योजना और कार्यक्रम

January 1962

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भूख और प्यास से पीड़ित रहने वाला प्राणी दिन-दिन दुर्बल होता जाता है और कुछ ही दिन में वह मरणासन्न स्थिति तक जा पहुँचता है आत्मा को ज्ञान की भूख और दान की प्यास रहती है यही उसका अन्न-जल है। इनके न मिलने से अन्तस्तल का दुर्बल और रुग्ण होना स्वाभाविक है। यही दुर्बलता और रुग्णता बाह्य-जीवन में अज्ञान, दारिद्र, रोग, कुसंस्कार, दुर्भाव, अनीति आदि रूप धारण करके हमारे लिए विविध-विधि पीड़ा एवं यातनाऐं प्रस्तुत करती रहती है। गाय को तिलतिल सता कर भूखा मारने वाला दुष्ट व्यक्ति , छुरी फेर कर जल्दी ही गला काट देने वाले कसाई से अधिक नृशंस माना जाता हैं आत्म-हत्यारे अनेक प्रकार के होते हैं पर सब में बुरे वे हैं जो आत्मा को दुख और प्यास से तरसा-तरसा कर मारते हैं। गौ-हत्यारे ‘कलंकी’ कहलाते हैं, इन आत्म-हत्यारों को क्या कहा जाना चाहिए वैसा शब्द ढूँढ़ने से ही मिलेगा।

आत्मा की भूख और प्यास

हमने अपनी आत्माओं को उसकी स्वाभाविक भूख ‘ज्ञान’ और स्वाभाविक प्यास ‘दान’ से वंचित रखा है उसी का परिणाम हमारे व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन में गतिरोध शीत-युद्ध एवं संकटकालीन स्थिति जैसा सामने उपस्थित है। जीवन की वास्तविक समस्याओं को सुलझाने वाला सच्चा ज्ञान हमें कहाँ मिलता है? ज्ञान के नाम पर न जाने क्या-क्या अलाय-बलाय हम पढ़ा करते हैं पर ऐसी वस्तुऐं ढूँढ़ते तक नहीं जो हमारी आज की हीन स्थिति से एक कदम ऊँचा उठाने का व्यावहारिक मार्ग-दर्शन करे, प्रत्यक्ष प्रकाश प्रदान करे। न तो ऐसा साहित्य दिखाई पड़ता है और न ऐसा सत्संग। यदि कहीं हो भी तो उसमें अत्यधिक रोचक भयानक अभिव्यक्तियाँ न रहने से लोग उसे तलाश नहीं करते, पसंद नहीं करते। इसी प्रकार दान की समस्या है। दान के नाम पर हर रोज ही जेब कटाते रहते हैं पर जिससे मानव अन्तरात्मा की सत्प्रवृत्तियों में अभिवृद्धि हो या गिरे हुओं को पीड़ितों को ऊपर उठने का सहारा मिले। ऐसा विवेकपूर्ण दान कौन करता है? दान के नाम पर हम ठगाते तो बहुत हैं पर सत्परिणाम की कसौटी पर कस कर कुछ खर्च करने वाले कोई बिरले ही होते हैं।

सद्विचार और सत्प्रवृत्तियाँ

युग का अवसान सद्विचारों और सत्प्रवृत्तियों के घट जाने से होता है, उसका निर्माण-कार्य इन दोनों की अभिवृद्घि से ही संभव है। बाह्य-जगत में कोई चीज तभी आती है जब वह मनोभूमि में गहराई तक पड़ जमा लेती है। हमारी मनोभूमि में दूषित प्रकार के विचार और विश्वास गहराई तक जम गये हैं, यदि इनका उन्मूलन हो सके और इनके स्थान पर सद्विचारों एवं उच्च-आदर्शों की प्रतिष्ठापना की जा सके तो युग-परिवर्तन का कार्य कुछ भी कठिन न रहेगा। भावना और विचारधाराऐं जब आदर्शवाद से परिपूर्ण होंगी तो फिर अपना प्रत्येक कार्य भी उत्कृष्ट प्रकार का होगा और जहाँ उत्तम कार्य-कलाप पनपता है। श्रेष्ठ गतिविधियाँ बढ़ती हैं, वहाँ स्वर्ग का राज्य पृथ्वी पर उतर आता है। सुख-शान्ति के सभी साधन वहाँ स्वयमेव प्रस्तुत हो जाते हैं।

हमें यही करना है। ज्ञान-यज्ञ ही अब हमारा अभियान है। लोक-शिक्षण के लिए हम सब कटिबद्ध होंगे। ‘अखण्ड-ज्योति’ का बड़ा परिवार है। हममें से प्रत्येक दीपक जलाने को तत्पर होगा तो इस अन्धेरी रात में दीपावली का पुण्य-पर्व झिलमिलाने लगेगा। जिन कुविचारों ने हमारे शरीरों को चौपट कर रखा है, हमारे मनों को मलीन बना रखा है, हमारे समाज को विसंगठित एवं पतनोन्मुख बना रखा है, उन्हें बुहार कर बाहर फेंक देने के लिए हमें स्वच्छता-सैनिकों की तरह अपनी झाडू सँभालनी पड़ेगी। अपनी गंदगी हमें आप बटोरनी पड़ेगी, अपने दाँत हमें आप माँजने पड़ेंगे, अपना कमरा हमें आप झाड़ना पड़ेगा। किसी दूसरे का आसरा क्यों तकें? अंग्रेजों को हमारी फूट ने बुलाया था हमारे संगठन ने उन्हें भगा दिया। दुर्भावनाऐं और दुष्प्रवृत्तियाँ हमारी लापरवाही से पनपती रही हैं जब उनके उन्मूलन का व्रत धारण का लिया जाएगा और इसके लिए एक प्राण एक मन होकर जुट जाया जाएगा तो वे कब तक ठहरेंगी? कहाँ तक ठहरेंगी?

विचारधारा का व्यापक विस्तार

हमारी पहली योजना यह है कि—‛अखण्ड-ज्योति’ का प्रत्येक सदस्य अब एक धार्मिक पत्रिका का पाठक मात्र न रहेगा वरन् वह एक लोक शिक्षक के रूप में अपना उत्तरदायित्व अनुभव करेगा। युग-निर्माण के लिए आवश्यक प्रकाश ‘अखण्ड-ज्योति’ प्रस्तुत करेगी, वह एक बिजली घर के रूप में रहेगी और हम में से प्रत्येक एक बल्ब के रूप में प्रकाशित होकर अपने क्षेत्र में प्रकाश फैलावेगा। अज्ञान ही मानव जाति का सबसे बड़ा शत्रु है, इसी अन्धकार में नाना प्रकार के पाप पनपते हैं। उल्लू, चमगादड़, सर्प, बिच्छू, काँतर, कानखजूरे अन्धेरे में ही बैठे रहते हैं। छछूँदर अपने दर्जन भर बच्चे-कच्चों का अन्धेरे में ही प्रसव करती है। प्रकाश के सामने उनका ठहरना बन नहीं पड़ता। दुर्बुद्धि की छछूँदर का परिवार भी अज्ञान के वातावरण में ही पनपता है। ज्ञान की मशाल जलाने पर अन्धेरा मिटेगा और उसके पीछे पोषण पाने वाला जंजाल भी किनारा कस जाएगा।

धन दान नहीं, समय दान

धन का दान करने वाले बहुत हैं। धन के बल पर नहर सड़क बन सकती हैं। लोक मानस को उत्कृष्ट नहीं बनाया जा सकता। यह कार्य सत्पुरुषों के भावनापूर्ण समयदान से ही संभव होगा। युग-निर्माण के लिए धन की नहीं, समय की, श्रद्धा की, भावना की, उत्साह की आवश्यकता पड़ेगी। नोटों के बन्डल यहाँ कूड़े-करकट के समान सिद्ध होंगे। समय का दान ही सबसे बड़ा दान है, सच्चा दान है। धनवान लोग अश्रद्धा एवं अनिच्छा रहते हुए भी मान, प्रतिफल, दबाव या अन्य किसी कारण से उपेक्षापूर्वक भी कुछ पैसे दान-खाते फेंक सकते हैं, पर समय-दान केवल वही कर सकेगा जिसकी उस कार्य में श्रद्धा होगी। इस श्रद्धा-युक्त समय-दान में गरीब और अमीर समान रूप से भाग ले सकते हैं। युग-निर्माण के लिए इसी दान की आवश्यकता पड़ेगी और आशा की जायगी कि अपने परिवार के लोगों में से कोई इस दिशा में कन्जूसी न दिखावेगा।

क्षेत्र हम स्वयं तलाश करें

अखण्ड ज्योति परिवार अब तक शिक्षक संघ के रूप में परिणत होने जा रहा है। लोक-मानस को प्रबुद्ध करने के लिए हममें से प्रत्येक को कुछ करना पड़ेगा। अपना शिक्षा क्षेत्र हम स्वयं तलाश करें। अपने मित्रों, स्वजनों, सम्बन्धियों, परिचितों, परिजनों तथा स्त्री-बच्चों पर निगाह डालकर, बारीक नजर डालकर यह देखें कि उनमें से कौन-कौन हमसे सहानुभूति रखते हैं, किस-किस की हमारे प्रति आदर बुद्धि है, कौन हमारी बात को ध्यानपूर्वक सुन सकेंगे। आरम्भ में ऐसे लोगों की एक सूची अपनी डायरी में नोट कर लेनी चाहिए और यह निश्चय करना चाहिए कि इन्हें युग-निर्माण की विचारधारा से परिचित एवं प्रभावित करने का हम प्रयत्न करेंगे। यह कार्य साहित्य के माध्यम से होगा। अधिक परिचित समीपवर्ती लोगों की बात का कुछ कम प्रभाव होता है पर श्रेष्ठ लोगों के लिखे सत्साहित्य के बारे में ऐसी बात नहीं है। संदेश वाहक के रूप में सत्साहित्य पढ़ाने का काम ऐसा है जो उन लोगों को भी प्रभावित कर सकता है जो व्यक्तिगत रूप से हम से अधिक प्रभावित नहीं होते। चलते-फिरते पुस्तकालय के रूप में हम अपनी ऐसी अच्छी पुस्तकें जो युग-निर्माण के उद्देश्य को पूरा करती हैं, अपने प्रभाव क्षेत्र में पढ़ाते रहने का कार्य अपने जिम्मे लेलें तो इस छोटी सेवा का भी बहुत भारी परिणाम उत्पन्न हो सकता है। विचारों की शक्ति इस संसार की सर्वोपरि शक्ति है। आग की भट्टी में गरम करके फौलाद को भी पिघलाया और ढाला जा सकता है। विचारों की भट्टी में तपाया और ढाला हुआ मनुष्य तुच्छ से महान, असुर से देव, स्वार्थी से परमार्थी और आत्मा से परमात्मा बन सकता है। विचारों की शक्ति का महत्व हम समझें और सद्विचारों के ढाँचे में लोगों के मस्तिष्कों को ढालने की क्रिया आरंभ कर दें तो भले ही अपने गले में मालाएँ न पड़ें पर सच्चे अर्थों में हम लोक-शिक्षक, जन-मानस के परिवर्तनकारी एवं लोक निर्माता सिद्ध हो सकते हैं।

आग से आग जलेगी

‘अखण्ड-ज्योति’ आपके पास पहुँचती ही है। इन दिनों जो अंक उसके निकल रहे हैं तथा आगे निकलेंगे उनमें जीवन को निर्माण करने वाला तत्व बहुत कुछ है। उसे हृदय की स्याही में डुबोकर प्राणपूर्ण भाषा में, पूरे मनोयोग की कलम से लिखा जा रहा है। उसमें जीवन एवं प्रकाश की मात्रा मौजूद है। आगे जैसे-जैसे अपनी गतिविधियाँ तीव्र होंगी यह आग और भी अधिक तीव्र होगी। इन अंकों को अधिकाधिक लोगों को पढ़ाया जाना चाहिए। पत्रिका पहुँचे तो उसे उलट-पुलट कर एक कोने में न पटक दिया जाना चाहिए वरन् स्वयं कम से कम दो बार उसे पढ़ें और अपने प्रभाव क्षेत्र के जिन-जिन शिक्षितों के नाम अपनी डायरी में नोट किये थे, उनके यहाँ जाकर, इन अंकों एवं लेखों का महत्व समझाते हुए पढ़ने को दिया जाय। फिर एक बार लेने जाया जाय। अंक देने और लेने के निमित्त दो बार हर महीने जिनसे मिला जाय उनसे अंक में प्रस्तुत विचारों के ऊपर कुछ चर्चा भी की जाय। चर्चा और पठन दोनों बातों के मिलने से स्वाध्याय और सत्संग की दुहरी आवश्यकता पूरी होती है। यह दोनों की लाभ घर बैठे पहुँचाने का धर्म कार्य किसी भी श्रेष्ठ कार्य से कम महत्वपूर्ण नहीं है। समय दान का यह छोटा सा काम कुछ ही दिन बाद अपना जादू जैसा असर उपस्थित करेगा और जिनको सेवा दी जा रही है उनके विचारों में भारी परिवर्तन आरम्भ होगा।

युग-निर्माण की विचारधारा पर अत्यन्त सस्ती सुन्दर एवं प्रभावपूर्ण पुस्तिकाओं की एक सीरीज प्रस्तुत करने की हम तैयारी कर रहे हैं। हमारे भीम और हनुमान जैसे बजरंगी शरीरों को जिस असंयम ने बर्बाद कर दिया उनके विरुद्ध हमारे मन में रोष है, इस असंयम के शासन का उन्मूलन करने के लिए परशुराम जैसा कुठार तेज किया जा रहा है। हमारे हरिश्चन्द्र, भरत, कपिल, कणाद जैसे चरित्र एवं आदर्श को जिन्होंने नष्ट करके चालाक, बेईमान, विलासी और स्वार्थरत नर पशुओं में बदल दिया उन कुविचारों की असुरता पर प्रहार करने के लिए दधीच की हड्डियों का वज्र बनाया जा रहा है। हमारे प्रेम, स्नेह, ममता, आत्मीयता, उदारता और सहयोग से ओत-प्रोत देव समाज को जिस अन्ध तमिस्रा की लंका ने कैद कर लिया पतित और पद दलित किया उसका अन्त अब निकट है। उस लंका दहन के लिए हनुमान की पूँछ तेल भीगे कपड़ों से लपेटी ही जा रही है। यह दुर्बुद्धि जिसने हमारी सभ्यता एवं संस्कृति के आदर्श एवं उत्कर्ष को गिराया है उसके लिए हमारे मन में बड़ा क्षोभ है। यह क्षोभ जलती आग की तरह अब बाहर निकलेगा तो वे दुष्टताऐं जो हमारे मनः क्षेत्रों में आज जमी बैठी हैं और किलोल कर रही हैं, देर तक ठहर न सकेंगी। उन्हें अपना स्थान छोड़ना ही पड़ेगा।

एक दीपक से, दस दीपक जलें

छोटी, सस्ती, सुन्दर, सुसज्जित एवं आग भरी पुस्तिकाओं की एक लम्बी सीरीज लिखने का हमारा विचार है। अखण्ड-ज्योति के सदस्य लोग शिक्षक की तरह अपनी डायरी में नोट किये नाम वाले व्यक्तियों को उन्हें भी यथासमय पढ़ाते रहेंगे। और उन विषयों पर चर्चा करते रहेंगे तो यह लोक शिक्षण का एक विशाल कार्यक्रम चल पड़ेगा। 20 हजार हम लोक शिक्षक यदि हर साल 10 व्यक्तियों को यह विचारधारा पहुँचाने लगें और फिर उन दस व्यक्तियों में से भी कुछ व्यक्ति इस कार्य प्रणाली को अपना लें तो चक्रवृद्धि ब्याज के सिद्धान्त से अगले पाँच वर्षों में ही देश के कोने-कोने में यह शिक्षण पद्धति कार्यान्वित हो सकती है। हमारा सारा ही राष्ट्र इस युग-निर्माण विश्वविद्यालय के अन्तर्गत शिक्षा प्राप्त कर सकता है।

शिक्षित वर्ग तक युग-निर्माण की विचारधारा को पहुँचाने का एक प्रभावशाली उपाय ऊपर बताया गया है। पर पूरी योजना इससे अत्यधिक विशाल है। यह तो उसका एक अंश मात्र है। हमारे देश में अशिक्षित समाज शिक्षितों से कहीं अधिक बड़ा है। उसके लिए पढ़कर सुनाने, समझाने, सत्संग एवं प्रवचन की शैली ही कारगर हो सकती है। अपने घर में ही कई स्त्री बच्चे ऐसे होते हैं जो पढ़े-लिखे नहीं होते पर सुन-समझ तो वे भी सकते हैं। कथा, कहानियों, संस्मरणों एवं घटनाओं का मनोरंजक प्रसंग बनाकर बड़ी से बड़ी शिक्षाऐं उनको हृदयंगम कराई जा सकती हैं। यह सुनाने-समझाने का गुण भी हमें पैदा करना पड़ेगा। संकोच, झिझक, झेंप, शर्म, बड़प्पन की बीमारियों को इस मार्ग में बाधक नहीं होने देना चाहिए। सत्कर्म में बाधा डालने वाले दुष्ट-दुर्जनों की तरह यह दुर्गुण भी बड़े बंधन सरीखे हैं, उन्हें भी तोड़-फोड़ ही डालना चाहिए। नारद जी भगवान का संदेश पहुँचाने के लिए घर-घर भक्ति का प्रचार कर सकते हैं, शंकराचार्य पैदल द्वार-द्वार पर धर्म का अलख जगा सकते हैं, मीरा भक्ति की निर्झरिणी बहाने के लिए यहाँ-वहाँ नाचती फिर सकती है तो क्या हम उनसे भी बड़े हैं, जो लोक शिक्षण में झिझकें, शर्म, अपमान अनुभव करें। यह कार्य बड़प्पन को घटाने वाले नहीं बढ़ाने वाले हैं। सन्निपात के मरीज की गाली सुनकर भी विचारशील डाक्टर अपना इलाज छोड़ते नहीं। बेवकूफों का उपहास एवं तिरस्कार हमें अपने पथ से विचलित क्यों कर सकेगा? अशिक्षितों को भी सद्विचारों की शिक्षा दी जा सकती है। उन्हें इकट्ठे करने के लिए कोई न कोई आकर्षक तरीका ढूँढ़ निकालना हर बुद्धिमान आदमी के लिए संभव ही हो सकता है।

सत्संग और स्वाध्याय का समन्वय

शिक्षितों को साहित्य के सहारे और अशिक्षितों को सत्संग के सहारे प्रबुद्ध करने की प्रक्रिया को अपनाना लोक शिक्षकों का आवश्यक कर्तव्य है। यह प्रक्रिया जितनी तीव्र एवं भावनापूर्ण होगी उतना ही लोक मानस अधिक प्रभावित होगा। विचारों में आवश्यक परिवर्तन हो जाने पर, मनोभूमि के अनुकूल हो जाने पर, सत्सम्बन्धी प्रतिज्ञाओं आन्दोलनों विरोधों एवं प्रतिरोधों की प्रक्रियाऐं भी बन सकती हैं और उन्हें सफलतापूर्वक बढ़ाया भी जा सकता है। पर उसके लिए जन-मानस की प्रबुद्धता आवश्यक है। पहला स्तर यही है। प्रत्यक्ष रूप अगले स्तर पर आवेगा। पहले विचार पीछे कार्य की परम्परा सदा से रही है, वही अब भी रहेगी।

प्रवृत्तियों के अन्य आयोजन

दीवारों पर वाक्य लिखना, जहाँ-तहाँ ध्यान आकर्षित करने वाले पोस्टर लगाना आदि तरीके भी उपयोगी हो सकते हैं। ऐसे कामों को कोई व्यक्ति अकेला भी कर सकता है। ऊपर की पूरी योजना ऐसी है जिसे अकेला मनुष्य कार्यान्वित कर सकता है, पत्रिका तथा पुस्तकें पढ़ाना, अशिक्षितों को इकट्ठे करके कथा, कहानियों द्वारा या पुस्तकें पढ़कर सुनाना, वाक्य लिखना या पोस्टर लगाना यह कार्य कोई भी अकेला आदमी कहीं भी करता रह सकता है। जब तक विचार पुस्तिकाऐं नहीं छप जातीं तब तक अपने पुस्तकालय की अन्य उपयोगी पुस्तकें पढ़ाते रहने का सिलसिला चलता रह सकता है। जहाँ कुछ लोग एक विचारधारा के हैं वे संगठित होकर इस कार्य प्रणाली को चलाते रह सकते हैं। गायत्री-परिवार नाम जिन्हें पसन्द है वे उसी नाम से संगठन चलाते रहें, जिन्हें उपासना में अधिक रुचि नहीं, समाज सेवा के कार्यों तक ही जिनकी अभिरुचि है वे युगनिर्माण योजना के नाम से भी अपना संगठन रख सकते हैं। जहाँ प्रचारात्मक स्तर से आगे बढ़कर कुछ रचनात्मक कार्य करने या आन्दोलनात्मक प्रवृत्ति चलाने की स्थिति है वे वैसा भी कर सकते हैं। अपना यह बुराइयों को छोड़ने और अच्छाइयों को अपनाने का बीस-सूत्री कार्यक्रम पहले भी चलता था। जो लोग प्रभावित होते थे, वे उस प्रकार के प्रतिज्ञा पत्रों पर हस्ताक्षर करते थे, वह प्रतिज्ञाओं भी इसी योजना से संबद्ध हैं। पर प्रतिज्ञाओं से पहले उन विषयों पर पूरा विश्वास जमाने के लिए मनोभूमि में गहराई तक उन बातों के लाभ-हानि पर विश्वास जमाया जाना आवश्यक है। अन्यथा वह प्रतिज्ञाऐं भी दिखावटी रहती हैं और कुछ ही दिन में टूट जाती हैं। जड़े मजबूत होने से ही ऊपर का आधार सुदृढ़ होता है। बिना समझे गायत्री उपासना करने वाले भी कुछ दिन बाद उसे छोड़ बैठते हैं, उसी प्रकार क्षणिक उत्साह में की हुई प्रतिज्ञाऐं भी टूट ही जाती हैं। जड़ की मजबूती के लिए विचार मंथन का पूरा अवसर मिले तभी भावना में परिपक्वता आवेगी।

वसन्त पंचमी से शुभारंभ

वसन्त पंचमी अखण्ड-ज्योति-परिवार द्वारा आरंभ की जाने वाली प्रवृत्तियों का शुभ मुहूर्त है। इसी दिन अखंड दीपक स्थापित हुआ था, इसी दिन हमने अनुष्ठान आरंभ किये थे; इसी दिन मथुरा में आना हुआ था, इसी दिन 108 कुण्ड वाले गायत्री यज्ञ का आरंभ किया गया था, इसी दिन गायत्री-तपोभूमि प्रेस, और अखंड-ज्योति प्रेस, खुले थे। अब अष्टग्रही योग से संबंधित युग-निर्माण योजना का कार्यारंभ भी वसन्त पंचमी के दिन—माता सरस्वती की जन्म-जयन्ती के दिन—सुव्यवस्थित रूप से अग्रसर होता है। स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज के लाभों से मानव जाति को लाभान्वित करने के लिए हमें बहुत कुछ करना है। आइए हम सब मिल-जुलकर इस दिशा में सक्रिय कदम उठावें। सफलता तो सुनिश्चित ही है।


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