युग-निर्माण के लिए- ‛ज्ञान-यज्ञ’

January 1962

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पशु अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को पूर्ण कर आनन्द की नींद सो सकता है, पेट की भूख मिट जाने से उसे तृप्ति मिल सकती है पर मनुष्य का इतने मात्र से काम नहीं चल सकता। पेट और शरीर ही नहीं उसका अदृश्य अन्तःकरण भी इस पंच-भौतिक शरीर के समान ही सक्रिय रहता है ओर उसे भी भूख लगती है, उसमें भी अभिलाषा रहती है। यह भूख ‘ज्ञान’ की है यह अभिलाषा ‘दान’ की है। ज्ञान के अभाव में मनुष्य अपने आपको अन्धकार में पड़ा हुआ और दान के अभाव में असत् की—स्वार्थ की—असुरता में डूबा हुआ अनुभव करता रहता है।

आत्मा की अतृप्त आकाँक्षा

मनुष्य के आत्मिक क्षेत्र में एक पुकार सदैव उठती रहती है—‛तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्गमय, मृत्योर्माऽमृतंगमय’। अर्थात्—अन्धकार से प्रकाश की ओर, असत् से सत् की ओर, मृत्यु से अमृत की ओर हे प्रभु हमें ले चलिए ताकि हम मृत्यु से बचकर अमृत को प्राप्त कर सकें। जिसका जीवन खाने-सोने में ही बीता वस्तुतः वह मर गया। जिसने परमार्थ कमाया उसी का मानव जन्म सफल हुआ और उसे ही जीवित एवं अमर कहा जा सकता है। ज्ञान और दान की आत्मिक भूख प्रत्येक मनुष्य को लगी रहती है। जिसकी यह क्षुधा तृप्त नहीं होती उसका अन्तरात्मा मुरझाया, अशान्त एवं मूर्छित जैसा बना रहता है, उसकी सारी दिव्य विशेषताऐं अविकसित अर्ध-मृत स्थिति में पड़ी-पड़ी नष्ट होती रहती हैं। ऐसी स्थिति में जिन्हें रहना पड़ता है उन्हें पशु से भी गया बीता माना गया है। पशु यह सन्तोष कर सकता है कि उसकी कोई आत्मिक आकाँक्षा नहीं है, पर मनुष्य में वह है, यही आकाँक्षा उसकी एकमात्र विशेषता भी है, यदि वह भी पूर्ण न हो सकी तो क्षुधित और तृषित आत्मा असन्तुष्ट ही जीवन यात्रा पूरी करता है।

परमार्थ की पुण्य-प्रवृत्ति

प्रत्येक श्रेष्ठ व्यक्ति ने—प्रत्येक बुद्धिमान और विचारशील मनुष्य ने—यह ध्यान रखा है कि उसके जीवन में कुछ परमार्थ अवश्य बन पड़े। भजन, पूजन, तीर्थ, उद्यापन, कथा-कीर्तन आत्मबल बढ़ाने के लिए आवश्यक विधान हैं। पर उनका संबंध अपने तक ही सीमित है, उनका लाभ केवल अपने को ही मिलने वाला है इसलिए वे उपयोगी, उचित एवं महत्वपूर्ण तो हैं पर पुण्य परमार्थ की श्रेणी में नहीं गिने जा सकते। परमार्थ वे हैं जिनसे संसार में सद्-विचारों और सद्भावों की वृद्धि होती है तथा पिछड़े हुओं को उठने का अवसर मिलता है। प्राचीन काल में ब्राह्मण वर्ग इस परमार्थ में ही अपना सारा जीवन लगाता था। ज्ञान-प्रसार, लोक-शिक्षण, सत्प्रवृत्तियों का उन्नयन, सत्कर्मों की प्रेरणा एवं दुष्प्रवृत्तियों के शमन के लिए उनका निरन्तर प्रयत्न रहता था। गिरे हुओं को उठाने के लिए, पतितों और पीड़ितों को सहारा मिले ऐसी व्यवस्था बनाने के लिए उनके जीवन का अधिकाँश समय व्यतीत होता था। उस महान कार्यक्रम को सच्चा और प्रभावशाली बनाने के लिए जिस आत्म-बल की आवश्यकता पड़ती है वह उपासना द्वारा ही प्राप्त होता है, इसलिए ब्राह्मण वर्ग उपासना और तपश्चर्या में भी पूर्ण श्रद्धापूर्वक संलग्न रहता था। इन विशेषताओं के कारण ही उन्हें भू-सुर की उपाधि मिलती थी, उन्हें श्रेष्ठ माना जाता था, लोग उन्हें पूजते थे और उनको जीवन-निर्वाह की चिन्ताओं से मुक्त रखने के लिए आवश्यक दान-दक्षिणा भी देते थे। जनता का यह मूल्याँकन सही भी था। जो स्वयं अपना सारा जीवन परमार्थ में ही लगाये हुए हैं और दूसरों को परमार्थ की प्रेरणा देते हैं, ऐसे ही लोगों के द्वारा तो व्यक्ति और समाज की श्रेष्ठता कायम रह सकती है। इस मानवोचित श्रेष्ठता के लिए जिनका जितना समय और श्रम, मन और धन लगता है वे उतने ही अंश में ब्राह्मण हैं, पूज्य हैं, सराहनीय हैं, वन्दनीय हैं। ऐसे ही सत्पुरुषों की अधिकता से संसार में सुख-शान्ति बढ़ती है और उनके अभाव में ही सर्वत्र दुख-दारिद्र का संकट छाने लगता है।

धर्म का विकृत स्वरूप

आज हम अपने चारों ओर दृष्टि पसार कर देखते हैं तो लगता है कि मानवीय विशेषता एवं उत्कृष्टता का सर्वश्रेष्ठ आधार परमार्थ बुरी तरह उपेक्षित हो रहा है। परमार्थ के नाम पर पाखंड पुज रहा है। जिस लक्ष के लिए—सद्भावना, सज्जनता एवं सहृदयता को बढ़ाने के लिए—परमार्थ प्रचलित हुआ था वह उद्देश्य लोगों की आँखों से ओझल हो गया है और धूर्तता एवं प्रवंचना भरे जंजालों को परमार्थ समझकर उन पर शक्ति बर्बाद की जा रही है। ऐसी दशा में हमारी ज्ञान और दान की भूख अतृप्त ही बनी रहेगी और इस अतृप्ति एवं अभाव के कारण व्यक्ति का चरित्र और समाज का उत्कर्ष कैसे उच्च-स्तर की ओर गतिवान हो सकेगा? आज न तो वर्ग के रूप में ब्राह्मण दृष्टिगोचर होता है और न परमार्थ की ब्रह्म-प्रवृत्ति ही जीवित है। ऐसी दशा में हमारा वैयक्तिक और सामाजिक पतन ही निश्चित था और वह सामने प्रस्तुत भी है। अमुक वंश में जन्म लेने मात्र से ब्राह्मण कर्मों से रहित होने पर भी अपने को ब्राह्मण समझने का मिथ्या अहंकार करने वाले लोग बहुत हैं। संस्कृत भाषा में कुछ श्लोक मंत्र रट लेने और पूजा-कथा की प्रक्रिया के बदले धन बटोरने वाले पोथी पांडे भी पर्याप्त हैं। पर जिनकी अन्तरात्मा में परमार्थ की प्रवृत्ति को जीवित रखने के लिए अपने आपको खाद बना कर गला देने की तड़पन हो ऐसे ब्रह्म-वर्चस्व सम्पन्न तेजस्वी ब्रह्म-परायण व्यक्ति उंगलियों पर गिनने लायक संख्या में भी मुश्किल से मिलेंगे। यदि उनकी बहुतायत रही होती तो हमारा स्तर आज भी उतना ही ऊँचा रहा होता जितना प्राचीन काल में था।

परोपकार का महान प्रतिफल

उद्योग, विज्ञान, शिक्षा, चिकित्सा, शासन, शिल्प-कला आदि विविध क्षेत्रों में अनेक प्रकार की प्रगति दीखती है, उसके पीछे उन अन्वेषकों, विचारकों-आविष्कारकों, निर्माताओं का अथक परिश्रम ही मुख्य है। यदि उनने परमार्थ-वृत्ति अपनाकर लोक-हित की दृष्टि से अपना जीवन न खपाया होता तो आज जो भौतिक प्रगति दीख रही है कदापि संभव न हुई होती। वे मनीषी यदि अपने जीवन का लक्ष यदि हमारी ही तरह कमाना-खाना बनाये रहे होते तो वे अपने तीव्र बुद्धिबल से अपने लिए अधिक सुख-साधन एकत्रित कर लेते, कुछ अधिक मौज-मजा करके मर जाते, पर न तो उनका यश अमर होता और न उनके द्वारा दूसरों को कोई लाभ ही मिला होता। ऐसी दशा में वे मरते समय आत्म-संतोष क्या लाभ करते? उन्हें भी हमारी ही तरह कीड़े-मकोड़े की मौत मरते हुए पश्चाताप के आँसू बहाकर यहाँ से विदाई लेनी पड़ती। जिन महान मनीषियों ने परमार्थ-लक्ष अपनाकर विश्व मानव की महान सेवाऐं कीं, भूखे-नंगे तो वे भी नहीं रहते होंगे, बेशक उनको वासनाओं और तृष्णाओं पर संयम करके परमार्थ की कमाई की ओर ध्यान देना पड़ा होगा, उसका महत्व हृदयंगम करना पड़ा होगा, पर इससे क्या वे घाटे में रहे? नहीं उनने भी बहुत पाया। सारी मानवजाति चिरकाल तक उनकी ऋणी रहेगी, और अगणित अन्तःकरणों से निकले हुए आशीर्वाद उनकी आत्मा को अनन्त-काल तक स्वर्ग में असीम शान्ति प्रदान करते रहेंगे।

स्वार्थपरता की संकीर्णता

देश, धर्म, जाति और समाज के लिए अपने को गला देने वाले, परमार्थी लोगों की इस देश में कभी कमी नहीं रही। वासना और तृष्णा की पूर्ति से मिलने वाली सुख सुविधाओं को यहाँ अत्यन्त तुच्छ और घृणित एवं निकृष्ट कोटि की सफलता माना जाता रहा है। जो लोग इस स्तर में उलझे रहे उन्हें उपहासास्पद माना जाता रहा। यही कारण था कि भारत में घर-घर नर रत्न पैदा होते रहे, महापुरुष जन्मते रहे। असुरता का शमन करने के लिए हड्डियाँ देने वाले दधीच, दानशीलता पर आँच न आने देने वाले कर्ण और मोरध्वज, सत्य की रक्षा के लिए खुद बिक जाने वाले और अपने स्त्री बच्चों को बेच देने वाले हरिश्चन्द्र, गौ के बदले अपने प्राण प्रस्तुत करने वाले दलीप, युग निर्माताओं को आत्म-समर्पण कर देने वाले हनुमान यहाँ घर-घर पैदा होते रहते थे। भारत के शानदार इतिहास के पृष्ठ उन परमार्थी लोगों की गौरव गाथाओं से भरे पड़े हैं जिनने अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए जीने का लक्ष अपनाया। विदेशी शासकों के विरुद्ध जो पिछले एक हजार वर्षों तक स्वतंत्रता संग्राम लड़ा जाता रहा उसमें बलिदान होने वाले अगणित शहीदों की चिताऐं भले ही बुझ गई हों पर उनकी रोशनी अभी भी हमें रास्ता बताने के लिए जल रही है।

आज की महानतम आवश्यकता

युग-निर्माण का महान कार्य आज की प्रचण्ड आवश्यकता है। जिस खंडहर स्थिति में हमारे शरीर, मन और समाज के भग्नावशेष पड़े हैं उन्हें उसी दशा में पड़े रहने देने की उपेक्षा जिन्हें सन्तोष दे सकती है उन्हें ‘जीवित मृत’ ही कहना पड़ेगा। आज बेशक ऐसे ही लोगों की संख्या अधिक है, जिन्हें अपने काम से काम, अपने मतलब से मतलब—रखने की नीति पसंद है। पर ऐसे लोगों का बीज नष्ट नहीं हुआ है जो परमार्थ की महत्ता समझते हैं और लोकहित के लिए, विश्व-मानव के उत्कर्ष के लिए यदि उन्हें कुछ प्रयत्न या त्याग करना पड़े तो उसके लिए भी इनकार न करेंगे। युग-निर्माण जैसी युग की पुकार सर्वथा अनसुनी, नितान्त उपेक्षित पड़ी रहे और उसके लिए कोई अपनी प्रसन्नता, अभिरुचि प्रकट न करे और कोई उसमें कुछ हाथ न बटावे अभी इतने आत्मिक पतन का जमाना नहीं आया है। नष्ट−भ्रष्ट स्वास्थ की पीड़ा से तड़पते हुए रुग्ण मनुष्यों को निरोग और दीर्घजीवी देखने के लिए—क्या किसी की आँखें उत्सुक नहीं? दुर्बुद्धि और दुराचार में डूबे हुए नर-पिशाच की तरह मानसिक अशान्ति की नारकीय ज्वाला में जलते हुए लोगों को सज्जनता, सद्भावना, स्नेह और सत्कर्मों में संलग्न रहकर शान्ति एवं सन्तोष के साथ मुसकराते हुए देखने के लिए क्या किसी का मन न हुलसेगा? द्वेष, असहयोग, अविवेक, अन्धविश्वास एवं उच्छृंखलता के वातावरण को हटाकर स्नेह, सहयोग, न्याय, विवेक, व्यवस्था एवं अनुशासन से सुसम्पन्न सभ्य-समाज की स्थापना किसे प्रिय न लगेगी? यह तीनों ही बातें उत्तम, महत्वपूर्ण एवं आवश्यक हैं। किन्तु इनका प्रस्तुत होना तभी संभव है जब इसके लिए हम प्रयत्न करें। स्वार्थ में सिर से पैर तक उलझा हुआ मनुष्य इस प्रकार के निस्वार्थ कामों में तभी रुचि ले सकता है जब उसमें परमार्थ भावना जगे। विश्वास किया जाना चाहिए कि हमारे ऋषि रक्त में अभी परमार्थ भावना बिलकुल निस्वत्व नहीं हुई है। वह मूर्छित पड़ी है, उद्बोधन मिलने पर वह जग सकती है।

चुनौती को कौन स्वीकार करे?

यों इस देश में छप्पन लाख धर्म का व्यवसाय करके अपनी रोटी कमाने वाले पेशेवर धर्मसेवक मौजूद हैं जो दान दक्षिण के ऊपर अपना निर्वाह करते हैं और जिनसे स्वभावतः यह आशा की जानी चाहिए कि वे मनुष्य जाति के भौतिक एवं आत्मिक उत्कर्ष में कुछ योग दें। पर उस ओर तो अन्धेरा ही दीखता है। उजाला हमें अपने हृदय का तेल जलाकर करना पड़ेगा। कार्यव्यस्त गृहस्थ लोगों के द्वारा ही अब तक संसार की बड़ी प्रवृत्तियाँ चली हैं। युग-निर्माण के लिए भी वे बहुत कुछ कर सकते हैं। अखण्ड-ज्योति परिवार के लोगों से इस प्रकार की आशा की जा सकती है। उत्कृष्टता और भावना की दृष्टि से हम लोग संख्या में थोड़े होते हुए भी एक बड़ी शक्ति के रूप में संगठित हैं। परमार्थ का लक्ष हमें प्रिय है। आत्मा में ईश्वरीय प्रकाश उत्पन्न करने के लिए हम लोग अपने को साधना और तपश्चर्या के द्वारा इस योग्य बना चुके हैं कि जो कुछ कहें उसे दूसरे सुनें, जो कुछ करें उसका दूसरे अनुकरण करें, कुछ प्रेरणा करें तो दूसरे उस पर चलना शुरू करें। हमारा लक्ष सत्य है, हमारे साधन शुद्ध हैं, हमारा कर्तृत्व भावना पूर्ण है तो क्यों हमारी बात सुनी न जायगी? क्यों हमारी प्रेरणा मानी न जायगी?

ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न किया जाये

युग-निर्माण के लिए हमें ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न करना है। जिन दुर्बलताओं और बुराइयों ने जन-मानस पर आधिपत्य जमा रखा है उनकी बुराइयों और हानियों को यदि मनुष्य भली प्रकार समझ ले तो उन्हें छोड़ने कि लिए अवश्य उत्सुक होगा। यदि प्रगति और शान्ति का सच्चा मार्ग उसे विश्वासपूर्वक उपलब्ध हो जाय तो अनैतिक, अपराधपूर्ण, खतरे से भरे हुए दुखदायी रास्ते पर वह क्यों चलेगा? संसार में जितनी भी क्रान्तियाँ हुई हैं उनमें सर्वप्रथम विचार विस्तार ही हुआ है। ज्ञान ही क्रिया का पूर्व रूप है। कोई तभी दृश्य रूप में आता है जब पहले वैसे विचार मन में गहराई तक अपनी जड़ जमा लेते हैं।

ज्ञान-यज्ञ का पुण्य आयोजन

हमें अपना व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन श्रेष्ठ सुव्यवस्थित एवं प्रगतिशील बनाना है तो उसके लिए सद्ज्ञान ही आत्मा की भूख है उस भूख को पूर्ण करने के लिए हमें अपनी परमार्थ वृत्ति को प्रबुद्ध करना पड़ेगा। ज्ञान-दान सबसे बड़ा है। इसे ब्रह्म कर्म कहा गया है। आपत्ति से उबारने वाले साधनों में ज्ञान ही प्रधान है। व्यक्ति में सुधार और परिवर्तन इसी माध्यम से संभव हो सकता है। अखण्ड-ज्योति-परिवार के साथ अब हम युगनिर्माण के लिए ज्ञान यज्ञ आरंभ करते हैं। विभिन्न प्रयोजनों की पूर्ति के लिए विभिन्न यज्ञों के आयोजन होते रहे हैं। गायत्री का अग्निहोत्र, यज्ञ प्रथम अध्याय के रूप में अब अपने नियत लक्ष तक आ पहुँचा। यज्ञ की महत्ता से अपरिचित जनता ने उसका महत्व समझा भी और उसे अपनाया भी। अब ऊँची कक्षा में पंचकोश साधना के साथ-साथ ज्ञान यज्ञ का महाअभियान आरंभ किया जा रहा है। युग-निर्माण की पृष्ठभूमि यही है।


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