सूर्योदय से 1.5 घंटे पूर्व से लेकर आधा घंटे पूर्व तक के, एक घंटा समय में कोई उच्च-आत्माएँ अपने परिवार के लिए एक प्राण-प्रेरणा भेजती हैं। उसे हममें से कोई भी निर्बाध रूप से प्राप्त कर सकता है। गत वर्ष कुछ सीमित व्यक्तियों को इसका लाभ मिल सका था। सब साधकों के लिए प्रेरणा-प्रवाह उपलब्ध न था। पर इस वर्ष वह कठिनाई दूर हो गई है और उच्च आत्माओं का उतना प्रेरणा-प्रवाह उपलब्ध हो गया है कि हम में से कोई भी प्राणमयकोश की साधना करने वाला उसका लाभ उठा सकता है। गत वर्ष उसके लिए एक विशेष विधि भी भेजी गई थी। इस वर्ष इन्हीं पंक्तियों में अगले वर्ष का शक्ति-संचार विधान प्रस्तुत किया जा रहा है।

शक्तिसंचार-साधना विधिः−

(1) रविवार को प्रातःकाल सूर्य उदय होने से 2 घंटा पूर्व से लेकर आधा घंटा पूर्व तक और सायंकाल 9.30 से 10.30 तक का समय, इस साधना के लिए नियत है। प्रातःकाल के 1.5 घंटा और सायंकाल के एक घंटा, कुल 2.5 घंटा में से अपनी सुविधानुसार शक्तिसंचार-साधना के लिए नियत कर लेना चाहिए। इस साधना में स्नान करना अनिवार्य नहीं है। हाथ, पैर, मुँह धोकर बैठा जा सकता है।

(2) पालथी मारकर, मेरुदंड सीधा रखकर, नेत्रों को अधखुले रखकर ध्यानमुद्रा में बैठिए। दोनों हाथों को घुटनों पर रखिए। उत्तर दिशा में मुँह कीजिए।

(3) भावना कीजिए कि हिमालय जैसे उच्च स्थान से कोई दिव्य शक्ति हमें आशीर्वाद, प्रेरणा और प्रोत्साहन भरा प्राण-प्रवाह हमारे लिए भेज रही है और हम उसे श्रद्धापूर्वक अपने अंतःप्रदेश में धारण कर रहे हैं।

(4) धारणा कीजिए कि अन्तरिक्ष से एक शुभ्र वर्ण, पीत आभा वाला, भाप के बादलों जैसा प्राण-प्रवाह उमड़ता चला आता है। धुनी हुई रुई या हलकी बरफ जैसी या उफनते हुए दूध के झाग जैसी एक मृदुल विद्युतधारा अपने चारों ओर फैली हुई है। कुहरे की तरह उसने हमारे सब ओर की परिधि घेर ली है और हम उसके मध्य बैठे हुए आनंद एवं उल्लास का अनुभव कर रहे हैं।

(5) ध्यान कीजिए किसी दिव्य चेतना द्वारा प्रेरित यह प्राण-प्रवाह अपने सब इंद्रिय छिद्रों तथा रोमकूपों द्वारा शरीर के भीतर प्रवेश करके अपने अंग-प्रत्यंगों में संव्याप्त हो रहा है। उस प्रवाह के साथ−साथ अपने भीतर उच्च आस्था, श्रेष्ठ श्रद्धा, आशा, उत्साह, कोमलता, दया, विवेक, आनंद, उल्लास, नीति, धर्म, त्याग, संयम, परमार्थ आदि की उच्च भावनाएँ भी घुली हुई चली आ रही हैं और उन्हें उपलब्ध करके अपना अंतःकरण महापुरुषों जैसा उदार, महान, दूरदर्शी एवं आदर्शवादी बन रहा है।

(6) विश्वास कीजिए कि यह प्रवाह ईश्वरीय है— ऋषियों जैसी पवित्रता इसमें ओत-प्रोत है। यह शक्ति अपने भीतर प्रविष्ट होकर परमात्मा का पुण्य-प्रकाश अपने भीतर उत्पन्न कर रहा है, आत्मा की परिणति परमात्मा के स्वरूप में होती जाती है, इस दिव्य प्रवाह को प्राप्तकर अपना आत्म, परमात्म के अधिकाधिक निकट पहुँचता चला जा रहा है।

आधा घंटे में असाधारण उपलब्धि

प्रत्येक रविवार को नियत समय पर आधा घंटा इन भावनाओं से ओत-प्रोत रहने का स्वयं प्रयत्न करना और दूसरी ओर से अपने परिवार के लिए विशेष रूप से नियोजित, उच्च आत्माओं की प्रेरणा-व्यवस्था का स्वर्ण सुयोग प्राप्त करके सभी लोग निश्चय ही बहुत लाभ प्राप्त कर सकते हैं। साधारण साधना में केवल उतना ही लाभ होता है, जितना अपना पुरुषार्थ रहता है, पर इसमें एक ओर से अपना पुरुषार्थ और दूसरी ओर से उन आत्माओं द्वारा प्रेरित पुण्य प्राण−प्रवाह उपलब्ध होने से दूना लाभ होता है और अभीष्ट लक्ष्य सफलता की आशा अधिक सुनिश्चित बनती जाती है। इस साधना में हमारा भी एक सीमा तक प्रोत्साहन एवं सहयोग सन्निहित है।

अंग्रेजी महीनों के हिसाब से यह समय इस प्रकार रखा जाना चाहिए। दिसंबर, जनवरी, फरवरी प्रातः 5.30 से 7.00 तक, मार्च, अप्रैल, मई प्रातः 4.30 से 6.00 तक, जून, जुलाई, अगस्त 4.00 से 5.30 तक, सितंबर, अक्टूबर, नवम्बर 4.30 से 6.00 तक। रात्रि का समय सदा ही 9.30 से 10.30 रहेगा। प्रातःकाल या सायंकाल में से कोई एक ही समय नियत करना चाहिए।

गत वर्ष जिनने शक्तिसंचार की उपासना की है, उन्हें इस वर्ष उपरोक्त क्रम से व्यवस्था करनी चाहिए, जिनने अभी आरंभ नहीं किया है, उन्हें इसी विधान से अपना आरंभ कर देना चाहिए। इस एक साल के अनुभव के आधार पर यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि यह विधान पंचकोशी साधना की अन्य समस्त साधनाओं की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसका लाभ हममें से किसी को भी छोड़ना नहीं चाहिए।


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