संगठन और उसका भावी स्वरूप

January 1962

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

पिछले पृष्ठों पर लिखा हुआ प्रचारात्मक कार्यक्रम इस दृष्टि से बनाया गया है कि उसके आधार पर कोई एक व्यक्ति भी अपना छोटा क्षेत्र बनाकर कार्य आरंभ कर सकता है। व्यापक क्षेत्र में विस्तृत किये जाने वाले प्रयत्न, संगठित प्रयत्नों से ही सफल होते हैं, इसलिए हमें अधिक संघ-बद्ध एवं संगठित ही होना पड़ेगा और युग-निर्माण की महान योजना को सफल बनाने के लिए; असंयम, अविवेक एवं अनाचार से निपटने के लिए—अन्ततः एक सुसंगठित सेना के रूप में ही कदम बढ़ाना पड़ेगा। पर उस संघ का निर्माण भी तो एक सुदृढ़ आधार पर होना चाहिए। अपरिपक्व विचारों वाले, लोगों में कोई क्षणिक आवेश उत्पन्न करके कुछ काम करा लेना कठिन नहीं है। अधिकाँश आन्दोलन ऐसे ही उत्तेजनात्मक वातावरण में उत्पन्न किये जाते हैं पर वे देर तक ठहरते नहीं, जोश ठंडा होते ही वह कार्यक्रम भी समाप्त हो जाता है। ऐसे अनेक आन्दोलन आँधी-तूफान की तरह उठते और पानी के बबूले की तरह नष्ट होते हमने अपनी आँखों देखे हैं।

आन्तरिक निष्ठा का आधार

यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि पारमार्थिक कार्यों में निरन्तर प्रेरणा देने वाली आत्मिक स्थिति जिनकी बन गई होगी वे ही युग-निर्माण जैसे महान कार्य के लिए देर तक धैर्यपूर्वक कुछ कर सकने वाले होंगे। ऐसे ही लोगों के द्वारा ठोस कार्यों की आशा की जा सकती है। गायत्री आन्दोलन में केवल भाषण या यज्ञ-प्रदर्शन देखकर जो लोग शामिल हुए थे वे देर तक अपनी माला साधे न रह सके, पर जिन लोगों ने गायत्री साहित्य पढ़कर विचार मंथन के बाद इस मार्ग पर कदम बढ़ाया था, वे पूर्ण निष्ठा और श्रद्धा के साथ लक्ष की ओर तेजी से बढ़ते चले जा रहे हैं। युग-निर्माण कार्य के लिए हम उत्तेजनात्मक वातावरण में अपरिपक्व लोगों को साथ लेकर बालू के महल जैसा कच्चा आधार खड़ा नहीं करना चाहते। इसलिए इस संघ में उन्हीं लोगों पर आशा भरी नजर डाली जायगी जो बात को गहराई तक समझ चुके हैं, उसकी जड़ तक जा चुके हैं।

अखण्ड ज्योति परिवार में वे लोग हैं जो गत चौबीस वर्षों से हमारे साथ हिल-मिलकर बैठते और हमारे चौके में भोजन करते हैं। अखण्ड ज्योति का एक रसोई-घर है, हम अपने हाथ से अपनी गहरी प्रेम-भावना के साथ बड़े-बड़े अरमानों के साथ इस भोजन को पकाते हैं और जो स्वजन हमें अपना समझते हैं उनको माता जैसी वात्सल्य भावना के साथ परोसते खिलाते हैं। जिन्हें इस परिवार में रहते इस रसोई-घर में भोजन करते लम्बा समय हो गया उनसे हमें बड़ी-बड़ी आशाऐं यदि हैं तो इसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं है। गायत्री आन्दोलन गत दस वर्षों में कितने विशाल रूप में पनपा था। गायत्री तपोभूमि का निर्माण 24 लक्ष गायत्री उपासकों का आविर्भाव एक हजार कुण्डों वाले यज्ञ का अभूतपूर्व आयोजन, देश भर में 24 कुण्डों के यज्ञों की आश्चर्यजनक पूर्ति आदि अगणित कार्य ऐसे हैं जो बात की बात में करके रख दिये। युग-निर्माण की इतनी विशाल योजना जिसमें जन-मानस को उलट-पलटकर रख देने का हमारा संकल्प है वह आज असंभव जैसी—शेखचिल्ली की कल्पना जैसी लग सकती है पर हम जानते हैं— हमारा अन्तराल बोलता है कि यह सब होने ही वाला है, होकर रहने ही वाला है।

एकाकी किन्तु संगठित कार्यक्रम

प्रस्तुत प्रचारात्मक योजना को लेकर अपना संघ-बद्ध अखण्ड ज्योति परिवार अग्रसर हो रहा है। हर परिजन को अभी हाल में प्रारंभिक कार्यक्रम ऐसा सौंपा गया है जिसे वह अकेला ही कर सके। औंधे-सीधे लोगों का भानमती का कुनबा इकट्ठा करके कोई संगठन बना लिया जाय तो वह ठहरता कहाँ है? गायत्री परिवारों की कितनी ही शाखाऐं इसी प्रकार ठप्प हुईं। अब उस गलती को दुबारा नहीं दुहराना चाहिए। जिन लोगों की दृष्टि में विचारों का कोई मूल्य या महत्व नहीं, वे किसी कार्य में देर तक कब ठहरने वाले हैं? जो लोग अखंड ज्योति नहीं मंगा सके,जो गायत्री साहित्य नहीं पढ़ सके वे किसी समय बड़े भारी श्रद्धावान दीखने वाले साधक भी आज सब कुछ छोड़ बैठे दीखते हैं। प्रेरणा का सूत्र टूट गया, अपना निज का कोई गहरा स्तर था नहीं फिर उनके पैर भौतिक बाधाओं के झकझोरे में कब तक टिके रहते? इसीलिए हम यह बारीकी से देखते रहते हैं कि सामने बैठा हुआ लम्बी-चौड़ी बातें बनाने वाला व्यक्ति हमारी विचारधारा के साथ अखंड ज्योति या साहित्य के माध्यम से बँधा है या नहीं? यदि वह इस की उपेक्षा करता है तो हम समझ लेते हैं कि यह देर तक टिकने वाला नहीं है। जो हमारे विचारों को प्यार नहीं करते, उनका मूल्य नहीं समझते वे शिष्टाचार में मीठे शब्द भले ही कहें—गुरुजी, गुरुजी! भले ही कहें वस्तुतः हजारों मील दूर हैं, उनसे किसी बड़े काम की कोई आशा नहीं रखी जा सकती।

सुदृढ़ लोगों का समर्थ संगठन

जीवन का लम्बे कटु और मधुर अनुभवों का निष्कर्ष यही है। इसलिए हम अखण्ड ज्योति परिवार के लोगों को एक सुदृढ़ संघ मानते हैं और आशा करते हैं कि इस संघ की शाखाऐं देश के कौने-कौने में फैले। क्योंकि बिना संगठन के युग-निर्माण जैसा विशाल कार्य पूरा हो सकना किसी भी प्रकार संभव न होगा। पर लंगड़े संगठन, अन्धी शाखाऐं बनने से कुछ लाभ नहीं। लाभ भले ही थोड़ा हो पर ठोस हो। इसलिए उस संगठन में कौन सम्मिलित हों इसकी तलाश आरंभ करने का अपना यह पहला कदम है। अखण्ड ज्योति और आगे छपने वाली 108 पुस्तिकाओं की अत्यन्त सुन्दर और सस्ती युग-निर्माण सीरीज पढ़ते रहने में जिनने रुचि ली है, जिन्हें आनन्द आया है, जिनने प्रसन्नता प्रकट की है, उत्साह दिखाया है उन्हें इस योग्य माना जा सकता है कि अपने संगठन के यह सदस्य बनें। विचारों की एकता से ही अखंड ज्योति परिवार एक प्रचंड शक्ति के रूप में विद्यमान है। विचारों की एकता एक अत्यन्त सुदृढ़ एवं अत्यन्त शक्तिशाली तत्व है। इस तत्व के आधार पर जिनके हृदय जुड़ गये हैं वे ही एक जी और एक प्राण होकर कुछ काम कर सकने में समर्थ होते हैं। डाकुओं के छोटे-छोटे गिरोह विचारों की एकता और व्यक्तिगत वफादारी के आधार पर ही संगठित होते और आतंक फैलाते हैं। यही तथ्य सज्जनों के लिए भी है। उनका संगठन भी विचारधारा, भावना एवं वफादारी के आधार पर ही दृढ़ हो सकता है। हमें आगे बढ़ना और फैलना है तो ऐसे ही लोग तलाश करने पड़ेंगे। इस तलाश की दृष्टि से ही यह विचार-प्रसार योजना है जो पिछले लेख में प्रस्तुत की गई है।

भविष्य की महान संभावनाऐं

कुछ दिन यह क्रम यदि हम लोग निष्ठापूर्वक चलाते रहें तो विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि हम आज जितने हैं उसकी अपेक्षा अगले वर्ष की जनवरी तक कई गुने हो जावेंगे और हममें से प्रत्येक अखण्ड ज्योति का सदस्य अपनी विचारधारा के लोगों के साथ सम्बन्धित एवं संगठित होकर एक छोटी संस्था का रूप धारण कर लेगा। संस्थाऐं बनावें नहीं, स्वयं एक संस्था बनें। संस्थाओं में लोग अकसर उत्तरदायित्व को एक दूसरे पर टालते हैं और पारस्परिक मनमुटाव एवं ईर्ष्या के दलदल में फंस जाते हैं। व्यक्ति ने स्वयं ही एक संस्था का रूप धारण कर लिया है तो फिर यह झंझट क्यों पैदा होंगे? फिर हम व्यक्ति को अपने प्रयत्न का श्रेय और सन्तोष भी मिलेगा, संस्थाओं में किसी के प्रयत्न का श्रेय किसी को मिलता भी देखा जाता है। इसलिए योजना यह है कि हम में से हर व्यक्ति एक संस्था का रूप धारण करने और अपने प्रचार के आधार पर एक छोटा सर्किल गठित करे। एक नगर में ऐसे अनेकों सर्किल रह सकते हैं और वे इकट्ठे होकर एक बड़े सामूहिक संगठन का रूप बना सकते हैं। अपने संगठन का यही रूप रहे और प्रयत्न यह किया जाय कि इस वर्ष जो नये लोग अपने विचार प्रभाव में आये हैं, आगे चलकर वे भी अपने विचारों की वंश-वृद्धि कर अपना एक स्वतन्त्र सर्किल बनावें। इसी प्रकार वंश बढ़ते हैं, उसी प्रकार संगठन पनपते हैं। यही हमें भी करना चाहिए।

स्वस्थ शरीर के लिए सत्प्रयत्न

स्थान-स्थान पर जब संगठन बनने लगें, कई व्यक्तियों का सम्मिलित प्रयत्न जब दीखने लगे तब उसके द्वारा प्रत्यक्ष प्रवृत्तियों की योजनाऐं चल सकती हैं। स्वस्थ शरीर का उद्देश्य प्राप्त करने के लिए—आसन, प्राणायाम, सूर्य नमस्कार आदि सिखाने वाली व्यायाम कक्षाऐं चल सकती हैं, व्यायामशालाऐं बन सकती हैं, महिलाओं को घरों में जाकर स्वास्थ सुधारने वाले आसन सिखाने का कार्य कोई कुशल महिलाऐं कर सकती हैं। आहार सम्बन्धी बुरी आदतों को छुड़ाने के लिए—माँसाहार और नशेबाजी दूर करने के लिए विचार-सत्रों का आयोजन किया जा सकता है। प्राकृतिक चिकित्सालयों, कल्प चिकित्सालयों और आरोग्याश्रमों की व्यवस्था की जा सकती है। रोगियों को परामर्श देने के लिए ऐसे प्रचार अस्पताल भी खुल सकते हैं जिनमें अनुभवी आरोग्यशास्त्री रोगी की कठिनाई को ध्यानपूर्वक सुने और वह परामर्श दे जिसमें निरोगता प्राप्त करना उसके लिए सुलभ हो जाय। प्रत्येक रोग की छोटी-छोटी परामर्श पुस्तिकाऐं भी हो सकती हैं जिन्हें लोग खरीदें और अपना इलाज आप कर लें। जैसे दवा की कीमत देनी पड़ती है उसी प्रकार इन परामर्शकर्ताओं को भी लोग एक-दो आना मूल्य देकर खरीदें और अपना इलाज आप कर सकने में समर्थ हो जावें। तुलसी की खेती करके उसके द्वारा बन सकने वाली सस्ती औषधियाँ बनाई और बिना मूल्य वितरण की जा सकती हैं। स्वास्थ्य सम्बन्धी चित्र-पट, मैजिक लालटेन से सिनेमा जैसे दृश्य एवं भजन-संगीत आदि के द्वारा लोगों को इकट्ठा करके उन्हें आवश्यक शिक्षण दिया जा सकता है। ब्रह्मचर्य की शिक्षा का प्रचार स्कूलों में किया जा सकता है। बड़े-बड़े रंगीन चित्रों की प्रदर्शनी लगाकर भी स्वास्थ सम्बन्धी योजनाओं का प्रसार किया जा सकता है। सरकारी स्वास्थ्य विभाग रैड क्रास सोसाइटी एवं अन्य जगहों के द्वारा स्वास्थ्य सम्बन्धी ज्ञान के बड़े-बड़े रंगीन नक्शे एवं चित्र छपे हैं उन्हें जहाँ-जहाँ टाँगने, बेचने एवं दिखाने का क्रम चल सकता है। गर्मी की छुट्टियों में विद्यार्थियों के लिए, अन्य अवकाश के समयों पर अन्य लोगों के लिए स्वास्थ्य शिविर लगाये जा सकते हैं। इस प्रकार की परिस्थितियों के अनुसार अनेकों बातें सोचीं और की जा सकती हैं।

स्वच्छ मनोभूमि के लिए दो उपचार

स्वच्छ मन का आन्दोलन व्यक्ति की आन्तरिक दुर्बलता के विरुद्ध एक महान अभियान है। कुविचारों की हानियाँ, स्वार्थपरता के दुष्परिणाम अभी लोगों की आँखों में नहीं हैं। आज हर आदमी यही सोचता है कि अनैतिक रहने में ही उसका भौतिक लाभ है। इसलिए वह बाहर से नैतिकता का समर्थन करते हुए भी भीतर ही भीतर अनैतिक रहता है। हमें मानसिक स्वच्छता का वह पहलू जनता के सामने प्रस्तुत करना होगा जिसके अनुसार यह भली प्रकार समझा जा सके कि अनैतिकता व्यक्तिगत स्वार्थपरता की दृष्टि से भी घातक है। इसमें हानि ही हानि है। वह विचारधारा अभी सामने नहीं आई है। अब तक लोग सदाचार का लाभ परलोक में मिलने की ही बात जानते हैं। अब धर्म और परलोक की बात को एक ओर रखकर नवें दृष्टिकोण के अनुसार लोगों को यह समझाना पड़ेगा कि सूखी हड्डी चबाकर जिस प्रकार कुत्ता अपने ही जबड़े को घायल कर लेता और वह मसूड़ों से निकला हुआ अपना ही खून पीकर कुछ देर प्रसन्न रहते हुए भी अन्ततः घाटे में रहता है उसी प्रकार अनैतिकता भौतिक दृष्टि से भी, स्वार्थ की दृष्टि से भी अन्ततः घातक है। बात पुरानी है पर कहना नये ढंग से पड़ेगी। हर व्यक्तिगत बुराई के विरुद्ध हम इसी दृष्टिकोण से एक प्रचंड विचारधारा का सर्वांगपूर्ण आचार शास्त्र प्रस्तुत करते जा रहे हैं। ऊपर जिन छोटी पुस्तिकाओं के प्रकाशन की चर्चा की गई है उन्हीं में यह विचारधारा रहेगी और हमारा विश्वास है कि पढ़ने वाले को भी उसी दृष्टि से सोचने को विवश होना पड़ेगा। उस विचारधारा को हम समझें, औरों को समझावें तो व्यक्ति अपने आपको बदल सकता है। मनुष्य विचार वाला और परिवर्तनशील प्राणी है, उसे बदला जाना संभव है, बदला जाता रहा है, और बदला जा भी सकेगा।

सत्संग और स्वाध्याय की शक्ति

व्यक्तिगत विचारधारा का परिवर्तन सत्संग और स्वाध्याय से ही सम्भव है। इस क्षेत्र में यही दो माध्यम काम करते हैं। चिन्तन और मनन की आदत पड़े तो मनुष्य आत्म−निरीक्षण कर सकता है और अपनी बुराइयों के एवं दुर्बलताओं के बारे में बहुत कुछ सोच−समझ सकता है, उन्हें छोड़ और सुधार भी सकता है। ऐसी विचार−गोष्ठियाँ जिनमें अपनी मानसिक स्थिति को सुधारने का मार्ग−दर्शन होता रहे बहुत ही उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं। ईश्वर उपासना का भी इस दृष्टि से अत्यधिक महत्व है। आस्तिकता एवं उपासना को अपनाने से भी मनुष्य सज्जन बनता है। ईश्वर के निष्पक्ष न्यायकारी और पापों का दण्ड देने वाला मानने से कर्मफल की अनिवार्यता पर निष्ठा जमती है और मनुष्य नरक एवं दुर्गति के भय से, पाप से बचता है। इसलिए ईश्वर−उपासना का अधिकाधिक प्रचार करना चाहिए। यों गायत्री उपासना हिन्दू धर्म में सर्वश्रेष्ठ है, यही अनादि, सनातन तथा सभ्यता एवं संस्कृति की गंगोत्री है। इसको उपासना का माध्यम बनाने के लिए पूरा जोर दिया जाय। पर इसे अनिवार्य न बनाया जाय। कोई दूसरा माध्यम रखना चाहे तो वैसा भी कर सकते हैं। किसी न किसी रूप में उपासना के लिए हर व्यक्ति को समझाया जाय। बहुधा लोग ईश्वर और देवता को स्वार्थ, लाभ करने और सिद्धि वरदान प्राप्त करने के लिए पूजते हैं और इसी रूप को जानते हैं। अब उसका दूसरा पहलू भी समझाया जाना चाहिए कि पापों का दण्ड और अकर्मण्यता की उपेक्षा न करने में भी ईश्वर बड़ा कठोर है। इस कठोरता से भी जन−साधारण को परिचित कराया जाना चाहिए और अधूरी आस्तिकता को सर्वांगपूर्ण रूप से प्रस्तुत किया जाना चाहिए। स्वच्छ मन का सम्बन्ध चूँकि हर व्यक्ति के अपने निजी आत्म−निरीक्षण एवं आत्म−सुधार से है इसलिए व्यक्तिगत रूप से विचार−विमर्श ही इस दृष्टि से उपयोगी हो सकता है। कोई आन्दोलनात्मक रूप इसका अभी समझ में नहीं आता पर यदि कोई सूझ पड़े तो वह भी करना चाहिए।

सभ्य समाज की अभिनव रचना

सभ्य समाज की दिशा में अनेकों सामूहिक एवं आन्दोलनात्मक कार्यक्रम बन सकते हैं। पशुबलि विरोध का गतवर्ष एक पदयात्रा एवं सत्याग्रह जैसा कार्यक्रम चला था। जुलूस, प्रभातफेरी एवं पदयात्रा के रूप एक से वस्त्र पहिन कर, पोस्टर, झंडे, नारे जैसी तैयारी के साथ कोई समूह निकलता है तो उसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव जनता पर पड़ता है। यज्ञ आयोजनों में जल यात्रा, परिक्रमा जैसे कार्यों को देखकर स्त्रियों का उल्लास रोके नहीं रुकता और जो आरंभ में उसकी उपेक्षा करती थीं वे भी दूसरों को उसमें देखकर आप भी सम्मिलित होने को आतुर हो उठती देखी गई हैं। काँग्रेस के स्वतंत्रता संग्राम में इस प्रकार के सामूहिक जुलूसों का बड़ा महत्व रहा है। जन−समुदाय की सम्मिलित शक्ति को देखकर समर्थकों के हौंसले दूने हो जाते हैं और वे कुछ कर गुजरने के लिए उत्साह में भर जाते हैं। विरोधियों के हौंसले पस्त करने में भी इस प्रकार के प्रदर्शन जादू का काम करते हैं। तपोभूमि में एक हजार कुण्डों का जो विशाल आयोजन हुआ था, उससे प्रभावित लोगों द्वारा देश भर में हजारों गायत्री यज्ञों की व्यवस्था बन गई। समाज विरोधी कुकृत्यों एवं दुष्प्रवृत्तियों के विरोध में यदि यदा−कदा सामूहिक प्रदर्शन संभव हो सके; उसमें पर्याप्त संख्या में अपने संगठित कार्यकर्ता सम्मिलित हों तो निश्चय ही उसका भारी प्रभाव जनता पर पड़ेगा। मेले की भीड़ का हज्जूम घूमना बात दूसरी है पर एक सी वेशभूषा के संगठित लोक सेवकों का प्रदर्शन तो कुछ दूसरा ही अर्थ रखता है। कहते हैं कि चोर के पैर नहीं होते वह घर के लोगों के जाग पड़ने और खाँस देने मात्र से भाग जाता है। सामाजिक कुरीतियाँ असत्य पर अविवेक पर ठहरी हुई हैं, वे कागज के रावण जैसी दीखती तो बहुत बड़ी हैं पर अन्दर ही अन्दर खोखली पड़ी हैं। उनमें आग लगाने के लिए एक मशाल काफी हो सकती है। चोर जैसे अविवेक को भगा देने के लिए इतने जागृत लोगों का शक्ति प्रदर्शन कुछ माने रखता है। दिन निकलते ही उल्लू, चमगादड़ छिपने लगते हैं विरोध के सामने अविवेकपूर्ण परम्पराऐं क्या टिकेंगी?

दहेज विरोधी अभियान

दहेज के विरोधी पुस्तिकाऐं स्कूल−स्कूल में जाकर लड़की−लड़कों को पढ़ाई जा सकती हैं और उनके विवेक को जागृत करके इस निश्चय पर दृढ़ किया जा सकता है कि वे आजीवन अविवाहित रहना स्वीकार करें पर दहेज और फिजूलखर्ची भरे विवाहोन्माद के पिशाच के आगे मस्तक न झुकायें। बड़े−बूढों की पकी हुई लकड़ी मुश्किल से झुकती है। पर बच्चों के शुद्ध हृदय में विवेक की छाप जल्दी पड़ती है वे तर्क को जल्दी समझते हैं। समाज−सुधारकों की एक पीढ़ी इन कुरीतियों से लड़ते−लड़ते मर खप गई पर उन्माद जहाँ का तहाँ है, घटा नहीं बढ़ा है। अब हम दूसरे मोर्चे पर लड़ेंगे। नक्कू चौधरी और पंच अपना काम करें वे दहेज और विवाह की फिजूलखर्ची को जितना चाहें बढ़ावें, उन्हें छूट है। हम उनके मनसूबों को उनके घर में ही मिट्टी में मिला देंगे। घर−घर में प्रहलाद उत्पन्न करके इन हिरण्यकश्यपों को बता देंगे कि इस अनीति को, मूर्खता को अब अधिक देर चलने नहीं दिया जा सकता। अब न विवाहोन्माद का खरदूषण जिन्दा रखा जा सकता है और न दहेज की सूर्पणखा स्वच्छन्द विचरती रहने दी जा सकती है। मूर्खता की यह पूतना अनेक बालकों के कलेजे खा गई अब इसका अन्त आ पहुँचा। उसे अपनी मौत मरना ही है।

सामाजिक दबाव का मूल्याँकन

बाल विवाह के विरुद्ध शारदा कानून मौजूद है, दहेज के खिलाफ भी कोई कानून पास हुआ है पर इनसे कुछ बनने वाला नहीं है। कानून तो हर बुराई के विरुद्ध मौजूद है पर उन बुराइयों को करने वाले कितने पकड़ में आते हैं? और जो पकड़े जाते हैं उनमें से कितने सजा पाते हैं? और उन सजा पाने वालों में से कितने उन्हें छोड़ देने की बात सोचते हैं? आज के नरम और लचकीले कानून तो न्याय के नाटक और वकीलों की चाँदी बनने के माध्यम रह गये हैं। उनसे बुराइयों का दमन इतनी पुलिस और इतनी अदालतें होते हुए भी कितना कम हो पाता है इसे हम में से हर कोई जानता है। यह सब उपयोगी हैं, इनकी आवश्यकता भी है पर सामाजिक अनाचार, अन्धविश्वास, अविवेक और अन्याय का उन्मूलन इन ढीले−ढीले कानूनों से नहीं वरन् प्रजातंत्री पद्धति में केवल सामाजिक वातावरण बनाने से ही हो सकता है। खाद्य पदार्थों में मिलावट, रिश्वत, बेईमानी, चोर−बजारी, मुनाफाखोरी, आदि तब मिटेगी जब इनके करने वाले समाज से बहिष्कृत होंगे। अभी तो वे मूँछों पर ताव देते हुए जितनी अनीति करते हैं उतना ही अधिक मान पाते हैं। धन से मान मिलने की वर्तमान परिपाटी ने हर आदमी को लालच की ओर झुकने का अवसर दिया है। हमें ईमानदार, गरीबों और परमार्थ के लिए कष्ट सहने वाले अनेक सज्जनों को सार्वजनिक सम्मान के आयोजन करने होंगे, जिससे उनका अनुकरण करने की प्रवृत्ति जन−मानस में पनपे। सार्वजनिक मान पत्र, अभिनंदन, थैली, पुरस्कार, पदक आदि देते रहने की कुछ व्यवस्था कोई सार्वजनिक संस्था करती रहे तो इससे सचाई और ईमानदारी के लिए कष्ट सहने वाले लोगों का हौसला बढ़ सकता है।

बुराइयों के विरुद्ध संघर्ष

बुराइयों की होली जलाई जा सकती है। जिस प्रकार रामलीला का कागजी रावण मरता है, सूर्पणखा की हर साल नाक कटती है होली, के अवसर पर होलिका राक्षसी की चिता जलाई जाती है, उसी प्रकार अश्लीलता, नशेबाजी, बेईमानी, एवं कुरीतियों की होली जलाई जा सकती है और उनके विरुद्ध जन−मानस में घृणा उत्पन्न की जा सकती है। हमें यह पूरा−पूरा ध्यान रखना होगा कि कोई अशान्ति, उत्तेजना या उपद्रव जैसी बात न होने पावे। किसी को चिढ़ाया न जाय। और यदि विरोध में कोई कुछ अनुचित व्यवहार भी करे तो पूर्ण शान्त रहा जाय और मुसकान एवं विनय मात्र से उसका उत्तर दिया जाय।

इस प्रकार के अगणित प्रचारात्मक सुधारात्मक, आन्दोलनात्मक, विरोधात्मक, प्रदर्शनात्मक, रचनात्मक एवं सेवात्मक कार्यक्रम हो सकते हैं। स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न योजनाऐं बन सकती हैं। बड़ों के पैर छूने की, कष्ट पीड़ितों की सेवा करने की, और पाठशालाएँ चलाकर विचारात्मक शिक्षा देने की योजनाऐं बन सकती हैं।

युग−निर्माण शिक्षा का व्यापक विश्व−विद्यालय

पूर्व लेख में यह बताया जा चुका है कि हम में से हर एक छह दिन तक लोगों को अपनी पुस्तकें पढ़ने के लिए देने और वापिस लेने के लिए कुछ लोगों के घर जाया करें,उनसे पुस्तकों या अखण्ड−ज्योति में प्रस्तुत विषयों पर चर्चा किया करे और इन लोगों को सातवें दिन इकट्ठा करके सत्संग लगाने या क्लास चलाने जैसा एक साप्ताहिक आयोजन किया करे। गायत्री−परिवारों में हवन के माध्यम से अब तक इस प्रकार के सत्संग चलते थे। यदि हवन महँगा पड़ता है उसका प्रबन्ध न हो सके तो ईश्वर प्रार्थना और थोड़ी पूजा के साथ इस प्रकार के वर्ग चलाये जा सकते हैं। सस्ती पुस्तिकाओं का सैट जब तैयार हो जाएगा तब तो उसका एक बहुत ही सुन्दर शिक्षात्मक रूप बन पड़ेगा। एक ही पुस्तक को अपने सेवा क्षेत्र के लोगों को पढ़ने दिया जाय और उन्हें छह दिन तक इस पर विचार करने का अवसर मिले। रविवार को या अन्य किसी नियत सुविधा के दिन उन सब को इकट्ठा करके पुस्तिका में प्रस्तुत विषय का मौखिक शिक्षण किया जाय। शंका-समाधान और विचार-विनिमय किया जाय। दूसरे सप्ताह दूसरी पुस्तिका दी जाय। इस प्रकार वर्ष में 52 पुस्तिकाऐं पढ़ने तथा उनके संबंध में मौखिक शिक्षण प्राप्त करने का अवसर इन सभी को मिलता रहे।

हम सब लोक शिक्षक बनें

युग−निर्माण योजना के यह शिक्षण वर्ग हम में से प्रत्येक व्यक्ति चला सकता है। उन्हें लोकप्रिय बनाने के लिए परीक्षा और प्रमाणपत्रों का भी सिलसिला चल सकता है। प्रत्येक रविवार को जो मौखिक शिक्षण चले उसमें छह दिन में पढ़ी हुई पुस्तिका के सम्बन्ध में प्रश्न भी पूछे जावें, और उन प्रश्नों के प्रश्नांक रखे जावें। जो उत्तर प्राप्त हों उनके सही गलत होने के हिसाब से वह शिक्षक ही नम्बर देता चले। यह नम्बर एक नियमित रजिस्टर में दर्ज होते चलें और साल भर के सब नम्बरों को जोड़कर इन शिक्षार्थियों को उत्तीर्ण और अनुत्तीर्ण किया जाय। उत्तीर्ण छात्रों को एक दीक्षान्त समारोह करके मथुरा से भेजे गये उत्तीर्णता के प्रमाण−पत्र दिये जाएँ और प्रवचनों द्वारा इन छात्रों के कर्तव्य भी बतायें जाएँ। इस प्रकार यह छोटे समारोह भी उन छात्रों के लिए महत्वपूर्ण एवं उत्साहवर्धक हो सकते हैं। स्कूलों के अध्यापक तो बड़ी सरलता से इस प्रकार की व्यवस्था कर सकते हैं और युग−निर्माण योजना में भारी योगदान कर सकते हैं। इस योजना के अनुसार लाखों छात्रों को युग−निर्माण योजना के अन्तर्गत शिक्षित एवं दीक्षित करके उन्हें स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन एवं सभ्य समाज के लिए एक उपयुक्त माध्यम बनाया जा सकता है।

दस संस्कार और दस त्यौहार

पुँसवन, नामकरण, मुंडन, विद्यारंभ, अन्नप्राशन यज्ञोपवीत, विवाह, वानप्रस्थ और जन्मदिन, तथा श्राद्ध यह दस संस्कार और श्रावणी, जन्माष्टमी, विजयादशमी, दिवाली, वसन्त पंचमी, शिवरात्रि, होली, रामनवमी, गायत्री जयन्ती, और गुरुपूर्णिमा वह दस त्यौहार भारतीय संस्कृति के विस्तार के लिए, सर्वश्रेष्ठ आयोजन हैं। संस्कारों के समय एक परिवार को छोटी ज्ञानगोष्ठी के रूप में इन संस्कारों में सन्निहित उच्च उद्देश्यों के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है और त्यौहारों के अवसर पर एक नगर के लोगों को यह पर्व सुधरे हुए एवं आकर्षक कार्यक्रमों के साथ मनाने के लिए एकत्रित कर उन्हें उन त्यौहारों में ओत−प्रोत महान प्रेरणाओं से प्रभावित किया जा सकता है। संस्कारों एवं त्यौहारों के महत्व, रहस्य एवं संदेश को समझने की योग्यता हम लोग प्राप्त करें। बिना खर्च के या कम खर्च में इनके मनाये जाने का प्रबन्ध हो सके तो जनता उनमें आवश्यक अभिरुचि अवश्य लेगी। इस प्रकार धार्मिक वातावरण में धर्मशिक्षाऐं देने के उत्तम अवसर बार−बार सामने आ सकेंगे और उस माध्यम से बार−बार धर्म प्रेरणा देकर लोगों की मनोभूमि को युग−निर्माण के अनुरूप श्रेष्ठता में ढाला जा सकेगा। संस्कारों और त्यौहारों का महत्व समझने वाली तथा उनका हर किसी के कर सकने जैसा सरल विधान प्रस्तुत करने वाली पुस्तिकाऐं भी जल्दी ही तैयार हो जायेंगी। उनके आधार पर हम कार्य व्यस्त लोग भी अपने क्षेत्र में ढेरों छोटे−बड़े धर्म प्रचार आयोजन करा सकते हैं। सस्ते खर्च में यदि संस्कार कराये जाने की सुविधा हो जाय तो प्रत्येक हिन्दू परिवार इसके लिए उत्सुक होगा। त्यौहारों के दिन लोगों का मन मनोरंजन के ‘मूड’ में रहता है। छुट्टी एवं फुरसत भी रहती है। उस दिन आकर्षक कार्यक्रम रखा जा सके तो धर्म प्रचार का एक बहुत सुन्दर आयोजन सहज ही बन सकता है।

सोचते ही न रहें, कुछ करें भी

योजनाऐं अनेक सोचीं और कार्यान्वित की जा सकती हैं। पर वे कागजी ही बनी रहें तो क्या लाभ? हमें अपनी परमार्थ वृत्ति को जगाना है। और समयदान के लिए उदारतापूर्वक कदम बढ़ाना है। जन−मानस में ज्ञान का प्रकाश करने के लिए हमें समयदान करना है। हमसे यह बन पड़े तभी युगनिर्माण योजना का इस अंक में प्रस्तुत स्वप्न मूर्तिमान हो सकता है। हमारा हर सपना पूरा होता रहा है क्योंकि उसके पीछे कोई उच्च शक्ति काम करती रही है। यह सपना भी सार्थक ही होना है। आप भी उसके श्रेष्ठ लाभ में भागीदार क्यों न बनें?


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118