साधना और उसकी सिद्धि

October 1962

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ज्वलंत अंगार जब ठंडा होने लगता है तो उसका ऊपरी परत भस्म बनकर आवरण जैसा चढ़ जाता है। जब इस आवरण को स्पर्श करते हैं तो अंगार न तो गरम मालूम पड़ता है और न प्रकाशवान। ऐसी स्थिति में यह पहचानना भी कठिन होता है कि इसके भीतर अभी अग्नि का अंश भी है या नहीं। पर जब उस भस्म -आवरण को हटा दिया जाता है तो भीतर छिपी हुई अग्नि पुनः प्रकट हो जाती है और उसकी गरमी तथा रोशनी पुनः पूर्ववत् दिखाई पड़ने लगती है। यही बात हमारी आत्मिक स्थिति पर लागू होती है । परमात्मा का अंश होने के कारण आत्मा में वे सब शक्तियाँ और विशेषताएँ बीजरूप से मौजूद रहती हैं, जो परमात्मा में भरी होती हैं। किंतु मल−विक्षेपों के आवरण जब उस पर चढ़ जाते हैं तो उसकी स्थिति भी भस्म से ढँके हुए अंगार जैसी बन जाती है। मायाबद्ध जीव की स्थिति बड़ी दीन−हीन और दयनीय दिखाई पड़ती है। दुःख-दारिद्रय के, रोग−शोक के, अभाव-अज्ञान, व्यथा-वेदना के, कष्ट-क्लेशों में ऐसा ग्रसित रहता है कि यह विश्वास करना कठिन हो जाता है कि ऐसी दयनीय स्थिति में पड़ा हुआ मानव प्राणी भला सत्, चित और आनंदस्वरूप परमात्मा का अंश भी हो सकता है। ठंडी भस्म का आवरण छूकर और उसकी कालिमा देखकर यह मानना कठिन होता है कि इसके भीतर ज्वलंत अग्निपुंज भी छिपा होगा।

आत्मा की निर्विकार स्थिति

आत्मा अपनी स्वाभाविक स्थिति में हो, उसके आवरण हट जाएँ तो उसकी स्थिति इतनी उत्कृष्ट होती है कि हर क्षण अनंत आनंद का रसास्वादन करने का ही सौभाग्य उसे उपलब्ध रहता है। इसी स्थिति को प्राप्त करना आध्यात्मिक साधना का लक्ष्य है। इस मार्ग को अवरुद्ध करने वाले वे मल−विक्षेप और आवरण ही हैं, जिनके कारण महान संभावनाएँ साथ लेकर आई हुई आत्मा, इन तुच्छ परिस्थितियों में पड़े रहने के लिए विवश होती है। मानव शरीर ही इन आवरणों की सफाई कर लेने का एकमात्र अवसर है। यदि यह ऐसे ही बर्बाद चला गया या कुविचारों और कुकर्मों में मस्त रहकर उन आवरणों को और भी बढ़ा लिया गया तो फिर चौरासी लाख योनियों की लंबी अवधि तक उसी भार में दबा पड़ा रहना पड़ता है।

मल और आवरणों का निराकरण

इन आवरणों की सफाई में दुहरा लाभ है, जहाँ मलीनता हटने से आत्मा पर चढ़ा हुआ भार हलका होते चलने से अन्तःकरण में शांति और प्रफुल्लता बढ़ती है, वहाँ इन आवरण द्वारों के खुलने पर विभूतियों का एक विशिष्ट भांडागार उपलब्ध होता चलता है। पाँच आवरणों को ही पाँच कोश कहते हैं। इन द्वारों के खोलने की वैज्ञानिक विधि का नाम ही पंचकोशी गायत्री साधना अथवा पंचमुखी गायत्री उपासना है। उच्च कक्षा में प्रवेश करने वाले साधकों के लिए इसी आराधना का प्रयोग करना पड़ता है। प्रथम स्तरीय साधना का अधिकांश कार्यक्रम स्थूल वस्तुओं या स्थूल विधि-विधानों पर निर्भर है। माला, आसन, पंचपात्र, धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प, अक्षत, चित्र, मूर्ति, हवन-सामग्री, मंत्रोच्चारण, व्रत-उपवास, पाठ, कीर्त्तन, अनुष्ठान, ब्रह्मभोज, तर्पण, मार्जन आदि यह सभी कुछ स्थूल आधार हैं। इसे साकार उपासना कह सकते हैं। प्रथम कक्षा के लिए यह सब आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। इस आधार के बिना ऊपर की कक्षा में प्रवेश कर सकना उसी प्रकार संभव नहीं, जिस प्रकार सीढ़ी या जीने की सहायता के बिना छलाँग मारकर छत पर चढ़ जाना कठिन होता है। स्कूल की पढ़ाई की उपेक्षा करके सीधे कॉलेज में प्रवेश नहीं मिलता, उसी प्रकार प्रथम स्तरीय स्थूल विधि-व्यवस्था के आधार पर बनी हुई साकार उपासना के बिना उच्चस्तरीय निराकार साधना में सफलता प्राप्त कर सकना किसी के लिए संभव नहीं हो सकता।

भावनात्मक साधना स्तर

उच्चस्तरीय गायत्री उपासना में वस्तुओं, उपकरणों और विधानों का तारतम्य घटने लगता है और ध्यान, भावना एवं निष्ठा में तीव्रगति से अभिवृद्धि होने लगती है। यह उपासना बिना किसी वस्तु के भी हो सकती है। एकांत निर्जन वनों में रहकर घोर तपस्या करने वाले योगियों के लिए अन्न और वस्त्र तक उपलब्ध नहीं होता तो धूप दीप की, हवन ब्रह्मभोज की व्यवस्था कहाँ से बनेगी? सच बात यह है कि तब उन्हें इनमें से किसी भी उपकरण की आवश्यकता नहीं रह जाती। वे आत्मा की अग्नि में प्राण को हवि बनाकर निरंतर अखंड यज्ञ करते रहते हैं। गायत्री चालीसा में “हंसारूढ़ सितंबरधारी” पद में जिस हंसवाहिनी और श्वेत वस्त्रधारिणी गायत्री माता का उल्लेख हुआ है, उसका स्वरूप उच्चस्तरीय साधना में कुछ और ही हो जाता है।

श्वास-प्रश्वास क्रिया के साथ जो ‘सोऽहम’ की ध्वनि होती, उसे हंसयोग कहते हैं। यह हंस अर्थात् सोऽहम तत्त्व ही गायत्री का वाहन बन जाता है । माला का स्थान यह श्वास प्रक्रिया ले लेती है, इड़ा-पिंगला— चन्द्र-सूर्य नाड़ियों का आरोहण-अवरोहण माला फेरने का काम करता है। 54 ग्रंथियाँ आरोहण की और 54 अवरोहण की मिलकर 108 दाने की यह सूक्ष्म चक्र-सारिणी घूमने लगती है। सुषुम्ना सुमेरु कहते हैं। माला में एक मध्य-बिंदु बड़ा दाना रहता है, जिसे सुमेरु के नाम से हम संबोधन करते हैं। आध्यात्मिक माला से सुषुम्ना नाड़ी का वही स्वरूप और स्थान बन जाता है। यह सोऽहम संस्थान उच्चस्तरीय साधना में गायत्री माता का हंस वाहन बन जाता है। इस माला पर वे विहार और विचरण करने लगती है। इसी वीणा में उनकी झंकार उठने लगती है और इसी स्थल से नीर-क्षीर विवेक का हंसगुण साधक की अंतरात्मा में उत्पन्न होने लगता है।

माता का सूक्ष्म स्वरूप

श्वेत वस्त्रधारिणी गायत्री माता का हम पूजन करते हैं। ‛सूर्यमंडल मध्यस्था’ की छवि बनाकर उसे सूर्य प्रकाश के बीच बैठी हुई प्रतिमा बनाकर उसकी प्रतिष्ठा करते हैं। पर उच्चस्तरीय साधना में माता का पूरा आवरण इस शुभ्र ज्योति के स्वरूप में ही परिलक्षित होता है। प्रकाशपुंज के रूप में ही गायत्री माता का दर्शन, ध्यान और साक्षात्कार हो जाता है। जिस प्रकार प्रथम स्तर के साधकों को हंसारूढ़ गायत्री माता का नारी देह में दर्शन, साक्षात्कार, जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं में होता रहता है, उसी प्रकार उच्च भूमिका के साधक को प्रकाश की छोटी-छोटी चिनगारियों के रूप में, किरणों के रूप में और तेजस्वी ज्योतिपिंड के रूप में दर्शन एवं साक्षात्कार होता है। स्तर बदलने के साथ साधनों एवं उपकरणों की श्रृंखला भी बदल जाती है। स्कूल की प्रारंभिक कक्षाओं में लकड़ी की तख्ती पर खड़िया और मोटी कलम से बड़े-बड़े अक्षर लिखने का अभ्यास करना पड़ता है, पर आगे चलकर कापी और फाॅउन्टेन पेन के माध्यम से लिखने की क्रिया संपन्न होती है।

साधना-क्षेत्र में भी ऐसे परिवर्तन का होना कोई आश्चर्य, विरोध या मतभेद की बात नहीं, वरन एक स्वाभाविक विकासक्रम है। भारतीय धर्म में साकार और निराकार की जो द्विधा परंपराएँ चली आ रही हैं, इनमें न तो कोई विरोध है और न विभ्रम। दोनों ही एकदूसरे की पूरक हैं। अपने-अपने स्थान पर दोनों ही उपयुक्त हैं और आवश्यक भी। पंचकोशी गायत्री उपासना का विधानक्रम निराकार उपासना जैसा ही है। इसीलिए पंचमुखी गायत्री को अलंकारिक रूप से चित्रित तो करते हैं, पर पूजा के लिए एकमुखी गायत्री की तस्वीरें तथा मूर्तियाँ ही प्रयुक्त होती हैं। इस उद्देश्य के लिए पंचमुखी गायत्री का प्रयोग नहीं होता।

पंचमुखी, दशभुजी गायत्री

गायत्री महाविज्ञान तृतीय भाग में पंचमुखी और दशभुजी गायत्री की विवेचना करते हुए हम विस्तारपूर्वक यह बता चुके हैं कि अन्नमयकोश, मनोमयकोश, प्राणमयकोश, विज्ञानमयकोश और आनंदमयकोश यही पाँच गायत्री के पाँच मुख हैं। इन कोशों में छिपी हुई अत्यंत महत्त्वपूर्ण शक्तियों को विकसित करना और उन आवरणों का परिमार्जन करके आत्मशांति का रसास्वादन करना पंचकोशी आराधना का प्रधान उद्देश्य है। प्रथम स्तरीय उपासना में लौकिक लाभों का मार्ग प्रशस्त होता है। (1) सद्ज्ञान (2) स्वास्थ्य सुधार (3) उत्साह एवं स्फूर्ति (4) सहयोग एवं मित्रता की अभिवृद्धि (5) अभावों की पूर्ति, यह पाँच लाभ प्रथम श्रेणी के निष्ठावान साधक को मिलते हैं। ऊँची श्रेणी में यह लाभ और भी उच्चकोटि के हो जाते हैं। (1) साहस एवं निर्भीकता (2) विवेक एवं दूरदर्शिता (3) पुरुषार्थ एवं तृप्ति यह पाँच सिद्धियाँ पंचकोशी साधना की हैं। जैसे नर−नारी का जोड़ा होता है, वैसे ही दो−दो सद्गुणों का यह जोड़ा दस की संख्या में हो जाता है। इन्हें पंचमुखी गायत्री की दस भुजाएँ अथवा दस सिद्धियाँ कह सकते हैं।

सद्गुण और श्रेष्ठ विभूतियाँ

गुणों की अभिवृद्धि पर संपदाओं और विभूतियों की उत्पत्ति एवं अभिवृद्धि निर्भर रहती है। जिस प्रकार बिना जड़ का पौधा देर तक खड़ा नहीं रह सकता, उसी प्रकार योग्यता और प्रतिभा न होने पर अनायास कोई संपदा मिल भी जाए तो देर तक ठहर नहीं पाती । जड़ मजबूत होने पर ऊपर की टहनी कट जाने पर भी फिर उसकी शाखाएँ फूट जाती हैं, उसी प्रकार यदि सद्गुणों की जड़ मनोभूमि में मजबूती से जमी हुई हो तो किन्हीं आकस्मिक कारणों से दरिद्रता एवं विपत्ति सामने आ जाने पर भी वे ठहर नहीं पातीं और कोई नई सुविधा उत्पन्न होकर उस अभाव की पूर्ति कर देती है। गायत्री उपासना से प्रत्यक्ष तो किसी को छप्पर फाड़कर संपदा नहीं मिलती, पर साधक के अंदर वे तत्त्व विकसित हो जाते हैं, जिनके साथ अनेकों प्रकार की सुख−संपदाएँ जुड़ी रहती हैं। वर्षा होते ही हरियाली उग आती है और कीट-पतंगों की अजस्र उत्पत्ति होने लगती है। मानवोचित सद्गुणों का विकास होने के साथ−साथ वे मंगलमयी सुख-सुविधाएँ, समृद्धियाँ और विभूतियाँ सामने आ जाती हैं, जिनके लिए आमतौर से लोग तरसते रहते हैं और जिनकी उपलब्धि को कोई दैवी वरदान या सिद्धि चमत्कार माना जाता है।

चमत्कार को नमस्कार

मोटे तौर से चमत्कार उन बातों को माना जाता है, जो मानव शरीर की सीमा और सामर्थ्य से बाहर की है। हवा में उड़ना, पानी पर चलना, अदृश्य हो जाना, रूप बदल लेना आदि क्रियाओं की किसी समय सिद्धियाँ कहा जाता था। पर अब विज्ञान की उन्नति के कारण यह बातें अमुक मशीनों की सहायता से सस्ती और सुलभ हो गईं, इसलिए इन क्षमताओं के प्राप्त कर लेने पर भी कोई विशेष प्रयोजन सिद्धि नहीं होता। बाजीगरी के अनेकों अचंभे में डालने वाले खेल जादूगर लोग दिखाया करते हैं। मैस्मरेजम और हिप्नोटिज्म से भी बहुत मनोरंजक तमाशे होते देखे गए हैं। कौतूहल उत्पन्न करके अचंभे में डालने वाली बातें, इस विज्ञान की उन्नति के युग जबकि सौरमंडल की यात्रा करने के लिए मानव संचालित यान उड़ रहे हैं, कोई विशेष महत्त्व नहीं रखते।

एक ही हाइड्रोजन बम से जब करोड़ों मनुष्यों को पलक मारते नष्ट कर डालना संभव हो गया है तो मारण, मोहन, उच्चाटन आदि के अभिचार क्या महत्त्व रखते हैं। यह प्रयोजन तो नशीली चीजों से या मामूली हथियारों से भी पूरे हो सकते हैं। गायत्री उपासना के द्वारा इस प्रकार के चमत्कारों की आशा से श्रम करना बालबुद्धि वाले ओछे स्तर के लोगों के लिए ही संभव है। बेशक अनेकों अचंभे में डालने वाले काम कर सकना तपस्वी साधकों के लिए संभव है, पर उनकी तुच्छता को समझते हुए इन पंक्तियों में उनकी उपेक्षा ही की जा रही है। उनका कोई वर्णन और विवेचन करने की हमारी इच्छा आकांक्षा इसलिए नहीं है कि उससे साधक की अभिरुचि उच्चकोटि के लाभ उठाने की अपेक्षा इन बाल-विनोदों के स्तर के अभिमुख हो सकती है, जिसका परिणाम शक्ति की बर्बादी करके सस्ती वाहवाही पाने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होता।

आत्मबल का सर्वोपरि लाभ

गायत्री उपासना की उच्च भूमिका में प्रवेश करने का सबसे बड़ा लाभ आत्मबल की वृद्धि है। धनबल, विद्याबल, बुद्धिबल, शस्त्रबल, संघबल का चमत्कार हम रोज ही अपने चारों ओर देखते रहते हैं। आत्मबल का अनुभव हमें नहीं है, क्योंकि उस बल के बलवान लोग आस−पास दिखाई नहीं पड़ते। पर जब कभी भी ऐसे आत्मबलसंपन्न योद्धा कहीं दृष्टिगोचर होते हैं तो उन की महत्ता संसार के समस्त भौतिक बलसंपन्न लोगों से कहीं अधिक होती है। इन्हें ही महापुरुष कहते हैं। नररत्नों में इन्हीं की गणना होती है। जमाने को बदल देने की, आत्मकल्याण की, दूसरों का सच्चा हितसाधन कर सकने की अपार क्षमता उनमें होती है। इसी को सच्ची सिद्धि कहते हैं। उच्चस्तरीय गायत्री उपासना का उपासक दिन−दिन महानता की ओर तीव्र गति से अग्रसर होने लगता है।


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