जीवन की सर्वोत्तम विभूति

January 1962

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स्वच्छ मन मानव जीवन की सबसे बड़ी सम्पदा है। ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, स्वार्थ, पाप, व्यभिचार, अपहरण, क्रोध, अहंकार आदि दुष्प्रवृत्तियाँ मन में बढ़ें तो मनुष्य पिशाच बन जाता है। उसकी सारी क्रियाऐं और चेष्टाएँ ऐसी हो जाती हैं जिससे उसे मनुष्य शरीर में रहते हुए भी प्रत्यक्ष असुर के रूप में देखा जा सकता है। आलस, प्रमोद, निराशा, अनुत्साह, अनियमितता, दीर्घ−सूत्रता, विलासिता जैसे दुर्गुण मन में जम जाएँ तो वह एक प्रकार से पशु ही बन जाता है। सींग पूँछ भले ही उसके न हों पर जीवन के अपव्यय की दृष्टि से वह सब प्रकार पशु से भी अधिक घाटे में रहता है।

मन की मलीनता प्रगति के द्वार बन्द कर देती है। उससे न जमकर श्रम हो पाता है और न पुरुषार्थ के लिए समुचित साहस की पूँजी ही उसके पास शेष रहती है। दूषित दृष्टिकोण के कारण भीतर ही भीतर वह निरन्तर जलता भुनता रहता है और अशान्ति, उद्विग्नता में घिरा रहता है। झुँझलाहट, अशिष्टता, कटुता ही उसके चेहरे और व्यवहार से टपकती है। दूसरे हर किसी को खराब बताना, सब में दोष ढूँढ़ना और उन्हें अपना शत्रु मानना ऐसा मानसिक दुर्गुण है जिसके कारण अपने भी बिराने हो जाते हैं, जो लोग प्यार करते थे और सहयोग देते थे वे भी उदासीन, असन्तुष्ट और प्रतिपक्षी बन जाते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने आपको मरघट के ठूँठ करील की तरह सर्वथा एकाकी और सताया हुआ ही अनुभव करते रहते हैं। बेचारों की स्थिति दयनीय रहती है।

भीतरी गन्दगी की दुर्गन्धित सड़न

आलसी और अव्यवस्थित, छिद्रान्वेषी और उद्विग्न मनुष्य के लिए यह संसार नरक के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। पापी और दुराचारी, चोर और व्यभिचारी की न लोक में प्रतिष्ठा हैं और न परलोक में स्थान। ऐसे लोग क्षणिक सुख की मृग तृष्णा में भटकते और ओस चाटते फिरते हैं, फिर भी उन्हें सन्ताप के अतिरिक्त मिलता कुछ नहीं। दो घड़ी डरते काँपते कुछ ऐश कर भी लिया तो उसकी प्रतिक्रिया में चिर−अशान्ति उनके पल्ले बँध जाती है। मन की मलीनता से बढ़कर इस संसार में मनुष्य का और कोई शत्रु नहीं है। यह पिशाचिनी भीतर ही भीतर कलेजे को चाटती रहती है और जो कुछ मानव−जीवन में श्रेष्ठता है उस सब को चुपके−चुपके खा जाती है। बेचारा मनुष्य अपनी बर्बादी की इस तपेदिक का समझ भी तो नहीं पाता। वह बाहर ही बाहर कारणों को ढूँढ़ता रहता है; कभी इस पर कभी उस पर दोष मड़ता रहता है और भीतर ही भीतर चलने वाली यह सत्यानाशी आरी सब कुछ चीर डालती है। उन्नति, प्रगति, शान्ति, स्नेह, आत्मीयता, प्रसन्नता जैसे लाभ जो उसे मन के स्वच्छ होने पर सहज ही मिल सकते थे उसके लिए एक असंभव जैसी चीज बने रहते हैं।

मानसिक स्वच्छता का महत्व

काश, मनुष्य मन की स्वच्छता का महत्व समझ पाया होता तो उसका जीवन कितने आनंद और उल्लास के साथ व्यतीत हुआ होता दूसरों की श्रेष्ठता को देखने वाली, उसमें अच्छाइयाँ तलाश करने वाली यदि अपनी प्रेम−दृष्टि जग पड़े तो बुरे लोगों में भी बहुत कुछ आनन्ददायक, बहुत कुछ अच्छा, बहुत कुछ अनुकरणीय हमें दीख पड़े। दत्तात्रेय ऋषि ने जब अपनी दोष−दृष्टि त्याग कर श्रेष्ठता ढूँढ़ने वाली वृत्ति जागृत कर ली तो उन्हें चील, कौए, कुत्ते, मकड़ी, मछली जैसे तुच्छ प्राणी भी गुणों के भाण्डागार दीख पड़े और वे ऐसे ही तुच्छ जीवों को अपना गुरु बनाते गये, उनसे बहुत कुछ सीखते गये। हम चाहें तो चोरों से भी सावधानी, सतर्कता, साहस, लगन, ढूँढ़ खोज जैसे अनेक गुणों को सीख सकते हैं। इस दृष्टि से वे हम से कहीं अधिक आगे होते हैं। पाप की उपेक्षा कर पुण्य को और अशुभ की उपेक्षा कर शुभ को तलाश करने का हमारा स्वभाव यदि बन जाय तो इस संसार में हमें सर्वत्र ईश्वर ही ईश्वर चमकता नजर आवे। उसकी इस पुण्य कृति में सर्वत्र आनन्द ही आनन्द झरता दीखने लगे। सारी दुनियाँ हमारे लिए उपकार, सहयोग, स्नेह और सद्भावना का उपहार लिए खड़ी है, पर हम उसे देख कहाँ पाते हैं। मन की मलीनता तो हमें केवल दुर्गन्ध सूँघने और गंदगी और ढूँढ़ने के लिए ही विवश किये रहती है।

धर्म और श्रम की कमाई

ईमानदारी और मेहनत से जो धर्म की कमाई की जाती है उसी से आदमी फलता−फूलता है, यह बात यदि मन में बैठ जाय तो हम सादगी और किफायतशारी का जीवन व्यतीत करते हुए सन्तोषपूर्वक अपना निर्वाह क्यों न करने लगेंगे? और फिर धर्म उपार्जित कमाई का अनीति से अछूता अन्न हमारी नस−नाड़ियों में रक्त बनकर घूमेगा तो हमारा आत्मसम्मान और आत्मगौरव क्यों आकाश को न चूमने लगेगा? क्यों हम हिमालय जैसा ऊँचा मस्तक न रख सकेंगे? और क्यों हमें हमारी महानता का—श्रेष्ठता का—उत्कृष्टता का अनुभव होने से अन्तःकरण में सन्तोष एवं गर्व भरा न दीखेगा?

प्यार, आत्मीयता, ममता की आँखों से जब हम दूसरों की देखेंगे तो वे हमें अपने ही दिखाई पड़ेंगे। अपने छोटे से कुटुम्ब को देखकर हमें आनन्द होता है। फिर यदि हम दूसरों को बाहर वालों को भी उसी आँख से देखने लगें तो वे भी अपने ही प्रतीत होंगे। अपने कुटुम्बियों के जब अनेक दोष दुर्गुण हम बर्दाश्त करते हैं, उन्हें भूलते, छिपाते और क्षमा करते हैं तो बाहर वालों के प्रति वैसा क्यों नहीं किया जा सकता? उदारता, सेवा, सहयोग, स्नेह, नेकी और भलाई की प्रवृत्ति को यदि हम विकसित कर लें तो देवता की योनि प्राप्त होने का आनन्द हमें इसी मनुष्य जन्म में मिल सकता है। हो सकता है कि हमारी भलमनसाहत और सज्जनता का कोई थोड़ा दुरुपयोग कर ले, उससे अनुचित लाभ उठा ले, इतने पर भी उसके ठगने वाले के मन पर भी अपनी सज्जनता की छाप पड़ी रहेगी और वह कभी न कभी उसके लिए पश्चात्ताप करता हुआ सुधार की ओर चलेगा। अनेक सन्तों और सज्जनों के ऐसे उदाहरण हैं जिनने दुष्टता को अपनी सज्जनता से जीता है। फिर चालाक आदमी भी तो दूसरे अधिक चालाकों द्वारा ठग लिये जाते हैं, वे भी कहाँ सदा बिना ठगे रहते हैं। फिर यदि हमें अपनी भलमनसाहत के कारण कभी कुछ ठगा जाना पड़ा तो इसमें कौन बहुत बड़ी बात हो गई, जिसके लिए पछताया जाय। छोटा बच्चा जिसे हम अपना मानते हैं जन्म से लेकर वयस्क होने तक हमें ठगता ही तो रहता है। उस पर जब हम नहीं झुँझलाते तो प्रेम से परिपूर्ण हृदय हो जाने पर दूसरों पर भी क्यों झुँझलाहट आवेगी?

सुख दुःख में समस्वरता

लाभ की तरह हानि का, संयोग की तरह वियोग का, दिन की तरह रात का आना बिलकुल स्वाभाविक है। कपड़े के ताने−बाने की तरह यह जीवन भी सुख और दुख, उतार और चढ़ाव के ताने−बाने से बुना हुआ है। यहाँ बुरा और भला सब कुछ है। बुरा इसलिए है कि उसमें सुधारने का प्रयत्न करते हुए हम अपने को अधिक पुरुषार्थी अधिक पुण्यवान बनावें, शुभ इसलिए है कि उसे देखकर हम प्रमुदित हों और उस उपलब्धि का वितरण दूसरों को भी करें। दोनों ही प्रकार की—भली और बुरी परिस्थितियों से हँसते−खेलते भी निपटा जा सकता है तो फिर रोते कलपते उनसे क्यों निपटें? ताश खेलने में बाजी हार जाने पर, खेल खेलते हुए परास्त हो जाने पर, नाटक करते हुए आपत्तिग्रस्त हो जाने पर कौन रोता कलपता है? उस हानि को हलके मन से, उपेक्षा भाव से देखने पर उसका प्रभाव मन पर जरा−सी देर हलका−सा रहता है और फिर हम अपना आगे का काम स्वस्थ चित्त से करने लगते हैं। यदि हमारा मन विवेकी हो तो शोक, वियोग, हानि, कष्ट, परेशानी, दुर्व्यवहार आदि के अप्रिय प्रसंगों को हँसकर सहन कर सकते हैं, और फिर सन्तुलित मन को उन समस्याओं का हल खोजने में लगाकर आगत कठिनाई से पार होने का मार्ग भी आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। मन की स्वच्छता से विवेक जागृत होता है, सोचने का सही तरीका अभ्यास में आता है और तब प्रायः सभी उलझी हुई समस्यायें शान्तिपूर्वक सुलझ जाती हैं।

उत्थान और आनन्द का मार्ग

इन थोड़ी सी पंक्तियों में यह विस्तारपूर्वक नहीं बताया जा सकता कि मन की मलीनता को हटा देने पर हम पतन और संताप से कितने बचे रह सकते हैं, और मन को स्वच्छ रखकर उत्थान और आनन्द का कितना अधिक लाभ प्राप्त हो सकता है। यह लिखने−पढ़ने और कहने−सुनने की नहीं, करने और अनुभव में लाने की बात है। लौकिक जीवन को आनन्द और उत्थान की दिशा में गतिवान करने का प्रमुख उपाय यह है कि हम अपने मन को स्वच्छ कर उसकी मलीनताओं को हटावें। मनन करने वाले को ही मनुष्य कहते हैं। अपनी भीतरी मलीनताओं को खोजना और उन्हें सुधारने का प्रयत्न करना इस संसार का सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। संसार के प्रत्येक महापुरुष को अनिवार्यतः यह पुरुषार्थ करना पड़ा है। क्या यह कोई ऐसा कठिन काम है जो हम नहीं कर सकते? दूसरों को सुधारना कठिन हो सकता है, वह अपना मन अपनी बात न माने, यह कैसे हो सकता है। हम अपने आपको तो सुधार ही सकते हैं, अपने आपको तो समझा ही सकते हैं, अपने को तो सन्मार्ग पर चला ही सकते हैं। इसमें दूसरा कोई क्या बाधा देगा? हम ऊँचे उठना भी चाहते हैं और उसका साधन भी हमारे हाथ में है तो फिर उसके लिए पुरुषार्थ क्यों न करें? आत्म−सुधार के लिए, आत्म निर्माण के लिए, आत्म विकास के लिए क्यों कटिबद्ध न हों?

हमारे आध्यात्मिक लक्ष की आधारशिला मन की स्वच्छता है। जप, तप, भजन, ध्यान, व्रत, उपवास, तीर्थ, हवन, दान, पुण्य, कथा, कीर्तन सभी का महत्व है पर उनका पूरा लाभ उन्हीं को मिलता है जिनने मन की स्वच्छता के लिए भी समुचित श्रम किया है। मन मलीन हो, दुष्टता एवं नीचता की दुष्प्रवृत्तियों से मन गन्दी कीचड़ की तरह सड़ रहा हो तो भजन, पूजन का भी कितना लाभ मिलने वाला है? अन्तरात्मा की निर्मलता अपने आप में एक साधन है जिसमें किलोल करने के लिए भगवान स्वयं दौड़े आते हैं। थोड़ी साधना से भी उन्हें आत्म−दर्शन का मुक्ति एवं साक्षात्कार का लक्ष सहज ही प्राप्त हो जाता है। स्वल्प साधना भी उनके लिए सिद्धि दायिनी बन जाती है।

आन्तरिक श्रेष्ठता और सज्जनता

‘सुमनस्’ शब्द संस्कृत भाषा में एक बहुत ही प्रतिष्ठा और श्रेष्ठता का प्रतीक है। जिसका मन स्वच्छ होता है उसे ‘सुमनस’ कहकर सम्मानित किया जाता है। ऋषि लोग प्रसन्न होकर किसी को ‘सुमनस्’ अर्थात् सुन्दर मन वाला होने का आशीर्वाद दिया करते थे। वस्तुतः इस निकम्मे प्राणी मनुष्य में यदि कोई विशेषता हो सकती है तो वह उसकी मानसिक स्वच्छता ही है। जिसे यह संपदा प्राप्त हुई उसका जीवन सच्चे अर्थों में सफल हो गया। स्वच्छ मन वाले महामानवों को देव समाज जहाँ बढ़ता है वहीं स्वर्ग बन जाता है। स्थान चाहे पृथ्वी हो या कोई और लोक, स्वर्ग वहीं रहेगा जहाँ ऊँचे मन वाले मनुष्य रहेंगे। किसी राष्ट्र की दौलत सोना, चाँदी नहीं वरन् वहाँ की उच्च मन वाली जनता ही है। श्रेष्ठ मनुष्य का मूल्य सोने और चाँदी के पहाड़ से अधिक है। गाँधी और बुद्ध की कीमत रुपयों में नहीं आँकी जा सकती।

वैयक्तिक और सामूहिक दोनों ही दृष्टियों से जनमानस की स्वच्छता एवं उत्कृष्टता नितान्त आवश्यक है। इसके बिना न तो मनुष्य व्यक्तिगत रूप से सुखी रह सकेगा और न समाज ही समुन्नत हो सकेगा। आमदनी और सुविधायें बढ़ाने वाली योजनाएँ भी तब तक कुछ अधिक उपयोगी सिद्ध न होंगी जब तक अन्तःकरण का स्तर ऊँचा न उठे। ज्ञान, धन, बल और साधन बढ़ जाने से दुष्ट मनुष्य की दुष्टता और अधिक बढ़ जाती है। दूध पीने से साँप का विष ही बढ़ता है। इसलिए राजकीय योजनाएँ जो भी हों, हमारी अध्यात्मिक योजनाएँ यही होनी चाहिए कि मनुष्य का मन ऊँचा उठे, शुद्ध हो, उत्कृष्टताओं एवं सद्गुणों से परिपूर्ण हो, उन्नति करे, यही योजना सच्ची योजना हो सकती है और इसी में सफलता मिलने पर ही सुख साधन बढ़ाने वाली योजनाएँ उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं। कुसंस्कारी व्यक्ति −यों को अधिक साधन मिलने लगें तो वे अनीति एवं दुष्टता की ही वृद्धि करेंगे। अशान्ति और उच्छृंखलता ही उनसे बढ़ेगी। साधनहीन दुष्ट की अपेक्षा साधन सम्पन्न शैतान अधिक उत्पात ही करेगा।

आत्म−निर्माण और लोक शिक्षण

“अखण्ड−ज्योति” निर्माण का मिशन लेकर अग्रसर होती है। अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य को इस ओर ध्यान देना होगा। हम अपने मनों को स्वच्छ करें, अपनी मलीनता को बुहारें और अपने समीपवर्ती, संबंधित, परिचित लोगों को भी वैसी ही प्रेरणा करे। अपना आदर्श उपस्थित करके दूसरों को अनुकरण करने के लिए उदाहरण उपस्थित करना प्रचार का सबसे प्रभावशाली तरीका है, पर शिक्षा, उपदेश, प्रचार, अध्ययन, शिक्षण, पठन, श्रवण आदि का भी कुछ तो प्रभाव पड़ता ही है। दोनों ही माध्यमों से हमें लोक शिक्षण के लिए प्रवृत्त होना चाहिए। जन−मानस की स्वच्छता का अभियान संसार की उत्कृष्ट धर्म सेवा और ईश्वर की सच्ची पूजा ही मानी जायगी। इस दिशा में हमारा उत्साह उठना ही चाहिये। हमारा पुरुषार्थ जागना ही चाहिए, हमारा कदम उठना ही चाहिए।


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