युग निर्माण योजना और उसकी पृष्ठभूमि

January 1962

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युग निर्माण की पुण्य प्रक्रिया को अग्रगामी बनाने के लिए हमें मिलजुलकर बहुत कुछ करना है। अग्रगामी दस वर्षों में जो कुछ करना है उसका आरम्भ अब नहीं तो फिर कब किया जाएगा?

शरीर को स्वस्थ रखने के लिए जिस संयमशीलता की आवश्यकता है उसकी जानकारी हममें से प्रत्येक की होनी चाहिए। इतना ही नहीं कभी रोगों से पाला पड़े तो हर व्यक्ति को अपनी चिकित्सा स्वयं करने की योग्यता भी रहनी चाहिए। यह उचित और सरल है। कब्ज पर काबू पाने की विधि ज्ञात हो जाय तो फिर निरोग रहने की निश्चिन्तता हो सकती है। संयमित जीवन अपनाने की विचारधारा जितनी पनपेगी उतना ही हम आरोग्य और दीर्घ जीवन का आनन्द प्राप्त करने में सफल हो जावेंगे।

शिक्षा की केन्द्रीय व्यवस्था

गायत्री तपोभूमि में अप्रैल से आरोग्य शिक्षा एवं कल्प चिकित्सा के दो−दो महीने वाले शिविर आरम्भ होंगे। जो लोग उनमें शामिल होंगे वे लाभ प्राप्त करेंगे। पर यह सुविधा सबको तो प्राप्त नहीं हो सकती। रोगियों और शिक्षार्थियों के लिये इतनी जगह और व्यवस्था यहाँ कहाँ है, जिसमें घर−घर में बीमारी और कमजोरी से पीड़ित व्यक्तियों का उपचार एवं शिक्षण यहाँ किया जा सके। फिर घर छोड़कर बाहर जाने में काम का हर्ज और मार्गव्यय, विशेष भोजन, उपचार आदि का खर्च भी पड़ता है जिसे सहन करना हर किसी के लिए सम्भव नहीं हो सकता। एक केन्द्रीय शिक्षण संस्था एवं आदर्श चिकित्सालय के रूप में ऐसी व्यवस्था का रहना ठीक है, पर इससे आरोग्य की व्यापक समस्या का हल नहीं हो सकता। यह समाधान तो तभी होगा जब स्वास्थ्य सुधार की , संयम, शिक्षा, आसन, प्राणायाम, व्यायाम, मालिश, जल उपचार, सूर्य उपचार, वस्तिक्रिया, उपवास, आहार शास्त्र आदि की जानकारी और प्रेरणा देने वाले प्रसार केन्द्र जगह−जगह हों। वहाँ जड़ी−बूटियों से बनी थोड़ी दवा-दारु भी सामयिक उपचार के रूप में रह सकती हैं पर मूल उद्देश्य आरोग्य शिक्षा ही हो। आरोग्य सम्बन्धी अज्ञान जितना बेपढ़ों की है उतना ही पढ़े-लिखों को भी है। सच तो यह है कि इस सम्बन्ध में बेपढ़ों से, पढ़े हुए अधिक मूर्ख हैं। कृत्रिमता चटोरापन, प्रकृति के प्रतिकूल रहन−सहन, आलस, नशा, व्यसन आदि में बेपढ़ों से वे कहीं आगे हैं इसलिये वे ही रोगी भी अधिक हैं। इनको दवायें नहीं उबार सकती हैं। प्राकृतिक जीवन की आरोग्य शिक्षा को अपनाने से ही इनका भला हो सकता है और खोया हुआ आरोग्य शिक्षा को अपनाने से ही इनका भला हो सकता है और खोया हुआ आरोग्य वापिस लौट सकता है। यह कार्य असप्ताल नहीं आरोग्य शिक्षा केन्द्र ही कर सकते हैं। भले ही स्वास्थ्य सुधार के नाम पर सही पर यदि हम स्वयं संयम सीखें और दूसरों को संयम सिखावें तो बाहर से भौतिक दीखते हुए भी वस्तुतः यह एक आध्यात्मिक कार्य ही है। तप साधना का पहला चरण संयम है। व्रत, उपवास ब्रह्मचर्य, मौन, जप, ध्यान आदि साधनाओं का उद्देश्य संयम साधना ही तो है। अनुशासन और नियमितता जैसे महान गुण इस साधना के साथ जुड़े हुए हैं।

मानसिक और सामाजिक बुराइयाँ

मन की मलीनता और समाजगत बुराइयाँ एवं कुरीतियाँ इसलिए टिकी हुई और बढ़ी हैं कि उनका पोषक वातावरण चारों ओर बना रहता है। मन एक दर्पण की तरह है उस पर जैसी छाया पड़ती है वैसा ही प्रतिबिम्ब दीखने लगता है। हमारे चारों ओर आज जिस प्रकार के विचार और कार्य फैले होते हैं उसी का प्रभाव ग्रहण करके अपनी प्रवृत्तियाँ भी उसी ओर मुड़ने लगती हैं। एक बुरा व्यक्ति दूसरे अनेकों को अपनी बुराइयाँ सिखा लेता है। व्यभिचारी, नशेबाज, दुर्व्यसनी अपनी आदतों को कितने ही लोगों को सिखा देते हैं। कुविचारों को फैलाने के अगणित माध्यम आज मौजूद हैं। अश्लीलता, कामुकता, व्यभिचार, उच्छृंखलता को प्रोत्साहन देने वाली पुस्तकों, तस्वीरों, गीतों, पत्र−पत्रिकाओं, फिल्मों की आज भारी धूम है, उनका आकर्षक एवं व्यापक प्रचार जन साधारण के भोले मस्तिष्कों को प्रभावित करके उन्हें अपने चंगुल में जकड़ लेता है और लोगों के मन बुराइयों की ओर झुक पड़ते हैं।

बुरे आदमी बुराई के सक्रिय सजीव प्रचारक होते हैं। वे अपने आचरणों द्वारा बुराइयों की शिक्षा लोगों को देते हैं। उनकी कथनी और करनी एक होती है। जहाँ भी ऐसा सामंजस्य होगा उसका प्रभाव अवश्य पड़ेगा। हम में से कुछ लोग धर्म−प्रचार का कार्य करते हैं पर वह सब कहने भर की बातें होती हैं। इन प्रचारकों की कथनी और करनी में अन्तर रहता है। यह अन्तर जहाँ भी रहेगा वहाँ प्रभाव भी क्षणिक रहेगा। सच्चे धर्म प्रचारक जिनकी कथनी और करनी एक रही है अपने अगणित अनुयायी बनाने में समर्थ हुए हैं। बुद्ध, गाँधी, तिलक, कबीर, नानक आदि की कथनी और करनी एक थी, वे अपने आदर्शों के प्रति सच्चे थे, इसलिए अगणित व्यक्ति उनका अनुकरण करने वाले, उनके आदर्शों पर बड़े से बड़ा त्याग करने वाले प्रस्तुत हो गये थे। आज अच्छाइयों के सच्चे एवं आदर्श प्रचारक नहीं है। बुराइयों के आस्थावान प्रचारक मौजूद हैं, वे बुरे काम करते हैं, बुराइयाँ सिखाते हैं, पर ऐसे धर्म−प्रचारक कहाँ हैं जो अपने आचरणों से दूसरों को शिक्षा और प्रेरणा प्रदान करें। जहाँ थोड़े बहुत सच्चे लोग हैं वहाँ प्रभाव भी पड़ रहा है। हजारों मील से आकर विदेशी ईसाई मिशिनरी भारत में ईसाई धर्म का प्रचार पूरी आस्था और लगन के साथ कर रहे हैं फलस्वरूप गत दस वर्षों में ही लाखों की संख्या में लोगों ने हिन्दू धर्म का परित्याग कर ईसाई धर्म की दीक्षा ली है।

सद्विचारों की उपयोगिता और आवश्यकता

हमारा शरीर आहार के आधार पर बनता और बिगड़ता है। इसी प्रकार मन का बनाव और बिगाड़ विचारों पर निर्भर रहता है। सद्विचारों के संपर्क में आये बिना कोई व्यक्ति उसी प्रकार मानसिक स्वच्छता प्राप्त नहीं कर सकता जिस प्रकार आहार की सुव्यवस्था किये बिना शरीर को बलवान बना सकना संभव नहीं होता। मन तभी स्वच्छ रह सकता है जब उसे सद्विचारों का सान्निध्य मिले। मानसिक स्वच्छता के लिए स्वाध्याय और सत्संग की आवश्यकता उसी प्रकार है जिस प्रकार बर्तन माँजने के लिए मिट्टी और पानी की उपयोगिता होती है। सद्विचारों का प्रसार जब कम हो जाता है और कुविचारों का विस्तार बढ़ जाता है तब स्वभावतः जन मानस में मलीनता छा जाती है और पाप तापों का, क्लेश कलह का रोग शोक का वातावरण पनपता दृष्टिगोचर होने लगता है। मनुष्य के भीतरी मन की बुराइयाँ उसके सामने विपत्ति बनकर आ खड़ी होती हैं। कुएँ की प्रतिध्वनि की तरह हमें अपनी भावनाओं के अनुरूप ही दूसरों का प्रत्युत्तर मिलता है। जैसे हम स्वयं है वैसे ही दूसरे भी दीखते हैं। स्वभावतः वे वैसे नहीं तो कम से कम हमारे लिए तो वैसे बन ही जाते हैं, अपना क्रोधी स्वभाव हो और दूसरों से झगड़ते रहने की आदत पड़ जाय तो उसके फलस्वरूप दूसरे लोग जो भले ही स्वभावतः क्रोधी न हों हमारे आचरण से क्षुब्ध होकर कुछ देर के लिए तो क्रोधी बन ही जाते हैं। चोर, व्यभिचारी, बेईमान, असभ्य, अकर्मण्य मनुष्य के संपर्क में आने वाले व्यक्ति कुछ देर तक तो घृणा और क्षोभ प्रकट करेंगे ही। मन का मैला मनुष्य कुढ़न का अभिशाप भोगता है अपनी सारी श्रेष्ठताएँ खोकर निम्न स्तर का बन जाता है। मित्रों को शत्रु रूप में बदल लेता है। लोक−परलोक तो उसके बिगड़ते ही हैं। इतनी हानिकारक मन की मलीनता हमारे लिए सर्वथा त्याज्य है। वैयक्तिक और सामूहिक सारे संघर्ष इसी पर ठहरे हुए हैं। पापों की जड़ यही है। इसे काट दिया जाय तो वे कटीली झाड़ियाँ जो पग−पग पर दुख देती हैं नष्ट हो सकती हैं।

सभ्य समाज की श्रेष्ठता

समाज में सभ्यता के, सहयोग के, स्वस्थ परम्पराओं के, न्याय और सदाचार के आधारों को पनपने का अवसर उत्पन्न करना युग−निर्माण योजना का तीसरा लक्ष है। फूट, अलगाव, असहयोग, अनुदारता, स्वार्थपरता, छीना-झपटी, संकीर्णता, शोषक, अपहरण की प्रवृत्तियाँ जब तक मौजूद हैं तब तक सदाचार और नैतिकता का पालन कैसे संभव हो सकता है? व्यक्तिगत स्वार्थपरता और संकीर्णता जितनी छोटी होगी उतने ही संकट पैदा करेगी। साम्प्रदायिकता, जातीयता, प्रांतीयता, भाषावाद आदि के नाम पर कितने संघर्ष पैदा करेगी। साम्प्रदायिकता, जातीयता, प्रांतीयता, भाषावाद आदि के नाम पर कितने संघर्ष और क्लेश पैदा होते हैं यह किसी से छिपा नहीं है। सामाजिक कुरीतियों की अन्धपरम्परा में कितना समय, श्रम और धन बर्बाद होता है इसे कौन नहीं जानता? उच्छृंखलता, गुण्डागर्दी, अपराधी प्रवृत्ति के दुष्ट दुराचारी लोग किस प्रकार शान्ति−प्रिय लोगों को सताते हैं यह सर्वविदित है। इन बुराइयों से जो समाज जितना ग्रसित होगा वह उतना ही दुख पावेगा। इस दृष्टि से भी हमारी स्थिति दयनीय है। सभ्य, शिष्ट, संगठित, सदाचारी समाज अभी हमारा कहाँ बन पा रहा है?

यह परिस्थितियाँ इस रूप में ही नहीं रहने दी जा सकतीं। इनका सुधार और परिवर्तन होना ही चाहिए। हमें ऐसा वातावरण उत्पन्न करना होगा जिसमें व्यक्तिगत रूप से जन−मानस में स्वच्छता और सामूहिक रूप से लोक−मानस में सभ्यता का संचार हो। स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज की स्थापना के लिए यों अनेकों कार्यक्रम हो सकते हैं और उनके विविध−विधि आयोजन समय−समय पर करने भी होंगे पर सबसे पहला कार्य है इन तथ्यों से जनसाधारण को परिचित कराना, उनकी उपयोगिता एवं आवश्यकता समझाना। बीज तभी उगता है जब जड़ जमाने के उपयुक्त उसे जमीन प्राप्त हो। ऊसर जमीन में अच्छा बीज भी कहाँ उग पाता है? आज लोगों की मनोभूमि ऊसर बनी हुई है, न उसमें इच्छा है न आकांक्षा; न आशा है न उत्साह; ऐसे अर्ध मूर्छित मन वाली जनता के सामने कोई कार्यक्रम रखे जाएँ तो वह उन्हें कहाँ सुनेगा? कैसे अपनायेगा?

पहले भूमि तैयार करनी पड़ेगी

युग−निर्माण की दिशा में हमें पहला कार्य एक ही करना होगा कि जन−मानस में स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज के निर्माण की आवश्यकता अनुभव करावें। लोगों को यह बतावें कि इन विभूतियों के बिना मानव जीवन निरर्थक जैसा है, ऐसे अर्धमृत जीवन में साँसों की गिनती पूरी कर लेने में क्या सार है? यदि जीना है तो इंसान की तरह क्यों न जियें, यदि मनुष्य का सुरदुर्लभ शरीर पाया है तो इसे सार्थक क्यों न करें? बीमार शरीर, मलीन मन, पतित समाज में रहना नरक के समान दुखदायी ही रहता है। सो जब उसे बदल सकना संभव है तो उस संभावना को सार्थक क्यों न किया जाय? इस प्रकार के प्रश्न जब जन−मानस के अन्तःकरण में उठने लगेंगे तो वह कुछ सोचने और कुछ करने के लिए भी तत्पर होगा। ऐसा जन−जागरण ही हमारा आज का प्रधान कार्य होना चाहिए।

प्रचार में बड़ी शक्ति है। चाय वालों ने चाय की और बीड़ी वालों ने बीड़ी की गंदी आदतें अपने प्रचार के बल पर घर−घर पहुँचा दी। सिनेमा के गंदे गाने छोटी देहातों में बच्चों की जवानों पर चढ़ गये, यह प्रचार साधनों की ही महत्ता है। हम युग−निर्माण के उपयुक्त संयम की, उदारता की, विवेक की आवश्यकता की ओर जनसाधारण का ध्यान आकर्षित करना चाहें तो प्रचार के बल पर ही हो सकता है। अखण्ड ज्योति परिवार का एक बड़ा विशाल और शक्तिशाली संगठन है। हम सब मिलकर आज युग−निर्माण के लिए उपयोगी एवं आवश्यक विचारों का प्रसार करें और कल उन आयोजनों, कार्यक्रमों, आन्दोलनों एवं अभियानों की व्यवस्था करें जो आज की अव्यवस्था को उखाड़ दें और उसके स्थान पर स्वर्गीय वातावरण को पृथ्वी पर अवतरित करने के उपकरण उपस्थित कर दें। हमें यही करना है—यही करेंगे भी।


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