जिस मनुष्य का व्यसनों तथा साँसारिक मोह से छुटकारा हो जाता है उसी को सच्ची प्रसन्नता प्राप्त हो सकती है। प्रसन्नता से प्रीति उत्पन्न होती है और प्रीति उत्पन्न होने से काया शान्त होती है। काया शान्त होने से सुख उत्पन्न होता है। सुख के उत्पन्न होने से चित्त समाहित हो जाता है। तब वह काम−भोगों को छोड़कर, पापों को छोड़कर, सवितर्क, सविचार तथा सविवेक प्रीति−सुख−संयुक्त ध्यान की स्थिति को प्राप्त होता है। वह इस काया को विवेक से उत्पन्न प्रीति−सुख द्वारा सींचता है, भिगोता है, पूर्ण करता है और चारों ओर से व्याप्त करता है। तब उसकी काया का कोई भी भाग विवेक से उत्पन्न उस प्रीति−सुख से अव्याप्त नहीं रहता।”
—महात्मा बुद्ध