सद्बुद्धि और आत्मबल की दिव्य विभूति

October 1962

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आत्मकल्याण के लिए जिस प्रकार सांसारिक साधनों की, धनबल, जनबल, शरीरबल, बुद्धिबल आदि की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार आत्मबल भी नितांत आवश्यक माना गया है। आत्मबल के अभाव में अन्य समस्त बल होने पर भी अपूर्णता ही बनी रहती है। इस अपूर्णता के कारण उसे भीरुता, आशंका, दुश्चिंता, भ्रांति, दीनता, कायरता, तृष्णा, कामना, वासना, निष्ठुरता, संकीर्णता, दुर्बुद्धि, दुष्प्रवृत्ति आदि अगणित विभीषिकाएँ घेरे रहती हैं। ऐसा व्यक्ति कितने ही अधिक साधनों से संपन्न क्यों न हो, अपने को सदा अभावग्रस्त ही अनुभव करेगा और अनेकों आशंकाएँ उसकी आंतरिक शांति को नष्ट करती रहेंगी।

उपासना का आध्यात्मिक पुरुषार्थ

जिस प्रकार मनुष्य को धन, विद्या, स्वास्थ्य आदि की कमी दूर करने के लिए अनेकों प्रयत्न, पुरुषार्थ करने पड़ते हैं, उसी प्रकार आत्मबल की पूर्ति के लिए उपासना का अवलंबन ग्रहण करना पड़ता है। उपासना मानव जीवन-प्रगति का एक अत्यन्त आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण अंग है; इसलिए संसार के सभी धर्मों ने, सभी ऋषियों और सभी शास्त्रों ने, उपासना को मनुष्य का एक दैनिक एवं अनिवार्य धर्मकर्त्तव्य माना है। हिंदू धर्म तो इस संबंध में और भी अधिक जोर देता है। उसने स्थान−स्थान पर जहाँ उपासना का महत्त्व वर्णन किया, वहाँ उसकी उपेक्षा करने वालों की भर्त्सना में भी कमी नहीं रखी है। प्राचीनकाल में एक अस्पर्श और बहिष्कृत वर्ग भी होता था, जिन्हें अंत्यज कहते थे। इस वर्ग में समाज से बहिष्कृत ऐसे ही लोग रखे जाते थे, जो नैतिक एवं सामाजिक नियमों का उल्लंघन करते थे, उपासना की उपेक्षा करते थे। इस उपेक्षा के फलस्वरूप जीवन विकास का एक महत्त्वपूर्ण पहलू अविकसित ही पड़ा रहता है, इसलिए व्यक्ति को अपने सर्वांगीण विकास के संबंध में जागरुक बनाए रखने की दृष्टि से इस प्रकार के प्रतिबंधों की उपयोगिता भी है और आवश्यकता भी।

सर्वोपरि एवं सर्वसुलभ-साधना

उपासना में भारत की प्राचीनतम, सर्वोपरि एवं सर्वानुमोदित सर्वसुलभ-प्रक्रिया, 'गायत्री महाशक्ति' की ही है। सद्बुद्धि की देवी, आंतरिक पवित्रता और प्रगति की प्रतीक, इस गायत्री उपासना को ही ऋषियों ने, देवताओं ने, अवतारों ने और सभी विचारशील सत्पुरुषों ने अपने दैनिक जीवन में एक आवश्यक धर्मकृत्य के रूप में स्थान दिया था। जब तक मत-मतांतरों का जंजाल हिंदू धर्म में प्रविष्ट नहीं हुआ था, तब तक सर्वत्र एक ही भाषा, भेष, भाव की तरह उपासना की भी एकता बनी रही। वेदजननी गायत्री को ही ज्ञान−विज्ञान की अजस्र ज्ञानगंगा माना जाता रहा और इसी का नित्य-नैमित्तिक अवगाहन करके सब कोई कृतकृत्य होते रहे। पीछे जैसे−जैसे हिंदू धर्म में विकृतियाँ प्रवेश करती गईं, वैसे−वैसे वेद धर्म की उपेक्षा करके लोग अपनी−अपनी मरजी के सम्प्रदाय गढ़ते और अपनी−अपनी रुचि के देवताओं का प्रादुर्भाव करते चले गए। अपनी कल्पना और रचना की पुष्टि में उन्होंने अनेक ग्रंथ भी रच डाले। इस प्रकार भ्रांतियों का एक पूरा घटाटोप खड़ा हो गया। उपासना विधान, देवता, मंत्र आदि आध्यात्मिक उपकरण दिन−दिन बढ़ते गए और उनमें से प्रत्येक के निर्माताओं एवं अनुयायियों ने उनका प्रसार करने के लिए भरपूर महात्म्य बताया, भरपूर ढोल पीटा। यह हंगामा इतना बढ़ा कि सनातन उपासना— गायत्री की स्थिति वही हो गई जो नक्कारखाने में तूती की होती है। लोग उसे भूलने ही नहीं लगे, उपेक्षा ही नहीं करने लगे, वरन शाप लगी हुई, कलियुग में निष्फल, केवल ब्राह्मणों को ही मौरूसी, कान में कहने की गुप्त विद्या आदि बताकर उसकी ओर से जनसाधारण में अरुचि भी उत्पन्न करने लगे।

सनातन एवं आर्ष सत्य

असत्य देर तक नहीं ठहर सकता। तथ्यों को देर तक छिपाया नहीं जा सकता। बादलों की छाया में सूर्य कब तक ढँका रहेगा? अंततः उसका प्रकटीकरण तो होना ही है— होता ही है। भारतीय धर्म की सर्वश्रेष्ठ सनातन उपासना मत-मतांतरों के कोलाहल में कब तक उपेक्षित एवं तिरस्कृत पड़ी रह सकती थी? सत्य की शोध आखिर कभी तो होने ही वाली थी और तथ्यों का प्रकटीकरण किया ही जाने वाला था। हर्ष की बात है कि वह समय अब आ पहुँचा और वास्तविकता जैसे−जैसे सामने आई, वैसे−वैसे यह स्पष्ट हुआ कि लाखों वर्षों का हमारा आध्यात्मिक अनुसंधान गायत्री को ही सर्वोपरि उपासना स्वीकार करता रहा है, वही सदा की भाँति आज भी हमारे लिए उपयोगी हो सकती है। जिन्होंने किसी पूर्वाग्रह से अपने को बाँध नहीं लिया है, जिन्होंने विचारशीलता और सत्यान्वेषण से अपने को सर्वथा विमुख नहीं कर लिया है, उन्हें यह मानने में तनिक भी कठिनाई नहीं होती कि आध्यात्मिक प्रगति एवं भावनात्मक एकता की दृष्टि से गायत्री उपासना को ही उपासना क्षेत्र में उसका उचित स्थान मिलना चाहिए। विचारशीलता की प्रचंड लहरों ने आज गायत्री को उसके प्राचीन स्थान पर पहुँचा देने का प्रयत्न पुनः आरंभ कर दिया है। लगता है गायत्री भारत की 'राष्ट्रीय उपासना' बनकर रहेगी और उसका आश्रय लेकर हम अपना आध्यात्मिक, मानसिक, नैतिक और सामाजिक जीवन ही ऊँचा न बनावेंगे, वरन वैयक्तिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सुख-शांति की चिरस्थायी अभिवृद्धि भी करेंगे।

गायत्री विद्या के दो स्तर

गायत्री उपासना के दो स्तर हैं— एक साधारण, दूसरा विशेष। सर्वसाधारण के लिए दैनिक नित्यकर्म के रूप में, नवरात्रि आदि किन्हीं पर्वों पर नैमित्तिक रूप से एवं किसी विशेष आवश्यकता के समय उपचार रूप से जो साधना की जाती है, उसे साधारण स्तरीय उपासना कहते हैं। गायत्री महाविज्ञान ग्रंथ के प्रथम भाग में इसी विधान और विज्ञान का वर्णन किया गया है। जिनकी अभिरुचि अध्यात्म की दिशा में बहुत गतिशील नहीं हुई है, जिनके पास अवकाश कम ही रहता है, उनके लिए अनिवार्य धर्मकर्त्तव्य की तरह वही क्रम उपयुक्त है। इस प्रथम स्तरीय साधना को ऋषियों ने ‘एकमुखी’ गायत्री कहा है। चित्रों में एक मुख और दो हाथ वाली गायत्री माता का चित्र इसी स्तर के उपासकों के लिए निर्धारित किया है। शिक्षापद्धति को ‘स्कूल’ और ‘काॅलेज’ इन दो विभागों में विभक्त किया जाता है। आरंभिक छात्र स्कूली पढ़ाई पढ़ते हैं और आगे चलकर वे कालेज में प्रवेश करते हैं। यही बात आध्यात्मिक प्रगति के लिए निर्धारित गायत्री उपासना के संबंध में भी है। आरंभिक श्रेणी की एकमुखी गायत्री उपासना को ‘स्कूल कोर्स’ कहा जा सकता है। इससे अगला शिक्षण ‘काॅलेज कोर्स’ है। इसे पंचमुखी-पंचकोशी एवं उच्चस्तरीय उपासना कह सकते हैं। जिनने कम-से-कम पाँच वर्ष साधारण श्रेणी की उपासना करके अपनी श्रद्धा को परिपक्व कर लिया हो, उन साधकों को उच्चस्तरीय साधना के लिए अग्रसर होना होता है।

एकमुखी गायत्री का सीमा-क्षेत्र

सर्वसाधारण के लिए उपयोगी एकमुखी गायत्री उपासना की विवेचना भी गत दस वर्षों से अखण्ड ज्योति के पृष्ठों में, छोटी−मोटी दसियों पुस्तकों में, प्रवचन, सत्संगों और व्यक्तिगत वार्त्तालापों में हम समय−समय पर करते रहे हैं। लाखों मनुष्यों ने उस विज्ञान का लाभ उठाया है और अभी भी उस मार्ग पर चलते हुए असंख्यों व्यक्ति लोक एवं परलोक के कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। गायत्री उपासना से साधक के मनःक्षेत्र में तत्काल सद्बुद्धि का विकास होता है, मलीन एवं अवरुद्ध पड़े हुए अंतःकरण की सफाई होना शुरू होती है और गुण, कर्म, स्वभाव में प्रवेश हुए दुरितों का समाधान होने की प्रक्रिया तत्क्षण आरंभ हो जाती है। उसका प्रकाश जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रत्यक्ष परिलक्षित होता है। स्वभाव में मधुरता, सहनशीलता और दूरदर्शिता की प्रवृत्ति का समावेश होने से साधक के विचार और आचार में आश्चर्यजनक परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है। फलस्वरूप अनेकों गुत्थियाँ सहज ही सुलझने लगती हैं। हमारी उलझनों के अधिकांश कारण बाहर नहीं, भीतर होते हैं। दूसरे लोग हमारी प्रगति और शांति में जितनी बाधा पहुँचाते हैं, उससे अनेक गुनी बाधा अपनी भीतरी दुर्बलताएँ उत्पन्न करती हैं। इन दुर्बलताओं को ही ‘कुबुद्धि’ कहते हैं। कुबुद्धि को हटाकर सद्बुद्धि की स्थापना ही एकमात्र वह आधार है, जिसके द्वारा चिंताओं, आपत्तियों और अभावों से घिरते हुए जीवन की कायापलट हो सकती है। यह परिवर्तन प्रसन्नता, सुविधा और संतोष के रूप में तुरंत ही देखा जा सकता है। दरद को दूर करने में जिस प्रकार ‘मर्फिया’ का इंजेक्शन या ‘कोकिन लोशन’ जादू का काम करता है, उसी प्रकार विभिन्न प्रकार के क्लेशों और दुःखों से संत्रस्त करने वाली कुबुद्धि को हटाने वाला सद्बुद्धि का उपचार मिलते ही क्लेशों के स्थान पर संतोष आ विराजता है।

आत्मबल की दिव्य विभूति

अन्तःकरण में सद्बुद्धि की स्थापना का अत्यधिक महत्त्व है। जिसे यह विभूति मिल गई, समझना चाहिए कि उसने पारसमणि ही प्राप्त कर ली। शास्त्रकारों ने सद्विचारों को कल्पवृक्ष और सद्भावनाओं को अमृत कहा है। जिसने यह सब प्राप्त कर लिया, उसे इस संसार में न तो किसी वस्तु का अभाव रहेगा और न उसकी शांति को कोई नष्ट कर सकेगा। अध्यात्म-साधना का प्रथम लक्ष्य अन्तःकरण में सद्बुद्धि की स्थापना करना है। इस प्रयोजन के लिए यों स्वाध्याय एवं सत्संग की बहुत महत्ता बताई है, पर उसके साथ−साथ साधना का समावेश होना भी आवश्यक है। साधना को बीज माना जाए तो स्वाध्याय और सत्संग को खाद-पानी कहना पड़ेगा। ‛श्रेय’ का पौधा इसी प्रकार फलता−फूलता है। साधनाओं में गायत्री उपासना ही सद्बुद्धि की स्थापना का उद्देश्य पूरा करती है। गायत्री को बुद्धि की, ज्ञान की, विवेक की देवी कहा गया है। इस महामंत्र में तेज और ज्ञान की शक्तियों का आह्वान किया गया है और सच्चे मन से की गई इस साधना से यह दोनों वस्तुएँ मिलती भी देखी जा सकती हैं। सद्बुद्धि की विभूति जैसे−जैसे अपने भीतर बढ़ती है, वैसे ही मनुष्य के गुण, कर्म और स्वभाव में सात्विकता की मात्रा की अभिवृद्धि होती है और इसके फलस्वरूप वह परिस्थितियाँ उत्पन्न होनी आरंभ हो जाती हैं, जिनमें सफलता, सहयोग, समृद्धि, संतुष्टि और शांति की प्राप्ति हुआ करती है।

गायत्री उपासना से अनेकों प्रकार के भौतिक और आध्यात्मिक लाभ होने का जो महात्म्य शास्त्रों ने कहा है और अनुभव द्वारा जिसे पूर्णतः सही पाया गया है, उसका आधार यह सद्बुद्धि ही है, जिसे गायत्री महामंत्र के जप-अनुष्ठानों एवं विभिन्न विधि-विधानों से प्राप्त किया जाता है। सर्वसाधारण के लिए गायत्री का यह सद्बुद्धि वाला क्षेत्र ही सरल पड़ता है। आरंभ में हर साधक को इसी कक्षा में प्रवेश करना पड़ता है।

तंत्र और योग की पद्धतियाँ

गायत्री महाविज्ञान ग्रंथ के प्रथम भाग में सद्बुद्धि श्रेणी की साधना का विधान है। दूसरे में तंत्र और तीसरे भाग में पंचमुखी−पंचकोशी−उच्चस्तरीय गायत्री उपासना की विवेचना की गई है। तंत्र का विषय गोपनीय है। केवल वह परीक्षित, विश्वस्त भूमिका के व्यक्तियों को ही कहा और बताया जाता है, ऐसे लोग ही उसकी साधना कर सकते हैं। कुपात्रों के हाथ तंत्र विज्ञान का जाना दूसरों के लिए ही नहीं, वरन उन साधकों के खुद के लिए भी संकट का कारण बनता है। इसलिए तंत्रशास्त्र की परंपरा यह है कि वस्तुस्थिति को छिपाकर रखा जाए। साधारणतया कुछ कहा और लिखा भी जाए तो वह चर्चा एवं विवेचना तक ही सीमित रहे, उसकी प्रयोगविधि की गोपनीयता पर आचार्यों ने कठोर प्रतिबंध लगाये हैं, वे उचित भी हैं और आवश्यक भी। इसी परंपरा के अनुसार गायत्री महाविज्ञान के दूसरे भाग में गायत्री तंत्र का उल्लेख तो हुआ है, पर अनादि परंपरा के कारण उसकी विस्तृत विवेचना को अप्रकट ही रखा गया है। अधिकारी सत्पात्रों को गुरुपरंपरा से पूर्वकाल में भी यह ज्ञान मिलता रहा है और आगे भी मिलता रहेगा।

उच्चस्तरीय गायत्री उपासना में शरीर और मन के विभिन्न केंद्रों में प्रस्तुत पड़ी हुई अत्यंत महत्त्वपूर्ण शक्तियों के जागरण का विधान है। दूसरे शब्दों में इसे आत्मबल विकास का विज्ञान कह सकते हैं। जिस प्रकार कीमती तिजोरी में ही मूल्यवान रत्नराशि जमा की जाती है, उसी प्रकार परमात्मा ने मानव प्राणी के भीतर बड़ी चतुरता और सावधानी के साथ यह कीमती तिजोरियों में भरकर अमूल्य रत्नराशि छिपा दी है। छिपाने में उसका प्रयोजन केवल इतना ही है कि वयस्क और परिपक्व बुद्धि होने का प्रमाण देकर ही उसका उपयोग संभव हो सके। यह ठीक भी है। अबोध बालकों की संपत्ति उनकी होने पर भी उन्हें नहीं सौंपी जाती। कोई संरक्षक उस पर नियुक्त रहता है। जब बच्चे बड़े, वयस्क और परिपक्व बुद्धि हो जाते हैं तो उन्हें वह संपदा प्रसन्नतापूर्वक दे दी जाती है। परमात्मा के इस संसार में स्थूल और सूक्ष्म प्रकार की अगणित शक्तियाँ बिखरी पड़ी हैं। वैज्ञानिक लोग बाह्यजगत की अनेक शक्तियों को जानने और उनका प्रयोग करने में दत्तचित्त हो लगे हुए हैं और वे एक-से-एक महत्त्वपूर्ण आविष्कार करते चले जा रहे हैं।

हमारी अंतर्जगत में, चेतना संस्थान में, बाह्यजगत की अपेक्षा असंख्यों गुनी शक्तियाँ भरी पड़ी हैं। उनका एक छोटा-सा भी आविष्कार बाह्यजगत में अब तक हुए समस्त आविष्कारों से बढ़कर सिद्ध हो सकता है। आत्मबल इस संसार का सबसे बड़ा बल है। अंतर्जगत की शक्तियों का महत्त्व कहने सुनने से नहीं, वरन अनुभव करने से ही जाना जा सकता है। प्राचीनकाल के ऋषि, महर्षि, योगी, यती इस अध्यात्म विज्ञान के ही रत्नों को खोजते रहे हैं। उनने जो कुछ पाया था, वह इतना महान था कि उसका इतिहास पढ़ने मात्र से हमारा मस्तक आज की गई-गुजरी स्थिति में भी गर्वोन्नत हो जाता है।

पंचमुखी गायत्री—पंचकोशी साधना

आंतरिक शक्तियों के जागरण की गायत्री प्रक्रिया पंचमुखी-पंचकोशी साधना कहलाती है। इसे ही ‘गायत्री योग’ भी कहते हैं। गायत्री महाविज्ञान ग्रंथ के तीसरे खंड में उसी का उल्लेख किया गया है। जानकारी की दृष्टि से वह ग्रंथ महत्त्वपूर्ण है, पर इस मार्ग पर बढ़ने वाले साधक का कार्य उसे पढ़ने मात्र से ही नहीं चल सकता। आयुर्वेद के प्रमुख ग्रंथ ‘चरक संहिता’ में आरोग्य रक्षा और चिकित्सा के बारे में बहुत कुछ लिखा हुआ है, पर कोई रोगी उसे पढ़कर ही अपना काम नहीं चला सकता, रोगी को, किस प्रकार के रोग में, किस आयु में, किस ऋतु में, किन परिस्थितियों में, किस उपचार के साथ, क्या औषधि देनी चाहिए, इसका निर्णय करने के लिए एक विचारपूर्ण मार्गदर्शक भी आवश्यक होता है। अपने परिवार के जो परिजन हमारे सहचरत्व में साधना मार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं, उनके लिए उच्चस्तरीय उपासना का एक व्यवस्थित दसवर्षीय शिक्षण क्रम बता दिया गया है। गत अक्टूबर अंक में प्रथम वर्ष का पाठ्यक्रम प्रस्तुत किया गया था, अब इस अंक के साथ द्वितीय वर्ष की साधना बताई जा रही है। अगले नौ वर्षों में यह क्रम इसी प्रकार चलता रहेगा। हर अक्टूबर में अखण्ड ज्योति का एक विशेष अंक गायत्री उपासकों के मार्गदर्शन के लिए निकलता रहेगा, शेष अंकों में युगनिर्माण योजना की विचारधारा रहा करेगी। लौकिक और पारलौकिक सुख-शांति के लिए गायत्री उपासना की उपयोगिता असाधारण है। उसका प्रथम चरण हमें सद्बुद्धि प्रदान करके जीवन की अधिकांश उलझनों को सुलझा देता है और द्वितीय चरण में प्रस्तुत आत्मशक्ति के जागरण का जो रहस्य सन्निहित है, उसके द्वारा मनुष्य नर से नारायण और पुरुष से पुरुषोत्तम बन सकता है। युग−निर्माण की दृष्टि से भी इस आर्ष विज्ञान को हमें अपने जीवन में समुचित स्थान देना ही पड़ेगा। आत्मविकास की समस्या को हल कर सकना गायत्री उपासना की उपेक्षा करके असंभव नहीं, तो कठिन अवश्य रहेगा।


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