कब्ज और उसका निवारण

January 1962

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कुपथ्य और असंयम

पिछले लेख में बताया जा चुका है कि पेट में कब्ज उत्पन्न होना ही समस्त रोगों का प्रधान कारण है। यद्यपि ब्रह्मचर्य का अभाव, रात को जागना, दिन में सोना, परिश्रम कम करना या बहुत अधिक करना, बहुत कपड़े लादे रहना, मुँह ढ़ककर सोना, गंदगी, छूत आदि भी बीमारियों के कारण होते हैं और उनसे बचना भी आवश्यक है, पर सबसे अधिक ध्यान पेट की खराबी को सुधारने पर ही दिया जाना चाहिए। यदि पाचन ठीक हो तो यह छोटी−मोटी अनियमितताऐं भी अनिष्टकर प्रभाव नहीं डाल सकतीं पर यदि पेट खराब है तो इन्हें पालन करते हुए भी आरोग्य की रक्षा न हो सकेगी। उपेक्षा तो इन बातों की भी नहीं करनी है, ध्यान तो इन सब का भी पूरा−पूरा ही रखा जाना चाहिए, पर मूल आधार के रूप में हमें अपना बिगड़ा स्वास्थ्य सुधारने के लिये पेट की दुर्बलता दूर करने का ही उपचार करना चाहिए।

पेट एक दिन में खराब नहीं होता और न वह एक दिन में सुधर सकता है। दुनियाँ में कोई दवा ऐसी नहीं है जो खान-पान की आदतों को सुधारे बिना बिगड़ी हुई पाचन क्रिया को ठीक कर दे। इसलिए जो लोग बीमारियों से ग्रसित हैं, जिन्हें कब्ज रहता है उन्हें यदि स्थिर आरोग्य की आकांक्षा हो तो पेट को सुधारने का एक स्थिर एवं सुव्यवस्थित अभियान प्रारम्भ करना चाहिये।

पुरानी गंदगी की सफाई

इस दिशा में एक कार्य तो यह करना होता है कि आँतों में जमे और चिपके हुए मल की एक बार पूरी तरह सफाई कर डाली जाय। पुराने कब्ज के कारण मल आँतों में पड़े−पड़े पहले तो सड़ता है फिर सूखकर गाँठों के रूप में रोड़ा जैसा बनकर अड़ जाता है। ऐसी अनेकों गाठें आँतों में पड़ी रहती हैं। कितनी ही तो आँतों की दीवार से ऐसी चिपक जाती हैं कि छुड़ाये नहीं छूटतीं। आँतें एक तो वैसे ही कमजोर थीं, आमाशय से आये हुए मल को गुदा मार्ग तक यथासमय पहुँचाने में वैसे ही असमर्थता अनुभव करती थीं, इस पर भी यह गाँठें मार्ग में अड़ जायें तो मलावरोध का उत्पन्न होना बिलकुल स्वाभाविक हो जाता है। इसलिए कब्ज का उन्मूलन करने के लिए पहला कदम यह होना चाहिए कि पेट में जमा हुआ, सड़ा हुआ, सूखा मल एक बार बिलकुल साफ कर दिया जाय। गंदी नाली में जब बहुत दुर्गन्ध उठने लगती है तब उसे एक बार जड़ तक साफ करने की, सारी कीचड़ का हटाकर पूरी तरह सफाई करने की आवश्यकता होती है। यदि ऊपर−ऊपर से थोड़ी कीचड़ हटा दी जाय तो फिनायल छिड़ककर बदबू को ऊपर से दबा दिया जाय तो उससे कुछ स्थायी सुधार न होगा। दो−चार दिन बाद फिर बदबू उठने लगेगी। ऐसी ही सफाई पेट की भी करनी पड़ती है।

वस्ति−क्रिया एक अमोघ साधन

पेट की सफाई धुलाई के लिए वस्ति क्रिया (एनीमा) को सर्वोत्तम माना गया है। दवाओं से दस्त लेने में जो हानियाँ हैं एनीमा उससे सर्वथा मुक्त है। दस्तावर दवायें आमाशय और आँतों में चुभती हैं और वहाँ से पानी बहने लगता है। जैसे आँखों में मिर्च लगने से आँसू बहने लगते हैं वैसा ही कार्य पेट में जाकर यह दस्तावर दवायें करती हैं। पेट के पोषक और पाचक रस उनके प्रभाव से तेजी के साथ बहने लगते हैं। उस बहाव में ऊपर-ऊपर का थोड़ा सा मल बह जाता है। इस प्रकार दस्त होने से पेट कुछ हलका तो मालूम पड़ता है पर आवश्यक रस एक साथ इतनी मात्रा में निकल जाते हैं तो पाचन−क्रिया बिलकुल शिथिल हो जाती है। यदि उन दिनों भारी भोजन कर लिया गया तो पेट की शिथिल स्थिति में नये कब्ज का यह एक और कारण बन जाता है। इस प्रकार दस्त लेने से तत्काल पेट हलका भले ही हो जाय पर उन दवाओं के प्रभाव से पेट की दुर्बलता और भी अधिक बढ़ जाने से कब्ज के स्थायी होने की और भी अधिक संभावना बढ़ जाती है।

आराम और विश्राम की आवश्यकता

एनीमा के द्वारा जो पानी गुदा मार्ग से पेट में चढ़ाया जाता है वह आँतों की भली प्रकार सफाई कर देता है। लगातार कुछ दिन एनीमा लेते रहने से पुराना मल, सूखी हुई गाँठें निकलने लगती हैं। इस प्रकार आँतों की धुलाई भली प्रकार हो जाती है। इस सफाई की अवधि में पेट को अधिक से अधिक विश्राम देना आवश्यक होता है। आरम्भ में कुछ समय बिलकुल निराहार रहना और फिर दूध, छाछ, फलों का रस या शाकों का जूस लेते रहना, पेट को विश्राम देने का उचित उपाय है। एक ओर सफाई होने और दूसरी ओर विश्राम मिलने से थका हुआ, दुर्बल बना हुआ पेट अपनी थकान दूर कर लेता है और आराम मिल जाने से खोई हुई शक्ति को पुनः प्राप्त कर लेता है। थका मनुष्य रात्रि में नींद भर सो लेने से जिस प्रकार सवेरे ताजगी लिये हुए उठता है, उसी प्रकार यह सफाई और विश्राम की प्रक्रिया भी पेट को सो लेने का अवसर देती है और वह फिर धीरे−धीरे अपनी स्वाभाविक पाचन−क्रिया को सामान्य रूप से ठीक प्रकार चलाने की स्थिति में आ जाता है। पेट ठीक काम करने लगे और शुद्ध रक्त बनने लगे तो फिर बीमारियों की जड़ ही कट जाती है। रोग किसी भी अंग में क्यों न हो वहाँ तुरन्त लाभ दीखने लगता है।

भीतरी सफाई का प्रत्यक्ष प्रभाव

वैद्य लोग पुराने रोगों से ग्रसित रोगियों को पंच कर्म के द्वारा पहले उनका शरीर शोधन कर लेने और पीछे अन्य दवादारू देने की विधि को चिरकाल से जानते हैं। आयुर्वेद शास्त्र में पंच कर्मों का महत्व अत्यन्त विस्तारपूर्वक समझाया गया है। वस्ति (एनीमा), वमन, विरेचन, स्नेहन, स्वेदन यह पाँच कर्म देह में भीतर जमी हुई रोगों की जड़ को उखाड़ फेंकने के लिए बहुत ही प्रभावपूर्ण माने गये हैं। डाक्टर लोग भी अब अनेकों रोगों में पहले पेट साफ करने की दवायें देते हैं पीछे अन्य उपचार आरम्भ करते हैं। पेट की गर्मी कम होते ही विभिन्न अंगों में भरे हुए विष तुरन्त ढीले पड़ते हैं और रोग में तत्काल लाभ दिखाई देने लगता है। सिर दर्द, आँखें दुखना, मुँह के छाले, खुजली, रक्त विकार जैसे रोगों में आमतौर से पेट साफ करने के साथ ही अन्य चिकित्सा आरम्भ की जाती है। प्राकृतिक चिकित्सा का तो आधार ही उपवास और एनीमा है। उस विज्ञान के अनुसार दवादारू व्यर्थ ही नहीं वरन् हानिकारक भी है। प्रत्येक रोग का एकमात्र इलाज प्राकृतिक चिकित्सा में पेट की सफाई है। उपवास और एनीमा का वे प्रत्येक रोग में प्रयोग करते हैं। मिट्टी की पट्टी, टबबाथ, कटिस्नान, मेहन स्नान, गीली चादर, वाष्पस्नान आदि प्रक्रियाओं का तो गौण स्थान ही रहता है। बिगड़े हुए पुराने जीर्ण रोगों में प्राकृतिक चिकित्सा जितनी सफल होती है उतनी और कोई पद्धति सफल नहीं होती।

कल्प−चिकित्सा का अमोघ उपचार

पेट की सफाई के लिए आयुर्वेद शास्त्र की कल्प−चिकित्सा बहुत ही उपयोगी हैं। प्राचीनकाल में कुछ ऐसी औषधियों का तथा उपचार, प्रयोगों का लोगों को पता था जिनके सहारे पुराने जीर्ण−शीर्ण शरीरों को युवावस्था जैसा बना दिया जाता था। इसे कायाकल्प कहते थे। योगी लोग योग पद्धति से भी अपने वृद्ध शरीरों को पुनः युवा बना लेते थे। वह विद्या तो अब अन्य अनेक प्राचीन विद्याओं की भाँति लुप्त हो गई पर उसका एक अंश ‘कल्प−चिकित्सा’ अभी भी मौजूद है, जिसके लाभों को देखते हुए यह विश्वास किया जा सकता है कि प्राचीनकाल में ऐसी कोई विद्या रही हो तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।

दूध कल्प, छाछ कल्प, रस कल्प, यूष कल्प, आदि अनेक कल्प ऐसे हैं जो पुराने रोगों की पेट में रहने वाली जड़ को काट देने में अभी भी आश्चर्यजनक परिणाम उपस्थित करते देखे जाते हैं। बहुधा 40 दिन तक वैद्य लोग इस प्रकार के कल्प कराते हैं। पुराने ढंग के वैद्य केवल साधारण आहार बंद कराकर दूध, छाछ आदि पर रोगी को रखने और लौह पर्पटी आदि औषधियाँ देते रहने की प्रणाली अपनाते थे और उससे भी बहुत कुछ लाभ होता था। पर अब प्रबुद्ध वैद्यों ने इस कल्प−चिकित्सा में पंच कर्मों का भी समावेश करके उसे सर्वांगपूर्ण बना दिया है। वस्ति (एनीमा, स्नेहन, स्वेदन (वाष्प उपचार) आदि का प्रयोग करने से प्राकृतिक चिकित्सा के सभी तत्वों का इस प्रणाली में समावेश हो जाता है। साथ ही औषधियों का उपचार चलते रहने से दुहरे लाभ की संभावना रहती है। कल्प−चिकित्सा की यह प्रणाली अधिक प्रभावपूर्ण रहती है। 40 दिन का कल्प और 20 दिन पीछे धीरे−धीरे स्वाभाविक भोजन पर आने में इस प्रकार करीब दो महीने तो इस प्रक्रिया में लग जाते हैं, पर पेट का सुधार उससे भली प्रकार हो जाता है। पीछे यदि आहार−विहार ठीक रखा जाय और कुपथ्य द्वारा फिर पहले जैसा बिगाड़ उत्पन्न न कर लिया जाय तो पावन क्रिया सीधे रास्ते पर चलने लगती है। कब्ज की जड़ कट जाने से उसके शाखा पल्लवों के रूप में सारे शरीर में फैले हुए विभिन्न रोग भी नष्ट हो जाते हैं। स्वास्थ्य सुधार की यह एक उत्तम परिपाटी है।

शिक्षा और चिकित्सा की व्यवस्था

जिनके पेट अधिक दुर्बल हो गये हैं उनके लिए कल्प−चिकित्सा द्वारा उपचार करने तथा इस विज्ञान की सांगोपांग शिक्षा देने का प्रबंध गायत्री तपोभूमि में किया जा रहा है। संभवतः इसी अप्रैल से पहला वर्ग आरम्भ भी हो जायेगा। प्रत्येक वर्ग की अवधि दो−दो मास की रहा करेगी। 40 दिन का कल्प, 20 दिन स्वाभाविक भोजन पर पुनः लौटने का समय इस प्रकार 60 दिन लगा करेंगे। प्रतिदिन स्वास्थ्य विषयक एक प्रवचन, आरोग्य शास्त्र का स्वाध्याय करने के लिए तत्संबंधी पुस्तकालय, आरोग्य शास्त्र का व्यावहारिक शिक्षण, आसन, प्राणायाम, सूर्य नमस्कार, मालिश, सूर्य−किरण चिकित्सा, वाष्प स्नान जलोपचार, आदि का दैनिक कार्यक्रम रहेगा। स्वास्थ्य बिगाड़ने की भूलों के प्रायश्चित स्वरूप 40 दिन का यह कल्प उपवास एक प्रकार का चांद्रायण व्रत ही है, गायत्री उपासना भी इसमें सम्मिलित रहने से इस कार्यक्रम से शारीरिक ही नहीं आत्मिक काया−कल्प भी होने की संभावना है। नित्य यज्ञ में सम्मिलित रहने से यज्ञ चिकित्सा का भी लाभ मिलेगा। अपने बिगड़े हुए पेट को सुधारने और आगे के लिए आहार−विहार संबंधी अच्छी आदतें डाल लेने के लिए यह दो महीने का शिक्षण काल किसी भी आरोग्याकाँक्षी के लिए बहुत लाभदायक सिद्ध हो सकता है। अपने तथा अपने परिजनों के लिए इस उपयोगी पद्धति को काम में लाकर एक स्वास्थ्य रक्षक की योग्यता भी प्राप्त की जा सकती है। जिन्हें इस संबंध में अधिक जिज्ञासा हो वे गायत्री−तपोभूमि मथुरा के पते पर पत्र व्यवहार कर सकते हैं।

पेट की अशक्तता और दुर्बलताओं को ठीक करने के लिए आहार संबंधी अपनी गतिविधियों को सुधारने की आवश्यकता रहती है, साथ ही स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए, ब्रह्मचर्य, श्रमशीलता, इन्द्रिय संयम, नियमित दिनचर्या एवं मस्तिष्क को शान्त रखने की आवश्यकता होती है। इन सब बातों को ठीक तरह समझ लेने और उन पर ठीक प्रकार अमल करने से स्वास्थ्य की सुरक्षा का बीमा हो सकता है और जो बीमारियाँ पीछे पड़ी रहती हैं उनसे पीछा छूट सकता है।

प्रथम सुख और प्रधान साधन

सुखों में पहला सुख ‘निरोगी काया’ माना गया है। यदि वह प्राप्त नहीं तो दूसरे अन्य सुख व्यर्थ ही रह जाते हैं। मानव जीवन का लक्ष अस्वस्थ व्यक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। कोई भी पुरुषार्थ चाहे वह आत्मिक हो या लौकिक, शुभ हो या अशुभ, शरीर की स्वस्थता के आधार पर ही बन पड़ना संभव है। आयुष्य का लम्बा और पूरा उपयोग भी वे ही कर पाते हैं जो निरोग रहते हैं। रोगी मनुष्य जहाँ पीड़ाओं से कराहते हुए दिन व्यतीत करते हैं वहाँ उनकी आयु भी घटती चलती है और उन्हें अकाल मृत्यु की तरह असमय में ही काल का ग्रास बनना पड़ता है। इस संसार में दीर्घायु केवल वे ही हुए हैं जो निरोग रहे हैं। जिन्हें बीमारी घेरे हैं उनका बुढ़ापा जवानी में ही आ जाता है और उसके पीछे−पीछे मौत भी जल्दी ही आ धमकती है। ऐसे व्यक्ति जब कभी अपने मानव जन्म को लेखा-जोखा लेने बैठते हैं तब उन्हें यही प्रतीत होता है कि हमारा यह जीवन बेकार ही रहा- व्यर्थ ही गया। धन−दौलत या अच्छे स्वजनों से कुछ सुविधा अवश्य रहती है पर अस्वस्थता की कमी को बाहरी दुनियाँ की कोई वस्तु पूरा नहीं कर सकती।

उन्नति और प्रगति का साधन

कोई देश समाज, वर्ग, समूह, धर्म तब तक समुन्नत नहीं हो सकता जब तक उसके लोग स्वस्थ न हों। बुद्धि−बल, श्रमशीलता , दुस्साहस, आशा, उत्साह, धैर्य, लगन, चरित्र, त्याग, माधुर्य आदि सद्गुण ही मनुष्य की मूलभूत सम्पत्ति हैं, इन्हीं के आधार पर उसे बाह्य−जीवन में भौतिक सम्पदायें प्राप्त होती हैं। जिनमें यह गुण न होंगे वे लौकिक जीवन में दीन−हीन ही बने रहेंगे, इसलिए सदा ही यह आवश्यकता अनुभव की जाती है कि राष्ट्रीय सम्पदा के मूल कारण गुणों से सुसम्पन्न नागरिक बढ़ें। कोई देश केवल गुणवान नागरिकों से ही समुन्नत हो सकता है। गुणहीन जनसंख्या तो भार रूप ही मानी जाती है। यह गुणशीलता आरोग्य की भूमि पर ही उपजती और बढ़ती है इसलिए राष्ट्रीय दृष्टि से भी और वैयक्तिक दृष्टि से भी निरोगता की उपयोगिता सर्वोपरि है। हमें अपने निज के आरोग्य की भी चिन्ता करनी चाहिए और अपने स्वजन परिजनों के स्वास्थ्य की उन्नति का भी ध्यान रखना चाहिए।


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