अन्नमयकोश की द्वितीय वर्षीय साधना

October 1962

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अन्नमयकोश इस स्थूलशरीर को कहते हैं। असंयम और अनियमितता के कारण, प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करते रहने के कारण, आहार-विहार की मर्यादाएँ तोड़ने के कारण स्वास्थ्य संस्थान में विकृति आती है। यह विकृति जब तक सीमित मात्रा में रहती है, तब तक तो शरीर उसे बरदाश्त करते हुए किसी प्रकार अपना काम चलाता रहता है। पर जब उसकी मात्रा बहुत बढ़ जाती है और उसका सहज निष्कासन संभव नहीं रहता तो बीमारी के रूप में एक हड़ताली विद्रोह उठ खड़ा होता है।

विकृति का तात्कालिक समाधान

विज्ञ व्यक्ति वस्तुस्थिति को तभी संभालने का प्रयत्न करते हैं, जब विकृति के थोड़ा भी जमा होने के चिह्न दिखाई पड़ते हैं। शरीर में सुस्ती, थकान, आलस, कमजोरी का होना, आँख, कान, दाँत, आँत, मस्तिष्क आदि की शक्तियों का घटना इस बात का चिह्न है कि पाचनक्रिया, रक्तशुद्धि एवं सफाई की प्रक्रिया में कहीं गड़बड़ी उत्पन्न हो गई है। नया कार्यभार देना बंद करके कुछ दिन शरीर को विश्राम करने की व्यवस्था कर दी जाए और जिस अवयव में विकार उत्पन्न होता दिखाई दे उसकी सहायता करके संचित विकृति को हटा दिया जाए। आहार−विहार में जहाँ गड़बड़ी चल रही हो, उसे ठीक कर लेने से भी ऐसी विकृतियों का समाधान हो जाता है। अधिक विकार उत्पन्न होने की दशा में किसी चिकित्सा का सहारा लेना पड़ता है।

अन्नमयकोश को विकाररहित बनाए रखने के लिए प्राकृतिक जीवनयापन करने की पद्धति, बहुत ही निर्दोष और आध्यात्मिक आदर्शों के सर्वथा अनुकूल है। उपवास, बस्तिक्रिया एवं जल, मृत्तिका, उष्णता आदि के द्वारा पाँच तत्त्वों के उपचार एक प्रकार से योग-साधना के ही अंग हैं। प्राकृतिक चिकित्सा को अन्नमयकोश की एक सरल साधन-पद्धति भी कह सकते हैं। इस वर्ष मई अंक में निरोग रहने की क्रम-व्यवस्था और अगस्त अंक में रोग होने पर उसकी चिकित्सा कर सकने लायक आवश्यक जानकारी दी जा चुकी है। इसे सर्वसाधारण के लिए अन्नमयकोश की एक साधना ही समझना चाहिए।

स्वास्थ्य से मनोबल का संबंध

शरीर के निरोग और स्फूर्तिवान रहने से आध्यात्मिक उन्नति के आगामी कार्यक्रम सरल रहते हैं। जिनके पैर पहली ही सीढ़ी पर लड़खड़ाने लगते हैं, वे ऊपर की मंजिल तक कैसे पहुँच सकेंगे? इसलिए अध्यात्म मार्ग के पथिकों को सबसे पहले सबसे अधिक ध्यान शारीरिक निरोगता पर देना पड़ता है। भले ही पहलवान न बना जाए, पर साधक को शारीरिक कष्टों की व्यथा से मुक्त होना ही चाहिए, अन्यथा रोग-व्याधि में उलझा हुआ मन भजन-ध्यान में कैसे लग सकेगा? बीमार आदमी अपना संकल्प बल खींचता है, उसे सदा चिंता, निराशा, दीनता और कातरता घेरे रहती है। चित्त की स्थिरता तो उससे बन ही नहीं पड़ती। ऐसी दशा में गायत्री उपासना की विशिष्ट साधना तो क्या, सामान्य भजन-साधन भी बन नहीं पड़ता, जो किया जाता है वह चिह्नपूजामात्र रह जाता है।

इसीलिए हठयोग, राजयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग आदि सभी साधन मार्गों में अन्नमयकोश की साधना, आरोग्य-रक्षा पर बहुत अधिक जोर दिया है और नेति-धोति, बस्ति, वज्रोली, कपालभाति, न्योली, आसन, प्राणायाम, सूर्यनमस्कार, व्रत, उपवास, चांद्रायण, पैदल तीर्थयात्रा, परिक्रमा, नदीस्नान, तप, प्रतीक्षा आदि के अगणित विधान बताए हैं। उन्हें धर्म, पुण्य और ईश्वरप्राप्ति का साधन माना गया है, जबकि इसका प्रधान उद्देश्य स्वास्थ्य-रक्षा ही है। आरोग्य-रक्षा को अध्यात्म-साधना से भिन्न मानना भारी भूल है। दोनों का अत्यंत घनिष्ठ संबंध है। देह को नश्वर या भवबंधन समझकर उसकी उपेक्षा करना अविवेक का ही चिह्न है। शरीर को भगवान का मंदिर कहा गया है। अपने इष्टदेव के मंदिर की तोड़-फोड़ करना, गंदा-गलीज बनाना किसी भावनाशील भक्त के लिए शोभा नहीं देता।

शरीर भगवान का देवमंदिर

जो देवमूर्ति की तो पूजा किया करे, पर उसके निवास मंदिर को अपवित्र और क्षतिग्रस्त बनाता रहे, उस भक्त की कौन प्रशंसा करेगा? इसलिए साधना-पथ के पथिकों को उनके मार्गदर्शक वह शिक्षा दिया करते हैं, जिससे उनका शरीर निरोग, सक्रिय और स्फूर्तिवान बने। प्राचीन गुरुकुलों में छात्रों की शिक्षा में उनके स्वास्थ्य पर बारीकी से ध्यान दिया जाता था। योगाभ्यास का आरंभ भी यहीं से होता है। अन्नमयकोश को गायत्री की उच्चस्तरीय साधना में प्रथम स्थान मिला हुआ है। वस्तुतः यह विषय प्राथमिकता देने योग्य ही है। गायत्री तपोभूमि की गतिविधियों में, साधन-प्रक्रियाओं में आरोग्य-रक्षा पर समुचित ध्यान दिया जाता है और उसका समुचित कार्यक्रम भी बन रहा है।

गत वर्ष 'अक्टूबर' अंक में अन्नमयकोश की साधना के लिए तपश्चर्या की ओर साधकों का ध्यान आकर्षित किया गया था और इसके लिए ‘अस्वाद व्रत’ की सरल साधना बताई गई थी। सप्ताह में कम-से-कम एक दिन ऐसा रखना, जिसमें नमक और मीठा दोनों ही स्वाद छोड़ रखे जाएँ, स्वाद विजय के लिए एक कारगर उपाय माना गया है। जिनके लिए संभव है, वे अधिक दिनों तक लगातार नमक या मीठा अथवा दोनों ही छोड़ सकते हैं। इनके छोड़ने से हानि कुछ नहीं, लाभ बहुत है। जितना नमक और शक्कर शरीर के लिए आवश्यक है, उतना अन्न, शाक, दूध आदि में पहले से ही मौजूद है। बाहर से जितनी मात्रा में इन्हें स्वाद के लिए मिलाते हैं, वह अनावश्यक ही नहीं, हानिकर भी होता है। स्वाद के लोभ में मनुष्य अधिक मात्रा में अनुपयुक्त चीजें खा जाता है। यदि यह मिलावट न हो तो केवल वे ही चीजें खाई जा सकेंगी, जो अपने शरीर के लिए उचित एवं उपयुक्त हैं। साथ ही बिना स्वाद का भोजन कोई विशेष आकर्षक न होने के कारण भूख से ज्यादा भी न खाया जा सकेगा। इतना प्रतिबंध रहने पर आरोग्य की आधी समस्या हल हो जाती है। अस्वस्थता का आधा कारण आवश्यकता से अधिक मात्रा में अनुपयुक्त वस्तुओं को खाते रहना ही है। यह नियंत्रण बन पड़े तो दवाओं का आधा खरच और शरीर का आधा कष्ट सहज ही समाप्त हो सकता है।

मन और इंद्रियों का निग्रह

इंद्रियनिग्रह का महत्त्व और महात्म्य अध्यात्म मार्ग में अत्यधिक बताया गया है। इसका अभ्यास करने के लिए कुछ व्यवस्थित क्रम बनाना पड़ता है। दसों इंद्रियों में स्वादेंद्रिय और कामेंद्रिय यह दो ही प्रधान एवं प्रबल मानी गई हैं। इन दो के वश में हो जाने पर शेष आठ तो सहज ही वशवर्त्ती बन जाती हैं। इन प्रबल दो इंद्रियों में कुछ आपसी तालमेल ऐसा है कि स्वादेंद्रिय के वश में हो जाने से कामेंद्रिय की प्रबलता स्वयमेव नष्ट हो जाती है। ब्रह्मचर्यपालन में जिसकी अभिरुचि हो, जो उसका महत्त्व समझते हों, उन्हें अस्वाद व्रतपालन करना चाहिए। चटोरा आदमी अपनी जीभ को ही नहीं, अन्य सभी इंद्रियों को चटोरी, अनियंत्रित बना लेता है। जिसका मन तरह-तरह के चटपटे, मीठे, जायकेदार व्यंजन चखने के लिए ललचाता रहता है, जिनकी जीभ जायके के लिए लार टपकाती रहती है, उनकी अन्य नौ इंद्रियाँ कभी काबू में नहीं आ सकतीं और न मन ही एकाग्र हो सकता है। इसलिए साधक को मन पर अंकुश लगाने की पूर्व भूमिका के रूप में जीभ पर अंकुश लगाना पड़ता है। वह स्वाद को जीतने के लिए एक शूरवीर योद्धा की तरह अपनी संकल्पशक्ति को तलवार बनाकर साधन-समर में उतरता है और काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर के षडरिपुओं के पहिले किले ‘असंयम’ पर धावा बोल देता है। यह पहला मोर्चा फतह होने पर आगे की लड़ाई बहुत सरल हो जाती है।

लोलुपता का सर्वव्यापी प्रभाव

चटोरेपन में गरीबी और अमीरी कारण नहीं। अमीर लोग कीमती प्रकार की कटोरियाँ सजाते हैं। गरीब लोग मिर्च की चटनी की लुगदी जैसी बनाकर रोटी पर रख लेते हैं और उसे जलती जीभ के ऊपर होकर गले उतारते हैं, गुड़ की आवश्यक मात्रा खाए बिना उनका भी काम नहीं चलता। समय-कुसमय भुने चना-मटर खाने से उनका भी मुँह चलता रहता है। अमीर लोगों की यह आदत कीमती खाद्य पदार्थों से तृप्त होती है। गरीब सस्ती चीजों से काम चलाते हैं। यह सस्ते और महँगे का भेद छोड़ दिया जाए तो चटोरेपन की दृष्टि से दोनों समान स्थिति के होते हैं। यह मानसिक दुर्बलता सभी क्षेत्रों में व्याप्त है इसलिए उसके निराकरण का प्रयत्न भी सभी लोगों को करना चाहिए। स्वास्थ्य की आवश्यकता के अनुरूप नमक, शक्कर, नींबू आदि को औषध रूप में लेना एक बात है और चटोरेपन से प्रेरित होकर अंट-शंट चीजें उदरस्थ करते रहना बिलकुल दूसरी स्थिति है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों की सलाह से तो आवश्यकतानुसार विष, धातुएँ और नशे भी शोधित और सीमित मात्रा में सेवन कर लिए जाते हैं, पर व्यसन के रूप में उनका मनमाना उपयोग अहितकर ही होता है। स्वाद की दृष्टि से खाया हुआ नमक और मीठा भी अंततः स्वास्थ्य को बिगाड़ने वाला ही सिद्ध होता है। अपच, मलावरोध, जिगर, तिल्ली, दंतक्षत, दिल की धड़कन, वायुविकार, खून-खराबी आदि अनेक बीमारियों का कारण भी इनका अधिक मात्रा में सेवन करना ही होता है। इन जंजालों से छुटकारा पाने के लिए हर साधक को स्वाद जीतने का प्रयत्न करना ही चाहिए। मन को वश में करने के लिए भी यह अभ्यास एक बहुत ही उपयुक्त साधन सिद्ध होता है।

सात्त्विक अन्न से उत्कृष्ट मन

अन्न से मन बनता है। जैसे संस्कारों का अन्न खाया जाता है, मन की प्रवृत्ति वैसी ही बन जाती है। मन को शुद्ध, संयमी, स्थिर और सन्मार्गगामी बनाने का प्रधान उपाय अन्न पर संयम करना है। अभक्ष खाने वाले, माँस, मदिरा, नशेबाजी में ग्रस्त मनुष्य आत्मकल्याण के मार्ग पर दूर तक चल सकेंगे, यह संदिग्ध है। जिह्वा का चटोरापन मन में उसी प्रकार चंचलता उत्पन्न करता है, जिस प्रकार तेज हवा चलने से जलाशय में लहरें उठने लगती हैं। अनीति की कमाई की रोटी खाने वाला, वह आंतरिक स्वच्छता कैसे प्राप्त कर सकेगा, जिसमें भगवान का विराजमान हो सकना संभव होता है। साधना का प्रथम चरण अन्न की शुद्धि है। दूध, मलाई खाकर शरीर मोटा हो सकता है, पर मन को निर्मल बनाने के लिए अन्न में सात्त्विकता की आवश्यक मात्रा का मिला होना आवश्यक है।

पिछले वर्ष स्वाद पर नियंत्रण करने के लिए सप्ताह में एक बार नमक, शक्कर का त्याग करने के लिए उच्चस्तरीय पंचकोशी साधना के साधकों को शिक्षण दिया गया था। एक वर्ष में 52 दिन वह अस्वाद व्रतपालन कर लेने वालों को उसमें आवश्यक आनंद मिलना शुरू हो गया होगा। कुछ दिन ही जीभ बदमाशी करती है। फीका, अलौना भोजन करने में बहुत नाक-भौं सिकोड़ती है और कई बार तो स्वास्थ्य पर असर पड़ने की बहानेबाजी भी गढ़ लेती है। कई लोग कब्ज रहने, कमजोरी आने आदि की कल्पना करने लगते हैं, जबकि सच बात यह है कि नमक-शक्कर की अनावश्यक मात्रा से अनेक प्रकार के रक्त, हृदय और पेशाब संबंधी रोग उत्पन्न होते हैं और अस्वादव्रतपालन करने से रक्त इतना शुद्ध हो जाता है कि साँप के काटने तक का असर उस पर नहीं होता। स्वास्थ्य में उसका प्रभाव निश्चित रूप से सुधारात्मक होता है। एक वर्ष में यह प्रयोग भले ही 52 दिन ही क्यों न किया हो, पर प्रयोगकर्त्ताओं ने यह अनुभव किया होगा कि उनकी भावनाएँ उससे बहुत शुद्ध हुई हैं, स्वास्थ्य सुधरा है और मन पर नियंत्रण करने से एक सीमा तक प्रसन्नतादायक सफलता मिली है। अस्वाद व्रत का आनंद जिसे एक बार मिलने लगा, वह उसे छोड़ देने की बात सोच भी नहीं सकता।

इस वर्ष के लिए दो व्रत

आहार को हमें पूर्ण सात्त्विक बनाने का लक्ष्य सामने रखकर चलना होगा। ठीक है कि यह मंजिल एक दिन में पूरी नहीं हो सकती। धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए ही इस यात्रा को पूरा करना पड़ेगा। गत वर्ष सप्ताह में एक दिन का अस्वाद व्रत बताया गया था, पर अन्नमयकोश की शुद्धि के लिए इतने से ही काम नहीं चलने वाला है। अब इस वर्ष हमें एक कदम और बढ़ाना है। (1) अस्वाद व्रत को एक के बजाय सप्ताह में दो बार रखा जा सकता है और (2) थाली में अनेक प्रकार की वस्तुएँ न रखकर उनकी मात्रा को सीमित कर देना, यह दो बातें इस दूसरे वर्ष के साधनक्रम से हमें सम्मिलित कर लेनी चाहिए। अस्वाद व्रत रविवार के लिए रखा गया था, क्योंकि वह गायत्री के देवता सविता का दिन है। उस दिन का व्रत आध्यात्मिक दृष्टि से भी विशेष फलप्रद है। पर जिनके लिए वह दिन असुविधाजनक पड़ता है, वे अन्य किसी दिन की व्यवस्था बनाते रहे हैं। इस वर्ष 'रविवार' और 'गुरुवार' को अस्वाद व्रत रखना चाहिए। पर जिन्हें इन दिनों में असुविधा पड़ती हो, वे इनकी बजाय कोई दूसरे दो दिन भी नियत कर सकते हैं।

अनेक प्रकार के व्यंजनों से हानि

आरोग्यशास्त्र का यह सुदृढ़ नियम है कि भोजन में एक समय एक साथ अनेक प्रकार की वस्तुएँ न होनी चाहिए। हर वस्तु का पाचनकाल न्यूनाधिक होता है। उनके लिए पाचक-रसों की आवश्यकता भी पृथक प्रकार की रहती है। यदि अनेक प्रकार के व्यंजन बनाकर एक साथ खाए जाएँगे तो उसका हाल उस खिचड़ी जैसा हो जाएगा, जिसमें आध घंटे से लेकर छह घंटे तक पकने वाली चीजें इकट्ठी करके पकाई जा रही हैं। इनमें से कुछ चीजें कच्ची रह जावेंगी। जिस थाली में अनेकों कटोरियाँ होंगी, अनेकों व्यंजन परोसे गए होंगे, वह स्वास्थ्य की दृष्टि से खाने वाले के लिए उस बढ़ी हुई संख्या के अनुपात से ही हानिकर होंगी। संत महात्मा बहुधा एक ही वस्तु खाते हैं। यदि कई प्रकार की चीजें उन्हें खानी पड़ें तो आपत्ति धर्म की तरह उन सबको इकट्ठी करके उनकी संख्या एक कर लेते हैं और अनेक स्वादों को नष्टकर एक ही स्वाद बना लेते हैं। इस आदर्श के पीछे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के सुधारने का एक बड़ा ही महत्त्वपूर्ण तथ्य सन्निहित है। भोगों को, स्वादों को सीमित करना, मन को वश में करने का, इंद्रियनिग्रह का एकमात्र उपाय है। भोजन में जितने अधिक प्रकार की वस्तुओं का समावेश किया जाएगा, उतनी ही पाचनक्रिया खराब होगी, उतना ही खरच बढ़ेगा और उतना ही मन चंचल होगा। इसलिए संयम का अवलंबन करते हुए ही साधन-पथ के पथिक को अग्रसर होना पड़ता है। चटोरा व्यक्ति मन को कभी संयम में ला सकेगा, इसमें संदेह ही है।

कटोरियों की संख्या घटे

जिनकी आर्थिक स्थिति थोड़ी सुधरी हुई है, वे आमतौर से भोजन की शान इस बात में समझते हैं कि उसमें कितनी ही कटोरियाँ सजी हुई हों। कितने ही प्रकार के शाक, दाल, भात, रायते, अचार, चटनी, पापड़, मिठाई, पकौड़ी, नमकीन आदि के कितने ही तरह के स्वाद उन्हें पसंद लगते हैं। इस शान और शेखीखोरी को हमें चटोरेपन और असंयम का, विलासिता और चंचलता का चिह्न मानना चाहिए। सादगी ही सभ्यता का चिह्न माना गया है, यह सादगी भोजन में भी रहनी ही चाहिए। अन्नमयकोश का परिशोधन करने की उच्चस्तरीय गायत्री साधना का हमारा प्रथम प्रयास ही लड़खड़ाने लगेगा, यदि इतना भी न बन पड़ा तो आगे जो कठिन तपश्चर्याएँ करने का अवसर प्रस्तुत होगा, उसे किस प्रकार किया जा सकेगा?

भोजन में दो वस्तुएँ रहना पर्याप्त है। एक खाने की वस्तु, दूसरी लगाने की। रोटी-शाक, रोटी-दाल, भात-दाल जैसी किन्हीं दो वस्तुओं का जोड़ा मिला लेने से एक खाने की प्रधान वस्तु और दूसरी सहायक का जोड़ा आसानी से बन जाता है। हर भोजन में वस्तुएँ बदली जा सकती हैं, पर उनकी संख्या दो ही हों। जिस प्रकार पति और पत्नी की दो तक ही कामसेवन की मर्यादा सीमित रहती है, उसी प्रकार स्वादसेवन के लिए भी दो का जोड़ा पर्याप्त है। कोई यह न सोचे कि इसका स्वास्थ्य पर कुछ बुरा असर पड़ेगा। इससे पाचनक्रिया तो सुधरेगी ही, मन भी बहुत संयमी बनेगा। संयमी मन जितना पारलौकिक सद्गति के लिए आवश्यक होता है, उतना ही लौकिक-समृद्धि और सफलताएँ उपलब्ध करने के लिए भी उपयोगी है। चंचलता मिटाकर एकाग्रता उत्पन्न करने के लिए यदि इतना त्याग करना पड़ता है तो उसे कोई बहुत बड़ी बात नहीं मानना चाहिए।

धीरे-धीरे भी चला जा सकता है

जो लोग अधिक चटोरे हैं, जिन्हें इतना त्याग कर सकना कठिन मालूम पड़ता है, वे इतना तो करें ही कि भोजन में जितनी संख्या में वस्तुएँ रहती हैं, उसकी संख्या अबकी अपेक्षा घटा लें और उनकी सीमा निर्धारित कर लें। तीन-चार से अधिक तो यह संख्या किसी भी प्रकार नहीं होनी चाहिए। इस वर्ष एक साथ खाए जाने वाले पदार्थों की संख्या चार या तीन रखें तो उन्हें घटाते हुए आगे वर्षों में दो ही कर लेने का लक्ष्य रखना चाहिए। अन्नमयकोश की साधना का द्वितीय वर्षीय साधनक्रम (1) एक सप्ताह में दो दिन नमक-शक्कर छोड़कर अस्वादक्रम का पालन और (2) भोजन में एक बार में खाद्य वस्तुओं की संख्या दो तक सीमित रखना, यह दो बातें रखी गई हैं। दुर्बल मनोभूमि वाले एक सप्ताह में एक बार अस्वाद व्रत रखते हुए और भोजन में वस्तुओं की संख्या तीन या चार रखते हुए भी धीरे-धीरे आगे बढ़ सकते हैं।


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