अध्यात्म-लक्ष और उसका आवश्यक कर्तृत्व

January 1962

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आत्म-कल्याण का लक्ष प्राप्त करने के लिए आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण और आत्म-विकास की प्रक्रिया को अपनाना आवश्यक है। जप, तप, ध्यान-भजन की सारी आध्यात्मिक विधि व्यवस्था इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए है। पर यह उद्देश्य जिन साधनों से प्राप्त होता है वह शरीर, मन और समाज हैं। इनके सुव्यवस्थित रहे बिना आत्म-कल्याण का लक्ष प्राप्त होना तो दूर जीवित रहने के दिन कटने भी कठिन हो जाते हैं। साधना का प्रथम सोपान, बाह्य-जीवन को सुव्यवस्थित बनाते हुए आत्मिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करना है। इस प्रथम कक्षा को उत्तीर्ण किये बिना जो लोग छलाँग मारकर ऊपर चोटी पर चढ़ना चाहते हैं, सीधे प्रत्याहार, समाधि, चक्र-वेधन, कुण्डलिनी जागरण की बात सोचते हैं उन्हें असफलता ही मिलती है। आत्मिक पूर्णता का लक्ष मलीन और दूषित साधनों से कैसे प्राप्त किया जा सकेगा?

लक्ष की ओर गति

स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज के सहारे ही आत्मा अपने लक्ष की ओर गतिवान होती है। इसलिए प्रगति की इस पहली मंजिल को हमें सावधानी से पूरा करना चाहिए। इसके बाद अगली मंजिलें बहुत ही सरल हो जाती हैं। प्रथम कक्षा कमजोर रहे तो आगे का काम कैसे चलेगा? जिसके पैर ही कमजोर हैं उससे दौड़ कैसे लगाई जा सकेगी? जिसने प्राथमिक पाठशाला के स्वर, व्यंजन, गिनती, पहाड़े ही ठीक तरह याद नहीं किए हैं, उसके लिए एम.ए. की उत्तीर्णता का स्वप्न, काल्पनिक ही रह जाएगा।

योग-साधना में पहले यम-नियमों की साधना करनी पड़ती है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह—यम और शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान—नियम इन दसों बातों पर बारीकी से ध्यान दिया जाय तो स्पष्ट हो जाता है कि इनका उद्देश्य शारीरिक, मानसिक और सामाजिक सुव्यवस्था ही है। ब्रह्मचर्य, शौच और तप का कार्यक्रम शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से रखा गया है। इन्द्रियों का संयम ब्रह्मचर्य के अन्तर्गत आता है। शरीर, वस्त्र, घर एवं उपकरणों की स्वच्छता का तात्पर्य शौच है। तप का अर्थ है शारीरिक और मानसिक श्रम—आसन, प्राणायाम, व्यायाम, तितिक्षा, कष्ट-सहिष्णुता आदि। इन्हीं या ऐसे ही सद्गुणों से स्वास्थ्य की रक्षा होती है। सत्य, सन्तोष, स्वाध्याय और ईश्वर उपासना यह चार आधार मानसिक स्वच्छता के लिए हैं। छल-कपट, दंभ-पाखंड आदि कुविचारों का शमन सत्य-निष्ठा से होता है। सन्तोषी को तृष्णाऐं और वासनाऐं क्यों सतावेंगी? स्वाध्याय और मनन-चिन्तन करते रहने से मन की मलीनता हटेगी ही। ईश्वर का उपासक सर्वत्र उस अंतर्यामी को उपस्थित देखेगा तो क्यों पाप में प्रवृत्त होगा और क्यों भय, चिन्ता, शोक, निराशा आदि में डूबेगा? इसी प्रकार सामाजिक सुव्यवस्था के लिए अहिंसा, अस्तेय और अपरिग्रह हैं। दूसरों में अपनी ही आत्मा देखकर उनसे प्रेम, सहयोग एवं उदारता का व्यवहार करना अहिंसा है। अपनी न्यायेपार्जित कमाई पर ही गुजारा करना अस्तेय है और निर्वाह की अनिवार्य आवश्यकताओं से बची हुई प्रतिभा, विद्या, क्षमता, समय एवं सम्पत्ति को समाज के हित में वापिस लौटा देना, दान कर देना अपरिग्रह है। इन्हीं तथ्यों पर कोई समाज फलता-फूलता और संगठित रहता है। यम और नियम योग-साधना के प्राथमिक कार्यक्रम हैं। योग से ही आत्मा की प्राप्ति संभव है। इसलिए लक्ष पूर्ति की सच्ची अभिलाषा जिन्हें है उन्हें सच्चा मार्ग भी अपनाना पड़ता है।

छलाँग नहीं लगाई जा सकती

जो साधक इन आरम्भिक बातों की उपेक्षा करते हैं और समाधि तक ही सीधे पहुँचना चाहते हैं, जीवन को सब प्रकार अस्त-व्यस्त और पतित-गलित स्थिति में पड़ा रखकर जो आध्यात्मिक पूर्णता की बात सोचते हैं, वे अतिवादी ही कहे जायेंगे। आग के बिना जैसे भोजन पका लेना कठिन है वैसे ही आत्मिक प्रगति के आवश्यक उपकरणों का परित्याग कर, शरीर मन और समाज को हीन स्थिति में रखने से प्रयोजन कैसे सिद्ध होगा? प्राचीन काल में कठिन तपश्चर्या और साधना का मार्ग अपनाकर लोग इन तीनों साधनों को शुद्ध करते थे। आज के जल्दबाज लोगों ने अमुक जगह स्नान कर लेने, अमुक पुस्तक पढ़ लेने, अमुक जप कर लेने मात्र से चुटकियों में परम-लक्ष की प्राप्ति की कल्पना आरम्भ कर दी है। स्नान, पाठ, जप का पूरा लाभ उन्हीं को मिल सकता है जिनके साधन सबल हैं। सब प्रकार की हीन और पतित स्थिति में पड़े हुए लोगों का केवल इन उपचारों का मात्र सहारा लेकर भव-सागर से पार हो सकना कठिन है। यदि यह मार्ग इतना ही सरल होता तो प्राचीन काल में किसी को इतनी कष्ट-साध्य, श्रम-साध्य और समय साध्य साधनाऐं न करनी पड़तीं। वे भी आज के लोगों की तरह कुछ उपचार मात्र करके सब कुछ प्राप्त कर लेने की बात क्यों न सोच लेते?

राजमार्ग यही रहा है

प्राचीन इतिहास पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो हमें अध्यात्म-लक्ष की प्राप्त करने वाले महापुरुषों में प्रथम सोपान की सफलता प्रत्यक्ष रूप से परिलक्षित होती है। जिन्होंने परमात्मा की प्राप्ति की, वे परशुराम, विश्वामित्र, अगस्त, शुक्राचार्य, द्रोणाचार्य आदि क्या शारीरिक दृष्टि से दुर्बल थे? अत्रि, वशिष्ठ, अंगिरा, याज्ञवल्क्य, भारद्वाज, गौतम आदि ऋषियों के मानसिक स्तर क्या गिरे हुये थे? समाज को अवसाद की ओर जाते देखकर उसे रोकने के लिए व्यास जी ने पुराणों की साहित्य रचना आरम्भ की थी। चरक, सुश्रुत, वागभट्ट ने आयुर्वेद शास्त्र का निर्माण किया था। नारद जी प्रचार के लिए परिव्राजक बन गये थे। परशुरामजी ने लड़ाई ही ठान दी थी। भगवान बुद्ध, महावीर, कबीर, नानक, गाँधी, दयानन्द, विवेकानन्द, रामतीर्थ आदि अर्वाचीन ऋषियों ने भी अस्वस्थ समाज को स्वस्थ बनाने के प्रयत्न को ही अपनी प्रधान साधना बना लिया था। वे जानते थे कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज का अधिक भाग पतित स्थिति में पड़ा रहे तो थोड़े से साधना-रत व्यक्तियों के लिए भी उस कीचड़ को पार कर सकना कठिन होगा। बलवान हाथी भी दलदल में फंस जाता है, पतित-समाज की परिस्थितियाँ ध्यान, भजन में संलग्न व्यक्तियों का मन भी अपने जाल में उलझा लेती है।

मैं अकेला नहीं हम सब

इस तथ्य को भगवान बुद्ध जानते थे। इसलिए उन्होंने अपना कार्यक्रम सुनिश्चित रूप से स्थिर कर लिया था। वे बारबार कहा करते थे कि—‟जब तक एक भी प्राणी इस बन्धन में है तब तक मैं मुक्त नहीं हो सकता। मैं हर बार जन्म लेकर दूसरों को मुक्ति की प्रेरणा दूँगा और जब तक कोई भी जीव भव-बन्धनों में बंधा मिलेगा तब तक उसे छुड़ाने को ही अपना लक्ष बनाये रहूँगा।” सामाजिक जीवन का व्यक्तिगत जीवन से अटूट संबंध है। समाज की उपेक्षा करके एक व्यक्ति यदि अपनी ही भलाई की बात सोचता है तो यह उसकी संकीर्णता है। संकीर्ण दृष्टिकोण वाला व्यक्ति कैसे अध्यात्मवादी कहला सकता है? और कैसे उस संकुचित हृदय वाले तुच्छ व्यक्ति को परमात्मा की महानता को समझने और प्राप्त करने का अवसर मिल सकता है? परमात्मा दूसरों के लिए ही सब कुछ करने में निरन्तर संलग्न है, फिर उसका सच्चा भक्त अनुदार, स्वार्थी, संकीर्ण एवं केवल अपनी ही बात सोचने तक सीमित कैसे रह सकता है? साधक पर साध्य का कुछ तो प्रभाव पड़ना ही चाहिए। उदार, दानी, सहृदय, उपकारी परमात्मा का भक्त क्या इन गुणों से सर्वथा रहित ही रह जाएगा? क्या वह दूसरों की सेवा और सहायता करके समाज में सज्जनता एवं शान्ति बढ़ाने के लिए कुछ भी न करके केवल पूजा पाठ में ही बैठा रहेगा?

भगवान का मंदिर तोड़ा न जाय

शरीर भगवान का मन्दिर है। आत्मा का निवास होने से उसकी पवित्रता सब प्रकार अक्षुण्य रखे जाने योग्य है। मंदिर को तोड़-फोड़ डालने वाला व्यक्ति पापी और दुष्ट कहा जाता है। फिर असंयम और अनियमितताओं की कुल्हाड़ी चलाकर शरीर को तोड़-फोड़ डालने वाला मनुष्य भला धर्मात्मा कैसे हो सकता है? मंदिरों का सुधारना, जीर्णोद्धार कराना पुण्य कार्यों में गिना जाता है तो अपने या दूसरों के शरीरों को स्वस्थ एवं सुन्दर बनाना, आत्मा के निवास मंदिर को ठीक करना भी एक धर्म कार्य ही माना जाएगा। हममें से प्रत्येक धर्म प्रेमी और अध्यात्मवादी को ईश्वर उपासना की भाँति ही स्वास्थ्य की समुन्नति की ओर भी रुचि लेनी चाहिए।

भटके को रास्ते पर लावें

कुमार्गगामी भूले-भटके लोगों को रास्ते पर लाने के लिए सभी प्रयत्न धर्म सेवा के अंतर्गत माने जाते हैं। मेले ठेलों में खोये हुए या अन्य प्रकार बिछड़े हुए बच्चों को उदार लोग अपना समय बरबाद करके भी उनके माता-पिता तक पहुँचा देने का प्रयत्न करते हैं। रास्ता भटके हुए अनजान आदमी को लोग उसके गंतव्य स्थान पर पहुँचा देने में सलाह एवं सहयोग देकर सहायता करते हैं। आज अनेकों का मन अपने अभिभावक धर्म से बिछुड़ कर काँटों की झाड़ी में भटक रहा है। इन बालकों को, इन भटके हुओं को उनके गन्तव्य स्थानों तक पहुँचा देना भी एक पुण्य कार्य ही है। कुमार्गगामी को समझा-बुझाकर सन्मार्ग पर लाने का सत्पुरुष सदा की प्रयत्न करते रहते हैं। नारद जी ने डाकू बाल्मीक को समझा बुझाकर ऋषि बाल्मीक के रूप में परिणत कर दिया था। गौतमबुद्ध ने अंगुलिमाल डाकू और अम्बपाली वेश्या को धर्मपरायण बनाया था। यह कार्य अत्यन्त ही सराहनीय माने जाते हैं। हममें से अनेकों के मन अंगुलिमाल डाकू और अम्बपाली वेश्या से अधिक पतित है उन्हें सुधारने का प्रयत्न भी बुद्ध के सत्प्रयत्न जैसा ही महान गिना जाएगा।

राजनैतिक गुलामी और सामाजिक हीनता

राजनैतिक गुलामी की जंजीरों में जकड़ी हुई जनता को स्वराज्य दिलाने के लिए जिन लोगों ने त्याग और बलिदान किये उनकी कीर्ति युग-युगान्तरों तक उज्ज्वल रहेगी। इतिहासकार उनके नामों को स्वर्णाक्षरों में अंकित करते रहेंगे और हमारी भावी पीढ़ियाँ कृतज्ञता से उनके आगे मस्तक झुकाते हुए श्रद्धापूर्वक स्मरण करती रहेंगी। आज हमारी सामाजिक हीनता, अनैतिकता, असमानता, रूढ़ियों एवं कुसंस्कारों की गुलामी भी एक चुनौती के रूप में प्रस्तुत है। इसे न हटाया जा सका तो राजनैतिक गुलामी उतनी हानि नहीं पहुँचा सकती जितनी सामाजिक कुसंस्कारों की गुलामी। अंग्रेज जितना धन यहाँ से विलायत ले जाते थे उससे हजार गुना अधिक धन हम कुरीतियों की होली में स्वाहा कर देते हैं। जितने अत्याचार अंग्रेज हम पर करते थे उससे हजार गुने अत्याचार हम एक दूसरे पर सामाजिक कारणों से करते रहते हैं। स्त्रियों और अस्वर्णों के रूप में हमारी तीन चौथाई जनता आज भी अपने मनुष्योचित अधिकारों से वंचित है। इन्हें जिस अनीति का शिकार होना पड़ता है क्या हम किसी भी विदेशी शासन की अपेक्षा कम नृशंस है?

नृशंसता का प्रतिरोध

राजनैतिक पराधीनता एवं विदेशियों द्वारा बरती गई नृशंसता के विरुद्ध पिछले दिनों हमारे मनों में असंतोष उत्पन्न हुआ था तो उसका बाह्य स्वरूप स्वराज्य आन्दोलन के रूप में—स्वाधीनता संग्राम के रूप में—सामने आया था। जन-मानस का व्यापक असंतोष राजमुकुटों को तिनके के समान उड़ाकर फेंक सकता है। दुनियाँ का इतिहास साक्षी है कि बड़ी से बड़ी क्रूर सल्तनतें जन-असंतोष की आग में जलकर भस्म हो गईं। जनता की मनोभूमि जब करवट बदलती है तो बड़ी से बड़ी विडम्बनाएँ धराशायी हो जाती हैं। जिस हीन सामाजिक दुरवस्था में हम आज पड़े हैं वह भी तभी तक टिकी रह सकती है जब तक जन-मानस में उसके प्रति उभार नहीं आता। यह बुराइयाँ अभी अखरती तो हैं पर यदि काँटे की तरह उनकी चुभन हम अनुभव करने लगे तो फिर इन्हें उखाड़ फेंकने में कितनी देर लगेगी?

युग की प्रखर चुनौती

सामाजिक असभ्यता हमारे लिए राजनीतिक गुलामी से अधिक त्रासदायक स्थिति में हमारे सामने मौजूद है। स्वाधीनता संग्राम के बलिदानी सेनानी स्वर्ग से हमें पूछते हैं कि हमारा कारवाँ एक ही मंजिल पर पड़ाव डालकर क्यों पड़ा रहा? आगे का पड़ाव सामाजिक असभ्यता के उन्मूलन का था, अगला मोर्चा वहाँ जमना था—पर सैनिकों ने हथियार खोलकर क्यों रख दिये? युग की आत्मा इन प्रश्नों का उत्तर चाहती है। हमें इसका उत्तर देना होगा। यदि हम सामाजिक असभ्यता के उन्मूलन के लिए कुछ नहीं करना चाहते, कुछ नहीं कर सकते तो जहाँ भावी इतिहासकार जिस प्रकार स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानियों को श्रद्धा से मस्तक झुकाते रहेंगे वहाँ हमें धिक्कारने में भी कसर न रहने देंगे।

लक्ष पूर्ति के लिए यह आवश्यक है

आध्यात्मिक लक्ष की पूर्ति के लिए अग्रसर हुए हम धर्मप्रेमी ईश्वरभक्त लोगों के कन्धों पर लौकिक कर्तव्यों की पूर्ति का भी एक बड़ा उत्तरदायित्व है। ईश्वर को हम पूजें और उसकी प्रजा से प्रेम करे; भगवान का अर्चन करें और उसकी वाटिका को—दुनियाँ को—सुरम्य बनावें तभी हम उसके सच्चे भक्त कहला सकेंगे तभी उसका सच्चा प्रेम प्राप्त करने के अधिकारी हो सकेंगे। हमारे आध्यात्मिक लक्ष की पूर्ति का प्रथम सोपान सुव्यवस्थित जीवन है। स्वस्थ शरीर स्वच्छ मन, सभ्य समाज उसके तीन आधार हैं। इन आधारों को संतुलित करने के लिए सबल और समर्थ बनाने के लिए हमें कुछ करना ही पड़ेगा, कटिबद्ध होना ही पड़ेगा। युग-निर्माण का महान कार्य हमारे इस कर्तृत्व पर ही निर्भर है। इसकी न तो अब उपेक्षा की जा सकती है और न आँखें चुराई जा सकती हैं। भगवान यही हम से कराना चाहते हैं। यही हमें करना भी होगा।


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