आनन्दमयकोश और उसका अनावरण

October 1962

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आनन्दमयकोश गायत्री माता के पाँच मुखों में से अंतिम मुख है। प्रेम, आत्मीयता और एकता में ही आनंद सन्निहित है। साधन-सामग्री की—धन-संपत्ति की उपलब्धि में कई लोग आनंद की अभिलाषा करते हैं, कई का अनुमान होता है कि वासनाओं एवं तृष्णाओं की पूर्ति का साधन जुट जाने से उन्हें आनंद प्राप्त होगा, पर यह कल्पनाएँ अंततः मिथ्या ही सिद्ध होती हैं। जिनके पास प्रचुर धन-ऐश्वर्य भरा पड़ा है, उन्हें भी खिन्न और असंतुष्ट देखा जाता है। वासनाएँ और तृष्णाएँ कभी तृप्त नहीं होती हैं। एक इच्छा पूर्ण होते−होते उससे अनेक गुनी तीव्र आकांक्षा जागृत हो उठती है और पहले जितना अभाव अनुभव होता था, अब नया अभाव उससे भी कई गुना असंतोष उत्पन्न किए रहता है। आग पर तेल डालने से जैसे वह बुझती नहीं, वरन और अधिक भड़क उठती है, उसी प्रकार भोगों की, वस्तुओं की मनमानी प्राप्ति हो जाने पर भी किसी को संतोष नहीं होता। सुख किसी पदार्थ में नहीं रहता, वह तो मन की एक वृत्ति है, जो संतोष के साथ जुड़ी रहती है। स्वल्प साधनों में भी संतुष्ट रह सकना संभव है। कठिनाइयों के बीच भी अनेकों को मुस्कुराते और धैर्यपूर्वक कर्त्तव्यपालन करते रहते देखा गया है।

आनंद की अनुभूति

इस संसार में आनंद की अनुभूति का एक ही स्थान है— ‛प्रेम’। जिस किसी वस्तु में, जिस किसी कार्य में, जिस किसी व्यक्ति में, जिस किसी विचार में हमें प्रेम हो जाता है, अपनापन अनुभव होने लगता है, उसी की समीपता आनंद का आस्वादन कराने लगती है। परायी वस्तुएँ चाहे कितनी ही उत्तम क्यों न हों, हमें प्रिय नहीं लगतीं, किंतु अपनी घटिया चीजें भी आनंद उल्लास देने लगती हैं। सच बात यह है कि हमें अपनी आत्मा ही प्रिय है। यह आत्मभाव जितने क्षेत्र में व्यापक और विस्तृत होता जाता है, उतना ही अपना आनंद भी व्यापक होने लगता है। यदि हम सारे संसार को, विश्व के समस्त प्राणियों को अपना मानें तो निश्चय ही यहाँ जो कुछ भी है, वह सब प्राणप्रिय लगने लगेगा। घृणा और तिरस्कार योग्य कोई वस्तु न लगेगी। जहाँ पाप और गंदगी भी हो, वहाँ उसे अपने लिए सफाई और सेवा का एक आवश्यक कर्त्तव्य जैसा अनुभव होगा। अस्पताल में मरीजों को भरा देखकर डाक्टर न तो घृणा करता है और न विचलित होता है, वरन अधिक करुणा से, अधिक कर्त्तव्यपरायणता से प्रेरित होकर अधिक तत्परतापूर्वक जुटता है। मरीजों की अधिक सेवा करने को वह अपना सौभाग्य और अधिक श्रेय प्राप्त करने का एक स्वर्ण सुयोग मानता है। इस संसार में भरी हुई गंदगी, और बुराई से कोई आध्यात्मिक व्यक्ति विचलित नहीं होता, वरन अधिक सेवा के लिए अधिक तत्परतापूर्वक सफाई करने को एक आवश्यक जिम्मेदारी समझकर उस ओर वह प्रेम और प्रसन्नतापूर्वक, तन्मयता और तत्परतापूर्वक कार्यसंलग्न हो जाता है। सेवा में भी रुचि उसे तभी आती है, जब उसे अपना कर्त्तव्य मानता है। आनंद तो अपनेपन में ही है।

मन लगने और न लगने का कारण

ईश्वर उपासना में मन केवल उसी का लगता है, जो परमात्मा को अपना सगा, स्वजन, संबंधी, अत्यंत घनिष्ठ आत्मीयजन मानता है। मीरा को अपने ‘गिरधर गोपाल’ तभी प्राण प्रिय लगते थे, जब वह उन्हें अपना सचमुच का विवाहित पति मानती थी। रामकृष्ण परमहंस माता के प्रेम में आनंदविभोर तभी हो पाते थे, जब वह उसे अपनी सगी जननी अनुभव करते थे। उन्हीं भक्तों ने भगवान को अपने निकट देखा और साक्षात्कार किया है, जिन्होंने अगाध प्रेम के साथ घनिष्ठ आत्मीयता के बंधनों में अपने इष्टदेव को आबद्ध किया है। अभी भी ऐसे अगणित ईश्वरभक्त हैं, जिनको अपने इष्टदेव पर अगाध श्रद्धा है और वे कठिनाइयों, असफलताओं और आपत्तियों में भी भगवान की अपार करुणा अनुभव करते हैं। वस्तुतः उन्हीं का प्रेम सच्चा है, जो प्रस्तुत सुख को ईश्वर की दया और आगत दुःख को दैवी कृपा मानते हैं। अपने से किसी को भला क्या शिकायत हो सकती है। अपना बच्चा गाली देता है तो भी उसकी तोतली बोली कोयल की तरह मीठी लगती है। माता की चपत खाकर भी कौन बालक उसकी गोदी का परित्याग करता है? सुख के लिए ईश्वर की स्तुति और दुःख के लिए भर्त्सना करने वाले खुदगरज लोग वस्तुतः प्रेमतत्त्व से अनभिज्ञ ही हैं।

एकात्मभाव की ध्यान-साधना

गत वर्ष ईश्वर के प्रति— गायत्री माता के प्रति—आत्मीयता, एकता, तन्मयता और अनन्यता उत्पन्न करने वाली एक ध्यान-साधना बताई गई थी। और कहा गया था कि, ‟गायत्री जप करते हुए अपने को एक वर्ष के बालक के रूप में निर्मल, निष्काम मानना चाहिए और गायत्री माता को अपनी सगी जननी मानकर उसके साथ क्रीड़ा-विनोद करने, पयपान एवं स्नेह पाने की ध्यान-धारणा करनी चाहिए, इस ध्यान के साथ जिन लोगों ने जप किया है, उनके आनंद में वृद्धि हुई है, मन लगा है और यह शिकायत दूर हो गई है कि चित्त नहीं लगता। मन प्रेम का गुलाम है। जो भी वस्तु प्यारी लगती है, मन भाग−भागकर वहीं जाता है। रूखे, नीरस, व्यर्थ और उपेक्षणीय समझे जाने वाले कार्यों में ही मन नहीं लगता। यदि गायत्री माता के प्रति सचमुच ही अपनी आत्मीयता एवं भक्तिभावना हो तो उनके चरण छोड़कर मन अन्यत्र जाना ही न चाहेगा। हमें ऐसे सहस्रों उपासकों की स्थिति का परिचय है, जो तन्मयतापूर्वक भावविभोर होते हैं और जिन्हें उस परम तत्त्व की समीपता अहिर्निश अनुभव होती रहती है। इसमें उनका श्रद्धा-विश्वास ही प्रधान कारण है।

ध्यान-धारणा का सीमाबंध

इस वर्ष इस प्रेम और आत्मीयता की, आनंदमयकोश का अनावरण करने वाली साधना का अगला पाठ हमें पढ़ना है। गत वर्ष माता और पुत्र के क्रीड़ा-विनोद के एक बड़े चौड़े दायरे में ध्यान करने की गुंजाइश थी। आगे−आगे इस दायरे को छोटा और सीमित करते चलना पड़ेगा। इस वर्ष सूर्यप्रकाश मध्य गायत्री माता के मुखमंडलमात्र का ध्यान करना पड़ेगा और उनके दाहिने नेत्र में जो ज्योतिबिंदु काला तिल है, उस पर अपना ध्यान एकाग्र करना होगा। आरंभ में कुछ दिनों यह तिल काला ही दिखाई देगा। पर पीछे धीरे−धीरे जैसे−जैसे एकाग्रता बढ़ती जाएगी, इसमें प्रकाश अनुभव होने लगेगा। कालापन घटकर सफेदी बढ़ेगी और कुछ दिन बाद मुखमंडल या काला तिल न दीखकर केवलमात्र प्रकाशपुंज ही दीखने लगेगा। प्रकाश ज्योति के रूप में—सविता के भर्गो रूप में जब ध्यान एकाग्र होने लगता है और पहले जैसी साकार मूर्त्ति की आवश्यकता अनुभव नहीं होती तो यह माना जाता है कि अब साधक निराकार साधना के उपयुक्त मनोभूमि उपलब्ध कर सका।

द्वैत से अद्वैत की ओर

प्रतिमा का स्थान ज्योति को प्राप्त हो जाए, ऐसी स्थिति आने में कुछ दिन लगते हैं। बहुत दिन तक सम्मिश्रित रूप चलता रहता है, कभी प्रतिमा, कभी ज्योति वह द्विधा स्थिति वैसी ही है, जैसी संध्याकाल में दिन और रात का अधूरा सम्मिलन होता है। प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त्त में कुछ रात्रि का अंधकार शेष रहता है। कुछ दिन का प्रकाश आरंभ हो जाता है। साकार और निराकार का—प्रतिमा और प्रकाश का ऐसा ही ब्रह्ममुहूर्त्त जैसा सामंजस्य इस वर्ष पंचकोशी साधना के साधकों को अनुभव होगा। इससे अगले वर्ष विशुद्ध प्रकाश-ज्योति के दिव्य दर्शन के लाभ का सुअवसर सभी निष्ठावान् साधकों को प्राप्त होगा। जिनको इसमें कठिनाई होगी, उन्हें घृत-दीपक पर त्राटक करके आज्ञाचक्र में तृतीय नेत्रोन्मीलन वाली साधना का विधान बताकर दिव्य ज्योति के साक्षात्कार का मार्ग सरल कर दिया जाएगा। भ्रू-मध्य भाग में तीसरा दिव्य नेत्र रहता है। शंकर, दुर्गा आदि के चित्रों में भृकुटी स्थान पर एक तीसरा—तिरछा नेत्र बना हुआ देखा जाता है। यह हर मनुष्य के आज्ञाचक्र में भी प्रसुप्त पड़ा रहता है। यह जब ज्योतिर्मय हो जाता है तो सूक्ष्मजगत की महत्त्वपूर्ण संभावनाएँ एवं अदृश्य अनुभूतियाँ सहज ही परिलक्षित होने लगती हैं। ऐसे व्यक्ति को देश, काल, पात्र आदि के आवरणों को वेधकर बहुत-सी उन अज्ञात बातों को जान लेना संभव होता है, जो साधारण मनुष्य को रहस्यमय एवं अलौकिक ही प्रतीत होती हैं।

ज्योतिर्मयी का दिव्य दर्शन

गायत्री माता के ज्योतिर्मय मुखमंडल का ध्यान करते हुए, उनके दाहिने नेत्र के काले तिल का ध्यान करना और उसमें से प्रकाश स्फुल्लिंग निकलते हुए अनुभव करने का ध्यान ऊपर बताया गया है। इस प्रकाश के प्रति वैसी ही श्रद्धा-भावना होनी चाहिए, जैसी किसी प्रत्यक्ष देवता के ज्योतिर्मय शरीर में प्रकट होने के समय भक्त के मन में हो सकती है। यदि श्रद्धा में न्यूनता रही तो केवल रोशनीमात्र दिखेगी और उस दिव्य दर्शन के समय जो आह्लाद अंतःकरण में उठना चाहिए, वह न उठेगा। अनुभव करना चाहिए कि ज्योतिर्मय होकर प्रकाश स्फुल्लिंगों के रूप में माता ही अपने सामने प्रस्तुत हो रही हैं और हम श्रद्धापूर्वक उस दिव्य दर्शन का परम संतोष, आनंद एवं उल्लास प्राप्त कर रहे हैं।

इस प्रकाश को अपने भीतर प्रवेश करते हुआ और अपनी आत्मा को इस ‘तेजस्’ में तादात्म्य होता हुआ अनुभव करना चाहिए। जिस प्रकार लोहा अग्नि में पड़कर लाल हो जाता है, उसी प्रकार हमें भावना करनी चाहिए कि माता ज्योतिर्मयी के साथ हमारा तादात्म्य हो रहा है। उनका हममें और हमारा उनमें तादात्म्यभाव— एकीकरण हो रहा है। हम दो न रहकर एक हो रहे हैं। द्वैत मिट रहा है और अद्वैत की सिद्धि की ओर प्रगति हो रही है। अणु से विभु के रूप में—नर से नारायण रूप में—पुरुष से पुरुषोत्तम रूप में परिणत होने के लिए इस प्रकाश-ज्योति की भट्टी में पड़े हुए स्वर्ण की तरह हम अपने आपको निर्मल बना रहे हैं।

क्रिया के स्थान पर भावना की वृद्धि

यह ध्यान आनंदमयकोश की साधना के लिए प्रातःकाल किया जाना चाहिए। जप के साथ यह ध्यान चलता रह सकता है। माला लेकर इस ध्यान को करने में कठिनाई पड़ती हो तो नित्य-नियम की एक माला फेरने के बाद मानसिक जप और ध्यान का कार्यक्रम बना लेना चाहिए। यह पहले ही बताया जा चुका है कि इस उच्चस्तरीय साधनाक्रम में शारीरिक क्रियाएँ घटती जाती हैं और मानसिक धारणा-ध्यान का क्रम बढ़ता जाता है। पंचकोशों की साधना करते हुए इस वर्ष तो नहीं, पर अगले वर्षों में एक माला नियमित गायत्री जप और नवरात्रियों के दो लघु अनुष्ठान, इतना ही कार्यक्रम शेष रह जाता है, बाकी तो सब कुछ धारणा और ध्यान क्षेत्र में ही श्रम करना पड़ता है।

दृष्टिकोण का परिमार्जन

प्रेम और आत्मीयता की भावना से हर किसी को देखना, सबमें इस ज्योतिर्मयी की आभा निहारना और सबके प्रति श्रद्धा-सम्मान के भाव रखना, यह प्रयोग निरन्तर करते रहना चाहिए। जिस वस्तु को भी, जिस व्यक्ति को भी, जिस प्राणी को भी देखें, उसे प्रेम और ममता की भावना से देखें। उसमें गुण ढूंढें और प्रभु की पुनीत रचना अनुभव करते हुए उसके सान्निध्य का आनंद लाभ करें। बुराइयों को मिटाना और घटाना आवश्यक है। पाप के विरुद्ध संघर्ष करना ही कर्त्तव्य है। पर यह संघर्ष करते हुए भी पापी या कुमार्गगामी को केवल भूला−भटका अज्ञानी बालक ही मानना चाहिए। हमें पाप से घृणा करनी चाहिए, पापी से नहीं। रोग को नष्ट करना चाहिए, रोगी को नहीं। इस संसार में न कोई पूर्णतया पापी है और न पूर्ण पुण्यात्मा। सबमें न्यूनाधिक मात्रा से गुण-दोष मौजूद हैं। सभी में सीखने योग्य और प्रसन्न होने योग्य बहुत कुछ मौजूद है और सभी को किसी-न-किसी रूप में सुधार करने की आवश्यकता है। ऐसी दशा में सुधार के आवश्यक प्रयत्न करते हुए भी हमें तीव्र घृणा से बचना चाहिए। सुधार की पुण्य-प्रक्रिया घृणा से नहीं, प्रेम से ही संभव हो सकती है। प्रेम और आत्मीयता का दृष्टिकोण दिन−दिन अधिक व्यापक बनाते हुए हमें आनंदमयकोश की साधना को सफल बनाना चाहिए।

घर में तपोवन

गृहस्थ में रहते हुए विरक्त योगी की तरह रह सकना हर किसी के लिए संभव हो सकता है। कर्त्तव्य-कर्मों को एक साधना-पद्धति का अंग मानते हुए धर्म और नीति का मार्ग पकड़े रहने वाले कर्मयोगी के लिए घर ही तपोवन की तरह शांतिमय हो सकता है। ओछे दृष्टिकोण के कारण मन में जो कुविचार उठते हैं और शरीर से दुष्कर्म बनते हैं, उन्हीं के कारण जीव भवबंधनों में बँधता है। यदि अपनी भावनाएँ अध्यात्म दृष्टिकोण से ओत−प्रोत रखते हुए गृहस्थ जीवन का सुलझे हुए दृष्टिकोण से संचालन किया जाए तो हम जीवनमुक्ति की स्थिति में रह सकते हैं और इस धरती पर ही निवास करते हुए स्वर्गीय सुख−शांति का प्रत्यक्ष दर्शन कर सकते हैं। इसी स्थिति तक साधक का पहुँचना पंचकोशी, पंचमुखी गायत्री साधना का उद्देश्य है। हमें इस मार्ग पर चलने का साहस प्राप्त हो, यही सर्वशक्तिमान सत्ता से प्रार्थना है।


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