आहार और विहार संबंधी मर्यादाओं का उल्लंघन ही स्वास्थ्य बिगाड़ने का एकमात्र कारण है। सृष्टि के समस्त प्राणी अपनी शारीरिक मर्यादाओं का पालन करते हैं फलस्वरूप वे अल्प बुद्धि और साधन−हीन होने पर भी सदा निरोग बने रहते हैं। जलचर, थलचर, नभचर, सभी जीव जन्तु आमतौर से निरोग रहते हैं। दृष्टि दौड़ाकर देखिये चौरासी लाख योनियों में से एक मनुष्य को छोड़कर अन्य सभी जीव आरोग्य का आनन्द उठाते हुए अपने जीवन के दिन पूरे करते दिखाई देंगे—खोजने पर भी बीमारियों में पड़ा कराहता हुआ कोई प्राणी कहीं दिखाई न देगा। एक अभागा मनुष्य ही ऐसा है जिसे अपने बहुमूल्य जीवन का एक बहुत बड़ा भाग बीमारी और कमजोरी की व्यथा सहते हुए बर्बाद करना पड़ता है।
सफलताओं का मूल आधार
बुद्धिमानों का यह कथन सर्वांश में सत्य है कि धर्म−अर्थ, काम मोक्ष का मूल आधार शरीर है। दुर्बल और रुग्ण शरीर वाला अपनी जीवन यात्रा का भार भी स्वयं वहन नहीं कर पाता, उसे पग−पग पर दूसरों की सहायता अपेक्षित होती है। दूसरे लोग सहायता न करें तो अपना ही काम न चले ऐसे लोग धर्म कार्य कर सकने के लिए श्रम कैसे कर पावेंगे? धन कमाने के योग्य पुरुषार्थ भी उनसे कैसे बन पड़ेगा? कामोपभोग के लिए इन्द्रियों में सक्षमता कैसे स्थिर रहेगा? और फिर मोक्ष के योग्य श्रद्धा, विश्वास, धैर्य, श्रम और संकल्प का बल भी उनमें कहाँ से रहेगा? इसलिए बीमार और कमजोर आदमी इस संसार में कुछ भी प्राप्त कर सकने की स्थिति में नहीं रहता। रोग को पाप का फल माना गया है। वस्तुतः वह प्रत्यक्ष नरक ही है। नरक में पापी लोग जाते हैं। स्वास्थ्य के नियमों का उल्लंघन करना भी सदाचार के, धर्म के अन्य नियमों को तोड़ने के समान ही अनुचित है। जब झूठ, हिंसा, चोरी, व्यभिचार आदि दुष्कर्मों द्वारा सामाजिक एवं नैतिक नियमों का उल्लंघन करने वाले ईश्वरीय और राजकीय दंड भोगते हैं तो स्वास्थ्य के नियमों का उल्लंघन करने वाले क्यों पापी न माने जायेंगे? क्यों उन्हें प्रकृति दंड न देगी? शरीर में भीतर व्यथा और बाह्य जीवन में असफलता, यह दुहरा दंड उन लोगों के लिए सुनिश्चित है जो पेट पर अत्याचार करके उसे शक्तिहीन बना देते हैं। चटोरेपन की बुरी आदतें ही स्वास्थ्य की बर्बादी का एकमात्र कारण है, इसलिए इन आदतों को भले ही राजकीय दंड विधान में अपराध न माना गया हो पर प्रकृति की दंडसंहिता में अपराध ही गिना गया है और उसके लिए वह दंड सुनिश्चित है जिसे आज सब ही भुगत रहे हैं। भीतर व्यथा और बाहर असफलता के दंड हम में से अधिकाँश को आज सहन करने पड़ रहे हैं।
स्वास्थ्य की बर्बादी और उसका कारण
आयुर्वेद शास्त्र का मान्य सिद्धान्त यह है कि सम्पूर्ण रोग पेट के अपच से आरंभ होते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में भी यही मान्यता है कि सम्पूर्ण रोगों का एकमात्र कारण कब्ज है। अनेक रोग तो उसके बाह्य स्वरूप मात्र हैं। इन सब की जड़ पेट में रहती है। पेट खराब रहने से सभी रोग उपजते हैं और पाचन−क्रिया के ठीक रहने पर कोई आकस्मिक रोग बाहरी कारणों से लग जाय तो वह भी जल्दी ही अच्छा हो जाता है। एक यूनानी कहावत है कि “रोग और आरोग्य दोनों की ही कुञ्जी हर मनुष्य के पेट में सुरक्षित रखी हुई है।” जिसे कब्ज रहता है उसे विभिन्न रोगों का शिकार रहना ही पड़ेगा, जिसका पेट ठीक है उसके आरोग्य को कोई शक्ति नष्ट नहीं कर सकती, इस तथ्य को हम जितनी जल्दी समझ लें उतना ही अच्छा है।
अपच का विष
यदि पेट में पड़े हुए आहार का ठीक प्रकार पाचन न हो तो वह सड़ने लगता है। सड़ने से विषैली गैस उत्पन्न होती है और वह फिर रक्त में मिलकर या श्वास−प्रश्वास क्रिया के सहारे सारे शरीर में घूमने लगती है। उस विष को ठहरने के लिए जहाँ भी आश्रय मिल जाता है वहीं जमा होने लगता है और वहाँ मात्रा अधिक होते ही वहाँ रोग फूट निकलता है। रेगिस्तानों में रेत की आँधियाँ चलती रहती हैं। उड़ते हुए रेत को किसी पेड़ चट्टान आदि के सहारे थोड़ा−सा रुकने का आश्रय मिल गया तो कुछ ही देर में वहाँ रेत का एक बड़ा टीला जमा हो जाता है। यही बात हमारे शरीर में कब्ज के कारण उत्पन्न हुए विष की है साँस के साथ वह एक आँधी की तरह घूमता है और जहाँ भी थोड़ा सहारा मिला वहीं अड्डा जमा कर बैठ जाता है।
बरसाती नदियों में पहली वर्षा होते ही आस−पास का कूड़ा कचरा इकट्ठा होकर बहने लगता है। यह कचरा अपने ढंग से यों बहता चला जाता है पर यदि कहीं पानी में थोड़ी सी रोक या मोड़ आ जाय तो वह कचरा वहाँ जमा होने लगता है। नाली−मोरियों में भी रुकावट पड़ने पर कूड़ा−कचरा जमा होने का दृश्य हर जगह देखा जा सकता है। यही बात हमारे शरीर की भी है। पेट में निरन्तर विष की उत्पत्ति एकमात्र कब्ज से ही होती है।
कुछ अन्य कारण
कुछ बाहरी एवं सामयिक कारण भी शरीर में विष की मात्रा उत्पन्न करने वाले हो सकते हैं पर उनका प्रभाव थोड़ी ही देर में समाप्त हो जाता है। रक्त में श्वेत कणों की मात्रा यदि पर्याप्त हो तो बाहरी विष से लड़ने और परास्त कर बाहर निकाल फेंकने की बात आसानी से पूरी हो जाती है। जिस प्रकार सरकार शत्रुओं से देश की रक्षा करने के लिए सेना की व्यवस्था रखती है वैसे ही हमारे रक्त में भी श्वेत कणों की एक ऐसी फौज रहती है जो किसी भी बाहरी हमले का आसानी से मुकाबला कर सकती है। उसे परास्त करके देह से निकाल फेंकने में पूर्णतया सफल हो सकती है। छूत की बीमारियाँ आमतौर से उन्हें लगती हैं जिनका रक्त पहले से ही दूषित होने के कारण अपनी प्रतिरोध शक्ति खो बैठता है। हैजा, प्लेग, आदि महामारियों के दिनों में भी अनेक स्वयं सेवक रोगियों की सब प्रकार की सेवा करते रहते हैं पर उन्हें कुछ भी नहीं होता। पर सबसे बचते रहने वाले लोग वायु में उड़ने वाले कीटाणुओं से ही प्रभावित होकर उन फैली हुई महामारियों में ग्रसित हो जाते हैं और बचाव की बाहरी व्यवस्था का बहुत प्रयत्न करने पर भी अपनी जान खो बैठते हैं।
पेट की अशक्तता का प्रतिफल
कब्ज एक स्थायी रोग सरीखा बन जाता है। खान−पान संबंधी बुरी आदतों से सताया हुआ पेट अतन्तः अशक्त हो जाता है और अपना काम ठीक तरह कर सकने के अयोग्य हो जाता है। किसी प्रकार गाड़ी खिंचती तो है जीवन रक्षा होती रहे इतना पहिया लुढ़कता तो है पर अपच के कारण उत्पन्न होने वाली सड़न तो निरन्तर जारी ही रहती है। निरन्तर झरते रहने वाली पानी के झरने से सदा धार बहती ही रहती है। निरन्तर आग उगलने वाले ज्वालामुखी से सदा धुँआ निकलता ही रहता है। कमजोर पेट में जब कब्ज रहने लगा तो वहाँ से भी विषों की उत्पत्ति का उत्पादन निरन्तर ही होता रहेगा। निरन्तर की लड़ाई−लड़ना किस सेना के बस की बात है। मौके−मौके पर युद्ध कौशल दिखाया जा सकता है पर अनन्तकाल के लिए चौबीसों घंटे गोली चलाते रहने का भार जिस सेना पर आ पड़े और शत्रु का दल बादलों की तरह उमड़ता हुआ निरन्तर चलता ही आवे तो वे सैनिक कब तक अपने पैर टिकाते रहेंगे? शरीर की रोग−प्रतिरोधक शक्ति का भी इस निरन्तर की कब्ज से उत्पन्न विषों के साथ लड़ते−लड़ते एक प्रकार से अन्त ही हो जाता है। तब फिर शत्रुओं का खुलकर खेलने का अवसर मिलता है और देह नाना प्रकार के रोगों से ग्रसित होती जाती है।
सब रोगों का एक की कारण
रोगों के नाम, लक्षण, चिन्ह, निदान के झंझट में पड़ने और उनके वर्गीकरण की उखाड़−पछाड़ में उलझने से कुछ लाभ नहीं। पेट में उत्पन्न हुआ विष जिस स्थान पर जमा होगा वहीं पीड़ा देगा। गाँठों में जमने से उसका नाम गठिया, सिर में जमने से सिर दर्द, फेफड़ों में जमने से क्षय, श्वाँस नली में जमने से खाँसी, चमड़ी में जमने से खुजली, दाँतों में जमने से पायरिया, गुर्दे में जमने से बहुमूत्र, उँगलियों में भर जाने से कोढ़ नाम हो जायेगा। बीमारियों का नामकरण करने और उनके निदान लक्षण में माथा पच्ची करने से क्या लाभ? गाँठो की बीमारी, सिर की बीमारी, कान की बीमारी, छाती की बीमारी कहकर भी वही प्रयोजन सिद्ध हो सकता है जो बड़े−बड़े वैद्यों से रोग का निदान और नामकरण कराने से होता है।
पेट में उत्पन्न होने वाली सड़न शरीर के किसी भी भाग में पहुँच सकती है और उससे किसी भी अंग में रोग उत्पन्न हो सकता है। डकारों में मुँह की और अपानवायु से गुदा मार्ग की ओर यह सड़न गैस के रूप में बाहर आती है तो उसकी दुर्गन्धि का कुछ अनुभव हो जाता है। यह गैसें अपने साथ सड़न भरे और भी विषाक्त तत्व साथ में उड़ाकर लाती हैं तो इनका जमाव प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। जीभ और दाँतों पर जो रोज मैल जमता है वह पेट से उड़कर ऊपर आई हुई गैसों का ही विकार है। धुँआ जहाँ उठता रहता है वहाँ छतों पर कालिख जमा हो जाती है। जीभ और दाँतों का मैल भी इसी प्रकार की कालिख है जिसे रोज साफ न किया जाय जो मुँह में बदबू आने लगे और स्वाद कडुआ रहने लगे। यह विकार कुछ तेज हो जाते हैं तो मसूड़ों को गलाने लगते हैं तब पायरिया पैदा हो जाता है, जीभ में छाले रहने लगते हैं, साँस के साथ बदबू आने लगती है, सोते में लार बहती है, यह सब एक ही बात के विभिन्न स्वरूप हैं।
अपच के विष का व्यापक प्रभाव
गले में टान्सिल बढ़ जाना, स्वर भंग, श्वाँस नाली में जख्म हो जाने से कफ़, खाँसी, बलगम की शिकायत उत्पन्न होती है। यही दूषित तत्व जब मस्तिष्क में जड़ जमाते हैं तो जुकाम, नाक बहना, सिर दर्द, आधाशीशी, स्मरण शक्ति की कमी, अनिद्रा, मूर्छा, मृगी, हिस्टीरिया, उन्माद आदि का रूप धारण कर लेते हैं। आँखें दुखना, कान बहना, बाल झड़ना, नाक बहना, सिर में खुजली चलना, भुसी जमना जैसे रोग भी सिर के भीतर की विकृतियाँ बाहर फूटने के कारण ही होते हैं विकार जिधर से भी बाहर फूट पड़े उधर ही बीमारी दिखाई देने लगती है। तिल्ली, जिगर, गुर्दे का दर्द, अतिसार, संग्रहणी, दस्त न होना, उदर शूल, वायुगोला, अंत्रपुच्छ आदि रोग एक ही जाति के हैं। उनके स्वरूप में ही भेद दीखता है, मूल सबका एक है। गुदा मार्ग में बवासीर, भगंदर आदि, गर्भाशय में प्रदर, सोम वन्ध्यत्व, मासिक धर्म की अनियमितता, गर्भ स्राव आदि, मूत्राशय में बहुमूत्र, पथरी, प्रमेह, मधुमेह आदि, अंडकोष में पानी बढ़ना, आँत उतरना आदि रोग होते हैं। इनमें भिन्नता दीखते हुए भी भीतरी वस्तु की स्थिति बिलकुल एक है।
रक्त में विकार घुल जाने से पित्ती, चकत्ता, फुंसी, दाद, कोढ़, खुजली, गठिया आदि कितने ही तरह के रोग फूट निकल सकते हैं। हृदय की धड़कन, लकवा, दमा, प्लूरिसी, अंत्रक्षय, ज्वर, उन्माद, स्नायु दौर्बल्य, नासूर, नपुंसकता जैसे कुछ रोग ऐसे हैं जो स्वतंत्र प्रकृति के दिखाई पड़ते हैं पर इनके मूल में भी उन्हीं विषों का धीरे−धीरे संचित होते रहना ही कारण होता है।
शुद्ध रक्त और जीवनी शक्ति
चोट लगना, जलना जैसे बाहरी कारणों से भी कभी−कभी शारीरिक कष्ट होते हैं, पर यदि रक्त की शुद्धता अक्षुण्ण हो तो उनके अच्छे होने में देर नहीं लगती। शुद्ध रक्त अपनी जीवनी शक्ति के आधार पर ऐसे आघातों का समाधान जल्दी ही कर देता है। टूटी हड्डी तक आसानी से जुड़ जाती है। पर यदि रक्त दूषित हो तो एक छोटा सा घाव भी लंबा समय लेकर कठिनाई से अच्छा होता है। जिनके रक्त में शर्करा की मात्रा अधिक होती है उन मधुमेह के रोगियों की छोटी सी फुंसी भी महीनों में अच्छी होती है। कोई बड़ा आपरेशन करना पड़े तो उसका घाव भरना दुर्लभ हो जाता है। कोढ़ी का खून ही तो खराब हो जाता है उसकी उँगलियों पर छोटे−छोटे जख्म होते हैं पर वे किसी भी दवा से अच्छे नहीं होते। ऐसी ही खराबियों के कारण भीतर ही भीतर जहाँ−तहाँ पीड़ायें उठती रहती हैं और मनुष्य उनसे निरन्तर दुःख पाता रहता है। जब दाँत उखड़ने का समय आता है तो सालों तक उनमें दर्द होता रहता है। कमर में दर्द, सिर में दर्द, गाँठों में दर्द, पसली में दर्द, आये दिन ऐसे ही झंझट खड़े रहते हैं। स्त्रियाँ जब मासिक धर्म से होने को होती हैं तब उन्हें कई दिन तक बुरी तरह पीड़ित रहना पड़ता है। प्रसव काल भी उनके लिए मृत्यु जैसा कष्टकारक होता है, पर ऐसा होता तभी है जब रक्त की सजीवता क्षीण हो चुकी हो। जिनकी जीवनी शक्ति सक्षम है उन्हें इस प्रकार की कोई कठिनाई नहीं होती। बुढ़ापे में भी उनके दाँत आँख सब काम करते रहते हैं देहातों के श्रमशील नर−नारी जिनका पाचन ठीक रहता है उन्हें इस प्रकार की कठिनाइयों में पड़ने और व्यथा सहने के लिए विवश नहीं होना पड़ता।
रोगों की जड़ को ही काटा जाय
पाचन क्रिया की खराबी समस्त रोगों की जड़ है। यदि जड़ काट दी जाय तो उसके पुष्प पल्लव भी सूखने लगेंगे। जिसकी जड़ हरी है तो उसे ऊपर से काट भी दिया जाय तो भी फिर नयी शाखायें फूटने लगेंगी। बीमारियों की जड़ निश्चित रूप से पेट में है। जिस अंग में रोग है वहाँ भी उपचार करने में हर्ज नहीं, रोग की स्थानीय चिकित्सा भी होनी चाहिए पर जड़ को ठीक किये बिना बाहर की लीपा पोती से क्या काम बनने वाला है? रक्त विकार के कारण शरीर में निकली हुई फुंसियों पर बाहर से मरहम लगा दी जाय तो वे एक जगह से अच्छी होकर दूसरी जगह निकलने लगेंगी या किसी अन्य रोग के रूप में प्रकट होंगी। ऐसी बीमारी तब अच्छी होती है जब रक्त शुद्धि का उपचार किया जाय। इसलिए प्रत्येक दुर्बल और रुग्ण व्यक्ति को डाली पत्तों की चिन्ता करने की बजाय जड़ पर ध्यान देना चाहिए और पाचन क्रिया की अशक्तता को दूर करने का उपचार करना चाहिए।