लक्ष के पथ पर

January 1962

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अष्टग्रही योग के संदर्भ में गत सितम्बर अंक में यह बताया गया था कि इस प्रक्रिया के फलस्वरूप एक ओर जहाँ अगले दस वर्षों तक मानव जाति को कई आपत्तियों का सामना करना पड़ेगा वहाँ दूसरी ओर नवीन युग के आविर्भाव का श्रीगणेश भी होगा। विनाश के अशुभ कारणों के समाधान के लिए हमें अपनी उपासना एवं पुण्य प्रवृत्तियों को बढ़ाना चाहिए। धर्म कर्मों की की अभिवृद्धि होने से वातावरण में पवित्रता उत्पन्न होती है और उसके फलस्वरूप जो दैवी अशुभ अनिष्ट आने वाले हैं वे भी शान्त होते हैं। इस दिशा में आवश्यक प्रेरणाएँ दी जा रही हैं और वैयक्तिक एवं सामूहिक धर्मानुष्ठानों में प्रवृत्ति बढ़ रही है। यह प्रयत्न उत्साहपूर्वक बढ़ते रहें तो प्रकृति के अशुभ प्रयत्नों पर भी एक बड़ी सीमा तक काबू पाया जा सकता है, उनका बहुत अंशों में समाधान हो सकता है।

संदर्भ का दूसरा महत्व

दूसरी प्रक्रिया जो इस योग के आधार पर विकसित होने वाली है। वह युग−निर्माण की है। भारत का भविष्य सब प्रकार उज्ज्वल बनाने में यह योग बहुत ही महत्वपूर्ण है। तीस वर्ष बाद भारत संसार की सबसे बड़ी शक्ति होगा। विश्व का नेतृत्व यहीं की सभ्यता और संस्कृति करेगी और विज्ञान, उत्पादन, स्वास्थ्य, शिक्षा, शिल्प, राजनीति, शस्त्र, सेना, धर्म, सभ्यता की दृष्टि से इस देश की महत्ता सर्वोपरि हो जायगी। इस स्थिति का शुभारंभ भी अभी से होना है। अष्टग्रही योग के साथ−साथ यह निर्माणात्मक प्रक्रियाऐं भी अपने आप विकसित होंगी।

अखण्ड ज्योति परिवार की ओर से यह दोनों ही कार्यक्रम सुसंयत ढंग से चल रहे हैं। व्यक्तिगत उपासना की कक्षा ऊँची एवं तीव्र करने के लिए पंचसूत्री साधना क्रम चल रहा है। अशुभ अनिष्ट की शान्ति के लिए सामूहिक धर्मानुष्ठानों की गतिविधियाँ सक्रिय हैं। युग निर्माण की दिशा में जो कार्यक्रम पिछले पच्चीस वर्षों से किसी रूप में चल रहा था उसे भी अब सुव्यवस्थित रूप दिया जा रहा है। आत्मिक उत्कृष्टता और भौतिक श्रेष्ठता के दोनों लक्ष प्राप्त करने के लिए अब तक के चलते आ रहे अभियान को इस पुण्य पर्व पर बहुत ही सुव्यवस्थित रूप दिया गया है और इसे सुसंयत रूप से अग्रगामी बनाया जायेगा। अखण्ड ज्योति जिस मिशन को लेकर अवतीर्ण हुई थी उसे उसने अब तक बहुत शानदार ढंग से निबाहा है। अब आगे के दस वर्ष तो उसे जी जान से जुट जाने के लिए मिले हैं। लक्ष की पूर्ति के लिए हम सब को अब उसी ओर द्रुतगति से अग्रसर होना है।

हमारे दो कार्यक्रम

हम आत्मकल्याण और युग निर्माण—इन दो कार्यक्रमों को लेकर आगे बढ़ रहे हैं। गाड़ी के दो पहियों की तरह हमारे जीवन के दो पहलू हैं एक भीतरी दूसरा बाहरी। दोनों के सन्तुलन से ही हमारी सुख शान्ति स्थिर रह सकती है और इसी स्थिति में प्रगति सम्भव है। मनुष्य आत्मिक दृष्टि से पतित हो, दुर्मति, दुर्गुणी और दुष्कर्मी हो तो बाहरी जीवन में कितनी ही सुविधायें क्यों न उपलब्ध हों वह दुखी ही रहेगा। इस प्रगति की यदि बाह्य परिस्थितियाँ दूषित हैं तो आन्तरिक श्रेष्ठता भी देर तक टिक न सकेगी। असुरों के प्रभुता काल में बेचारे सन्त महात्मा जो किसी का कुछ नहीं बिगाड़ते थे अनीति के शिकार होते रहते थे। भगवान राम जब वनवास में थे तब उन्होंने असुरों द्वारा मारे गये सन्त महात्माओं की अस्थियों के ढेर लगे देखकर बहुत दुख मनाया। जिस समाज में दुष्टता और दुर्बुद्धि बढ़ जाती है उसमें सत्पुरुष भी न तो अपनी सज्जनता की और न अपनी ही रक्षा कर पाते हैं। इसलिए जीवन के दोनों पहलू ही रथ में जुते हुए दो घोड़ों की तरह सम्भालने पड़ते हैं। दोनों में ताल−मेल बिठाना पड़ता है। रथ का एक घोड़ा आगे की ओर चले और दूसरा पीछे की तरफ लौटे तो प्रगति रुद्ध जो जाती है। इसी प्रकार हमारा बाह्य जीवन और आन्तरिक स्थिति दोनों का समान रूप से प्रगतिशील होना आवश्यक माना गया है।

आत्मा सूक्ष्म है, निराकार है। स्थूल वस्तुओं की सहायता से ही उसका अस्तित्व और आकार सामने आता है। शरीर के आधार पर वह कार्य करता है, मन के आधार पर वह सोचता है और संसार क्षेत्र में गतिशील रहता है। शरीर, मन और संसार यह तीनों ही आत्मा के बाह्य शरीर हैं। इन तीनों की सुव्यवस्था पर आत्मिक स्थिरता निर्भर रहती है। आत्म कल्याण के लिए ईश्वर उपासना एवं योग साधना की आवश्यकता होती है; यह हमारी अत्यन्त महत्वपूर्ण आवश्यकता है। इसकी पूर्ति के लिए ऋषियों, शास्त्रों एवं पुरोहितों ने हमें कुछ−न−कुछ समय नित्य लगाते रहने का आदेश दिया है उपासना और साधना रहित व्यक्ति की आत्मा मलीन और पतनोन्मुख हो जाती है। स्वार्थ और भोग का नशा उसे पाप की नारकीय ज्वाला में घसीट ले जाता है। इसलिए अपने अस्तित्व का सही रूप जानने और अपने लक्ष के प्रति गतिशील रहने के लिए उसे आध्यात्म का सहारा लेना पड़ता है। आत्म−कल्याण का यही मार्ग है।

जीवन के तीन आधार

जितनी आवश्यकता आत्म−कल्याण की है उतनी ही जीवन के तीन आधारों को स्वस्थ रखने की है। शरीर, मन और समाज यही तीन आधार हैं जिन पर हमारी जीवन−यात्रा गतिवान रहती है। शरीर अपंग हो जाय, मन उन्मादग्रस्त हो जाय और संसार में युद्ध, दुर्भिक्ष, महामारी, भूकम्प जैसी आपत्तियाँ उत्पन्न हो जाएँ तो शांति रहेगी? कहाँ तो प्रगति टिकेगी? आत्म−कल्याण का लक्ष भी इन परिस्थितियों में किस प्रकार उपलब्ध हो सकेगा?

राजशासन और सामाजिक संस्थानों द्वारा यह प्रयत्न किसी न किसी रूप में रहता ही है कि जनता का शरीर, मन और सामाजिक स्तर सुस्थिर रहे। इसके बिना भौतिक प्रगति के सारे प्रयत्न निष्फल रहेंगे। जिस देश के निवासी बीमारी और कमजोरी से घिरे हों, मनों में अविवेक, अन्धविश्वास, असन्तोष घर किये हुए हों, समाज में द्वेष, असहयोग, अनीति, पाप, स्वार्थ जैसी प्रवृत्तियाँ पनप रही हों तो उस देश का भविष्य उज्ज्वल कैसे हो सकता है? चाहे कोई देश हो या समाज, गाँव हो या घर, परिवार हो या व्यक्ति , जहाँ भी यह असन्तुलन रहेगा, वहाँ न सुख दृष्टिगोचर होगा न शान्ति। पतन और पीड़ा विक्षोभ और असफलता ही वहाँ फैली फूटी दिखाई पड़ेगी।

एक समस्या के दो पहलू

भौतिकता और आध्यात्मिकता का परस्पर संयोग है। दोनों एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। एक के बिना दूसरी अधूरी है। जंगल में गुफा में भी रहने वाले विरक्त महात्मा को भोजन, प्रकाश, वस्त्र, माला, कमंडल, आसन, खड़ाऊ, पुस्तक, कम्बल, आग आदि वस्तुओं की आवश्यकता रहेगी ही और इन सब को जुटाने का प्रयत्न करना ही पड़ेगा, इसके बिना उसका जीवित रहना भी सम्भव न रहेगा। इतनी भौतिकता तो गुफा निवासी महात्मा को भी बरतनी पड़ेगी और अपने परिवार के प्रति प्रेम और त्याग बरतने की आध्यात्मिकता चोर उठाईगीरे और निरन्तर स्वार्थरत भौतिकवादी को भी रखनी पड़ेगी। भौतिकता को तमतत्व और आध्यात्मिकता को सततत्व, माना गया है। दोनों के मिलने से रजतत्व बना है। इसी में मानव की स्थिति है। एक के भी समाप्त हो जाने पर मनुष्य का रूप ही नहीं रहता। तम नष्ट होकर सत ही रह जाय तो व्यक्ति देवता या परमहंस होगा। यदि सत नष्ट होकर तम ही रह जाय तो असुरता या पैशाचिकता ही बच रहेगी। दोनों स्थितियों में मनुष्यत्व का व्यतिरेक हो जायेगा। इसलिए मानव जीवन की स्थिति जब तक है तब तक भौतिकता और आध्यात्मिकता दोनों ही साथ−साथ रहने वाली हैं। अन्तर केवल प्राथमिकता का है। सज्जनों के लिए आध्यात्मिकता की प्रमुखता रहती है, वे उसकी रक्षा के लिए भौतिक आधार की बहुत अंशों तक उपेक्षा भी कर सकते हैं। इसी प्रकार दुर्जनों के लिए भौतिकता का स्थान पहला है वे उस प्रकार के लाभों के लिए आध्यात्मिक मर्यादाओं का उल्लंघन भी कर देते हैं। इतने पर भी दोनों ही प्रकृति के लोग किसी न किसी रूप में भौतिक और आत्मिक तथ्यों को अपनाते ही हैं, उन्हें अपनाये ही रहना पड़ता है।

अगली कक्षाओं में प्रवेश

आत्म−कल्याण की महान प्रक्रिया गायत्री उपासना की प्रथम कक्षा को बढ़ाकर अब दूसरी कक्षा का कार्यक्रम प्रस्तुत कर दिया गया है। जप, अनुष्ठान हवन से आगे बढ़कर पंचकोशों के अनावरण के लिए उठाये गये कदम प्रगति की दृष्टि से आवश्यक थे। इसी प्रकार युग−निर्माण के लिए भी अब अगली कक्षा आरंभ होनी ही है। यह अगले कदम अधिक महत्वपूर्ण, अधिक उपयोगी, अधिक प्रभावशाली, अधिक व्यापक होंगे। छोटी कक्षाओं की तुलना में उच्च कक्षाएँ हर दृष्टि से भारी बैठती हैं, हमारे अगले कार्यक्रम भी अधिक उच्चकोटि के होने हैं। एक वर्ष के अज्ञातवास का अवकाश इसी की तैयारी के लिए था।

ऊपर कहा जा चुका है कि आत्मा का बाह्य−कलेवर, भौतिक क्रिया कलाप—शरीर, मन और समाज के तीन आधारों पर उसी प्रकार आधारित है जिस प्रकार हमारा आन्तरिक स्तर अन्नमय−कोश, मनोमय कोश, प्राणमय−कोश, विज्ञानमय−कोश, आनन्दमय-कोश के पाँच संस्थानों पर निर्भर है। आत्म−कल्याण की उच्च कक्षा में प्रवेश पाने के लिए जिस प्रकार इन पाँचों कोशों का अनावरण करना अभीष्ट है उसी प्रकार युग−निर्माण के लिए, भौतिक जीवन की सुस्थिरता के लिए (1) स्वस्थ शरीर (2) शुद्ध मन और (3) सभ्य समाज की आवश्यकता है। आध्यात्मिक और भौतिक प्रगति के दोनों पहिये जब चलेंगे तभी हम सच्ची सुख-शान्ति के अधिकारी बनेंगे। दोनों हाथ, दोनों पैर, दोनों आँख, दोनों कान, दोनों फेफड़े ठीक होने पर ही शरीर की स्वस्थता और सुडौलता निर्भर है। यदि लकवा मार जाय या कोई व्यक्ति टोंटा, लंगड़ा, काना हो जाय तो वह अधूरा अपंग ही रहेगा, इसी प्रकार हमारी आत्मिक और भौतिक प्रगति का समन्वय ही सच्चा विकास कहलावेगा। एकांगी विकास में अति है समस्वरता नहीं, वह आश्चर्यजनक हो सकती है आदर्श नहीं। हमें आदर्श को ही अपनाना पड़ेगा क्योंकि उसी में शक्ति और उसी में स्थिरता सन्निहित है।


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