बिछाओ जग के पथ पर फूल (कविता)

January 1962

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चले नैतिकता अपनी भूल, चयन करने चिर सुख के फूल!
उठा करतीं लहरें रमणीक—उदधि फिर भी रहता है शान्त।
सुखी वह, जिसका हृदय विशाल—बना देती अतृप्ति ही क्लान्त॥
इन्द्रियाँ हैं जिसकी अनुकूल, उसी का जीवन सुख का मूल!

अनेकों बाधाओं के बाद— पथिक को मिलता कुछ आभास।
गहनतम के अन्तर में निहित— सर्वदा पावन दिव्य−प्रकाश॥
हटा लेता जो श्रम कर धूल, वही जाता, मोती पा फूल!

शलभ को मिलती जलकर शान्ति—त्याग ही सुख शाश्वत अभिराम।
साधन ही, जो हो निष्काम— साध्य बन जाती है अविराम॥
बिछाओ जग के पथ में फूल, उठाकर तुम्हें मिलें जो शूल!

—रामस्वरूप खरे “साहित्यरत्न”


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