अखण्ड ज्योति परिवार को अब क्या करना होगा?

October 1962

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अखण्ड ज्योति के पाठकों को हम सदा से अपना व्यक्तिगत विचार−परिवार मानते रहे हैं। हमारे शरीर को नमस्कार करने वाली भीड़ को हमने लाखों की संख्या में इधर से ऊपर घूमते-फिरते देखा है; पर जिन्हें हमारे विचारों के प्रति श्रद्धा हो, ऐसे व्यक्ति बहुत थोड़े हैं। भीड़ को हम कौतूहल की दृष्टि से देखते हैं, पर आत्मीय केवल उन्हें ही समझते हैं, जो हमारे विचारों का मूल्याँकन करते है, उन्हें प्रेम करते और अपनाते हैं। जो हमारी आत्मा की प्रेरणाओं को अपनाता है, वही हमारा सच्चा आत्मीय हो भी सकता है। ऐसे स्वजनों के प्रति ही हमारी भावनाएँ निरंतर उमड़ती रहती हैं। पशु और पक्षी भी अपने आत्मीयों को प्यार करते हैं, फिर हम तो मनुष्य हैं।

आत्मीयता के अटूट बंधन

अपने और परिजनों के बीच आत्मीयता के अटूट बंधन जो पिछले 23 वर्षों से दिन−दिन सुदृढ़ होते चले आए हैं, उसका प्रतिफल मनुष्य और मनुष्य के बीच दोस्ती होने की प्रसन्नता जितना ही सीमित नहीं रहना चाहिए। हमने सदा से यही प्रयत्न किया है कि लोगों की हमारे प्रति जो श्रद्धा है, उससे उत्पन्न प्रभाव का समुचित प्रतिफल उन्हें वापिस मिले। परिजनों पर जो अपना प्रभाव है, उसका उपयोग हमने केवल मात्र इसी एक कार्य में किया है कि उन्हें कल्याण-पथ पर चलने में प्रोत्साहन मिले। वे सद्विचारों और सत्कार्यों को अपनावें, सत्प्रवृत्तियों का अनुसरण करें और फलस्वरूप लोक और परलोक को सुख-शांति से परिपूर्ण बनाते हुए जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में तेजी से अग्रसर हों। गायत्री उपासना, यज्ञ आयोजन, कुरीतियों और दुष्प्रवृत्तियों का प्रतिरोध आंदोलन आदि अनेक कार्यक्रम हम समय−समय पर इसी दृष्टि से बनाते और उनमें स्वजनों को प्रवृत्त करते रहे हैं। जिन कार्यों में उनका हित-साधन ही हमने समझा और सोचा है, उन्हीं की प्रेरणा दी है। अभी हमें दस वर्ष कुछ विशेष कार्य करने का आदेश प्राप्त हुआ है। तदनुसार युगनिर्माण योजना का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम हाथ में लिया गया है। इस योजना में सम्मिलित होने वाले प्रत्येक व्यक्ति का भारी हित-साधन होता हुआ हमें दीखता है।

सुख-शांतिमय जीवन

हम चाहते हैं कि हमारे प्रत्येक परिजन की प्रत्येक समस्या सुलझी हुई हो, उसे कोई चिंता न रहे, निराशा और असफलता का कभी मुँह न देखना पड़े, आरोग्य और दीर्घ जीवन प्राप्त हो, दांपत्ति जीवन में अहिर्निश प्रेम की वर्षा होती रहे, संतान सुयोग्य और सद्गुणी हो, आर्थिक कठिनाई का कभी सामना न करना पड़े, मित्रों और स्वजनों का परिपूर्ण प्रेम मिले, दिन−दिन, उन्नति होती रहे, लोक और परलोक में सर्वत्र सुख-शांति की परिस्थितियाँ उत्पन्न हों, मन में प्रसन्नता और संतोष की लहरें उठती रहें। इस धरती पर ही स्वर्ग बिखरा हुआ, दिखाई पड़े। स्वजनों के प्रति हमारी यह आकांक्षा कोई कल्पना, शुभकामना या आशीर्वादमात्र नहीं है; वरन यह एक तथ्य है, जिसे हर किसी के लिए प्राप्त कर लेना संभव है। हमारा निज का जीवन इस बात का साक्षी है कि अपने आपके बदल लेने पर बाहर के दृश्य भी बदले जाते हैं। स्वर्ग और नरक हमारे अपने भीतर छिपे बैठे हैं। उनमें से चाहे जिसे भी स्वेच्छापूर्वक अपने लिए प्रस्तुत किया जा सकता है। प्रत्येक आत्मविद्या के ज्ञाता का यही अनुभव है कि अपना दृष्टिकोण बदलते ही सारी दुनिया बदल जाती है। बाहर के सारे लोग सेवा में उपस्थित रहें और सारी विभूतियाँ चरणों में प्रस्तुत कर दें तो भी वासना और तृष्णा का बीमार, माया के सन्निपात ज्वर में ग्रस्त व्यक्ति संतुष्ट नहीं हो सकता, पर जिसने अपनी समस्याओं का, और इस जादूनगरी का सही रूप समझ लिया, उसके लिए हँसने, उल्लसित एवं संतुष्ट रहने के अतिरिक्त और कोई हड़बड़ी जैसी बात यहाँ नहीं है।

ध्रुवसत्य और सुनिश्चित तथ्य

हमारी यह मान्यताएँ सनातन सत्य और ध्रुवतथ्यों पर निर्भर हैं। हमने स्वयं इस सत्य का परीक्षण अपने जीवन पर किया है, और अक्षरशः खरा पाया है। जिन दूसरों ने भी ऐसा प्रयोग अपने ऊपर किया है उनका भी यही निष्कर्ष है। अखण्ड ज्योति परिवार के प्रत्येक परिजन को हम उसी सत्य का दर्शन और इसी तथ्य का अनुभव कराना चाहते हैं। इन्हें बदलना चाहते हैं, ताकि वे बदले हुए प्रतिफल का लाभ उठा सकें और यह देख सकें कि स्वर्ग यहीं मौजूद है और हम उसका पूरा−पूरा लाभ ले सकते हैं। अब आगे हम ऐसा ही प्रयत्न करने जा रहे हैं, उसी प्रक्रिया का नाम ‘युगनिर्माण योजना’ रखा है।

इसका लाभ सारे संसार को मिलने वाला है, पर आरंभ अखण्ड ज्योति परिवार से ही हो रहा है। जिनके साथ हम आत्मश्रद्धा और प्रेम के बंधनों से मजबूती के साथ जुड़े हुए हैं, उन्हीं से तो अपने को बदलने का अनुरोध कर सकते हैं। जिनसे हमारा कोई परिचय नहीं, जिन पर हमारा कोई प्रभाव नहीं, वे क्यों हमारी बातें सुनेंगे और सुन भी लें तो क्यों मानेंगे; इसलिए 'घर बाँधकर तब बाहर बाँधने' वाली कहावत के अनुसार युग−निर्माण का कार्य अपने घर से, अपने स्वजनों से आरंभ कर रहे हैं और इसलिए इसका नाम 'अखण्ड ज्योति' परिवार की युगनिर्माण योजना रखा है। आरंभ यहाँ से होकर इसका विस्तार तो सारे देश में, सारे समाज में, सारे विश्व में होना है।

संघशक्ति की आवश्यकता

युगनिर्माण योजना की आरंभिक एक मोटी रूपरेखा 'सितंबर अंक' में प्रस्तुत की जा चुकी है। अपने पैर जितने आगे बढ़ेंगे, उसी अनुपात से अधिक महत्त्वपूर्ण एवं अधिक प्रभावोत्पादक उत्तरदायित्व भी कंधे पर उठाए जावेंगे। आरंभिक दस सूत्री कार्यक्रम ऐसा है, जिसे कोई व्यस्त और फुरसत न मिलने की बात कहने वाला व्यक्ति भी चलते-फिरते पूरा कर सकता है। इधर रुचि बढ़ाने पर अधिक समय और मनोयोग लगने लगेगा तो वे सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक समस्याएँ सरलतापूर्वक हल होंगी, जो आज पहाड़ के समान भारी और समुद्र की तरह दुस्तर दिखती है। संघबद्ध आत्मबल का प्रचंड प्रभाव इतना बड़ा होता है कि उसकी तुलना में इंद्रवज्र भी छोटा पड़ता है। गांधी जी इसी अस्त्र को प्रबल और सार्थक बनाने में लगे हुए थे।

कहने की आवश्यकता नहीं कि इस युग की सबसे बड़ी शक्ति, संगठन है। इतिहास साक्षी है कि जब कभी युग-परिवर्तन जैसे महान और व्यापक कार्यों की योजना बनी है तो उसके लिए संघबल ही संपादित करना पड़ा है। लंकाविजय, गोवर्धन-धारण, बौद्धधर्म-प्रसार, सीता जन्म, दुर्गावतरण आदि की कथाएँ पाठकों को स्मरण हैं। वे जानते हैं कि संघशक्ति ही इस धरती का सबसे बड़ा चमत्कार है। बड़े कार्यों के लिए बड़ी शक्ति चाहिए और बड़ी शक्ति सदा से संगठन में सन्निहित रही है। युग-निर्माण जैसे महान कार्य के लिए भी संघशक्ति ही अपेक्षित है। इसलिए प्रारंभिक रूप से अखण्ड ज्योति परिवार को ही एक धर्मसंगठन का रूप दिया जा रहा है।

कथनी ही नहीं, करनी भी

प्रिय परिजनों को हम केवल सिखाते रहकर ही अपना जीवन व्यतीत नहीं कर देना चाहते, वरन यह भी चाहते है कि जो कहा गया है, सुनाया गया है, उसे समझा जाए और किया भी जाए। युगनिर्माण योजना केवल लेखों तक सीमित न रहने दी जाएगी, वरन अपने प्रत्येक परिजन पर हम दबाव डालेंगे की वे इस प्रक्रिया को कार्यांवित भी करें। ये कहना-सुनना सरल है,पर करना सदा ही कठिन होता है। इस कठिनाई को संघबद्ध होकर दूर किया जा सकता है। एकदूसरे की प्रेरणा से आगे बढ़ते हैं। देखा-देखी अनुकरण करना और जिधर बहुत चलें, उधर स्वयं भी चल पड़ना मानवीय प्रवृत्ति है। इसके कारण संघबद्ध आयोजन यदि सही आधार पर नियोजित किए गए हैं तो सदा बढ़ते, फैलते और सफल होते देखे जाते हैं।

अखण्ड ज्योति परिवार का संगठन इस आधार पर किया जा रहा है कि एक कर्मठ कार्यकर्त्ता जिसे शाखा-संयोजक कहा जाएगा, अपनी देख−रेख में लगभग 10 सदस्यों का उत्तरदायित्व संभाले और उन्हें युग-निर्माण की विचारधारा को कार्यान्वित कराने के लिए आवश्यक प्रकाश और प्रेरणा देता रहे। युगनिर्माण योजना का कोई शुल्क नहीं है, पर अखण्ड ज्योति का स्थायी ग्राहक होना अनिवार्य है। कर्मठ कार्यकर्त्ता सदा से अपने प्रयत्नों से 10-5 ग्राहक अखण्ड ज्योति के बनाते रहे हैं। उन्हें ही फिलहाल शाखा-संयोजक नियुक्त किया जा रहा है। जिनने प्रयत्न करके जिन्हें ग्राहक बनाया हो, वे उनसे मिल−जुलकर या पत्र व्यवहार द्वारा युग−निर्माण की विचारधारा को अपनाने और प्रस्तुत मार्ग पर चलने के लिए अनुरोध करते रहेंगे। अखण्ड  ज्योति की प्रेरणा और शाखा-संयोजकों का व्यक्तिगत अनुरोध, दोनों के सम्मिलित प्रयत्न से सदस्यगण आलस्य छोड़कर निर्धारित मार्ग पर उत्साहपूर्वक अग्रसर होने लगेंगे, ऐसी आशा है।

शाखा-संयोजकों का कार्यक्षेत्र

शाखा-संयोजक का क्षेत्र किसी नगर विशेष तक सीमित न रहेगा, वरन जहाँ भी उसका प्रभाव हो, वहाँ अखण्ड ज्योति के सदस्य बनावेगा और उन्हें चंदा वसूल करके ही छोड़ न देगा, वरन आवश्यक पूछताछ और विचार-विनिमय करके तथा संभव हो तो विचार गोष्ठियों के द्वारा योजना को कार्यान्वित करने को प्रयत्नशील रहेगा। जिन नगरों में कई शाखा-संयोजक हैं, वे सब मिलकर अपने नगर का केंद्रीय संगठन बना लेंगे और अपने−अपने सदस्यों की सम्मिलित गोष्ठियाँ भी समय−समय पर किया करेंगे। अब विचार गोष्ठियों में यज्ञकार्य प्रतीक रूप रहेंगे। छोटा हवन कम खरच से हो सकता है। जहाँ वैसी व्यवस्था न बन पड़े, वहाँ घी का दीपक जलाकर घृताहुतियों का, धूपबत्ती जलाकर हवन सामग्री का और सामूहिक गायत्री पाठ से मंत्र बोलने का उद्देश्य पूरा हो सकता है। इस प्रकार यज्ञ की एक छोटी प्रतीक पूजा आसानी से हो सकती है। सत्संगों के आरंभ में गायत्री जप, हवन, भजन आदि के कार्यक्रम भी रहें, पर प्रधानता विचार-विनिमय को दी जाए। जहाँ अच्छे वक्ता न हों, वहाँ अखण्ड ज्योति के लेख पढ़कर सुनाए जा सकते हैं।

प्रत्येक सदस्य यह करे

सदस्यगण यह करेंगे कि उन्हें भी स्वयं शाखा-संयोजक का स्वतंत्र उत्तरदायित्व उठाने का प्रयत्न करना है। प्रत्येक सदस्य प्रयत्न करे तो अपने संबद्ध दस सदस्य बना सकता है और इस प्रकार यह शृंखला बढ़ती हुई लाखों-करोड़ों व्यक्तियों को अपने संगठन में संघबद्ध कर सकती है । संगठन जितना बड़ा रूप धारण करेगा, उतना ही सुधार एवं परिवर्तन कार्य भी गतिशील होगा।

सितंबर अंक में ‘परिचय और विवरण’ नामक फाॅर्म अंतिम पृष्ठ पर छपा है, उसे भरकर अखण्ड ज्योति के प्रत्येक पाठक को इसी मास मथुरा भेज देना चाहिए। उससे उनकी परिस्थितियों का पता चलेगा और उस पर ध्यान रखते हुए उन्हें आवश्यक परामर्श देते रह सकना संभव होगा। इस फाॅर्म को भेजने में कोई सदस्य शिथिलता एवं आलस्य न करें।

प्रेमोपहार एवं ज्ञानदान

इस वर्ष के सभी अंक अपने ढंग के अनोखे हैं, उनमें प्रस्तुत विचारधारा की सभी विचारशील लोगों ने एक स्वर से भूरि-भूरि प्रशंसा की है। अब अंतिम चार अंक और भी अधिक महत्त्व के हैं। सितंबर का युगनिर्माण अंक पाठक पढ़ चुके हैं । इसे योजना का घोषणा-पत्र ही कहना चाहिए। अक्टूबर अंक आपके हाथ में है। उच्चस्तरीय गायत्री उपासना की दृष्टि से यह पाठ्य−सामग्री बहुमूल्य है। नवंबर और दिसंबर के अंक मानव जीवन की प्रत्येक समस्या और गुत्थी पर प्रकाश डालने वाले और उनका हल प्रस्तुत करने वाले होंगे। इन्हें जीवन विद्या अंक कह सकते हैं।

प्रत्येक परिजन को यह प्रयत्न करना चाहिए कि अपने मित्रों, स्वजन-संबंधियों, प्रेमी और परिचितों तक इन अंकों को पहुँचाने की व्यवस्था करें। चार अंकों का चंदा (1) यदि दबाव देकर या आग्रह करके भी वसूल करना पड़े तो वैसा करना चाहिए। उदार सज्जन ऐसा भी कर सकते हैं कि अपने पास से 10-5 रु. खरच करके अपने कुछ मित्रों को उपहार में चार अंक भिजवा दें। यह एक उच्चकोटि का ब्रह्मदान या ज्ञान उपहार हो सकता है।

शाखा-संचालक बनने की दृष्टि से यह तात्कालिक प्रयत्न बहुत ही सरल है। नमूने के रूप में चार अंक भिजवाने के लिए अपने पास से एक−एक रुपया जमा कर दिया जाए। अपने उपहार की सूचना उन्हें दे दी जाए और यदि उन्हें यह अंक पसंद आ जाए तो जनवरी में ग्राहक बनने की शर्त उनसे कर लें।

अखण्ड ज्योति परिवार को हम संगठित करना चाहते हैं। उसे आत्मबल का एक प्रचंड शक्तिस्रोत बनाना चाहते हैं। प्रत्येक को इसमें उत्साहपूर्वक भाग लेना चाहिए और समुचित सहयोग करना चाहिए।


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