परलोक जीवन और सात नर्क

January 1960

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(श्रीमती ऐनी बेसेण्ट)

मृत्यु के अवसर पर मनुष्य के स्थूल शरीर में से उसका छाया शरीर (ईश्वरमय शरीर) बाहर निकल जाता है। मनुष्य का प्राण और अन्य तत्व भी इसी छाया शरीर के साथ रहते हैं। इससे मनुष्य की देह और ज्ञानेन्द्रियाँ शून्य हो जाती हैं। स्थूल इन्द्रियाँ तो ज्यों की त्यों दिखाई पड़ती है, पर चूँकि उनका स्वामी चला गया, इसलिये वे कोई काम नहीं कर सकती। जो उनके द्वारा देखता था, सुनता था, स्वाद लेता था, या छूता था, वह निकल गया। उसके बिना अकेली इन्द्रियाँ केवल जड़ पदार्थ का समूह हैं और उनमें ज्ञान प्राप्त करने की शक्ति नहीं रह जाती। देह का स्वामी अर्थात् आत्मा, अपने समस्त जीवन चित्रों को देखता और उनके सम्बन्ध में विचार करता हुआ धीरे-धीरे बाहर निकलता है। इन चित्रों में उसके जीवन की छोटी बड़ी सब घटनाएं होती हैं। उस समय उसे स्पष्ट दिखाई पड़ता है कि हमारी कौन-कौन कामनायें सफल हुई और कौन निष्फल हुईं, हम कहाँ-कहाँ हारे और कहाँ पर जीते, किससे प्रेम किया और किससे घृणा द्वेष किया। जीवन में जो मुख्य सार रहा वह भी स्पष्टतया दिखाई पड़ता है। जीवन में जो कुछ विचार प्रधान रूप से रहा है वह इस समय जीव पर अपना प्रभाव अच्छी तरह डालता है और उससे मालूम पड़ जाता है कि जीव को यमलोक में कितने समय किस अवस्था में निवास करना पड़ेगा। यह अवसर मनुष्य के लिये बड़े महत्व का और बहुत गंभीर होता है, जब उसके सामने उसका सब जीवन उपस्थित है, और भूतकाल का फल देखकर उसे मालूम पड़ जाता है कि हमारा भविष्य किस प्रकार का होगा। थोड़ी देर के लिये उसे यह भी मालूम पड़ जाता है कि मैं कैसा हूँ और मेरे जीवन का क्या उद्देश्य है? उसे इस समय यह देख पड़ता है कि ईश्वर के नियम अटल न्यायपूर्ण और हितकारी है। इसके पश्चात् स्थूल और छायामय शरीर के बीच का सम्बन्ध टूटता है, ये दोनों जन्म भर के साथी बिछुड़ते हैं और प्रायः मनुष्य शान्त होकर अचैतन्य अवस्था में प्राप्त होता है।

मृत्यु के समय जो अन्य व्यक्ति आस-पास स्थित हों उनका कर्तव्य है कि उस समय शान्त और मौन रहें, तथा भक्तियुक्त व्यवहार करें। ऐसा करने से मरने वाला व्यक्ति बिना किसी बाधा या क्षोभ के अपने जीवन चित्रों का दर्शन कर सकता है। पर जैसा कि भारत वर्ष में प्रायः देखा जाता है अनेक लोग उसी स्थान पर जोरों से रोने और विलाप करने लगते हैं, जिससे मरने वाले की एकाग्रता भंग हो जाती है। अपने स्वार्थ के ख्याल में मरते हुए प्राणी की शान्ति भंग करना और उसे सुख व शान्ति पहुँचाने का उपाय न करना बड़ी बुरी बात है। इसलिए सब धर्मों के बुद्धिमान पुरुष यह आदेश दे गये हैं कि मरते हुए मनुष्य के निकट धर्म ग्रन्थ का पाठ, ईश्वर प्रार्थना आदि की जाय। क्योंकि ऐसा करने से शान्ति बनी रहती है और जीव की सहायता के लिये लोगों के मन में निःस्वार्थ विचार उठते हैं जिससे उसके परलोक गमन में सहायता मिलती है।

ऐसा अनुमान किया गया है कि मरने के प्रायः 36 घंटे बाद जीव, छायामय (ईश्वर) शरीर को भी छोड़कर बाहर निकल जाता है। तब छाया शरीर भी स्थूल शरीर के पास रहकर धीरे-धीरे नष्ट हो जाता है। जो मुर्दे गाड़े जाते हैं उनके छाया शरीर कवर के ऊपर रह कर क्रमशः खत्म हो जाते हैं। जो मुर्दे जलाये जाते हैं उनके छाया शरीर भी जल्दी नष्ट हो जाते हैं, क्योंकि स्थूल शरीर के प्रति उनका जो खिचाव रहता है, वह मिट जाता है। यह भी एक कारण है कि जिससे मुर्दा गाढ़ने की अपेक्षा उसे जला देना अच्छा है।

स्थूल शरीर में से छाया शरीर के निकल जाने के बाद उसमें से प्राण शक्ति निकल कर जगत में भरे हुये प्राणों में समा जाती है। अब मनुष्य का जीव (प्रेत) परलोक (काम लोक अथवा प्रेत लोक) की तैयारी करता है और उसके “लिंग शरीर” की अवस्था बदलती है, जिससे जीव शुद्ध होकर मोक्ष का अधिकारी बन सकें। “लिंग शरीर” की इस प्रकार बदली हुई व्यवस्था को यातजा-देह कहते हैं, अर्थात् इसमें अपने कर्मों का फल माँग कर जीव शुद्ध हो जाता है।

प्रेतलोक में भूलोक से आने वाले जीवों को सात अन्त भूमिकाओं अथवा परतों के गोले में रहना पड़ता है, जो एक प्रकार से उसका कैदखाना है। जब तक जीव कर्मों का फल भोगकर इस कैदखाने को भेद कर बाहर नहीं आ जाता तब तक उसकी मुक्ति नहीं हो सकती। अब जिस जीव की प्रकृति इन सात परतों में से जिसके अधिक अनुकूल होती है उसी में यह अधिक समय तक रहता है। एक सावक का कथन है कि साधारण जीव इस लोक में अपनी योग्यता के अनुसार पाँच से पचास वर्ष तक रहते हैं। आत्मोन्नति वाले जीव की “अंतःभूमिका” बहुत सूक्ष्म या बारीक होती है, इसलिये उसकी भावना देह के सातों परत बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं और वह प्रेत लोक से निकल कर ऊपर के लोक में जा पहुँचता है। जिस व्यक्ति की इतनी आत्मोन्नति नहीं हुई है परन्तु जिसने उचित आहार-बिहार द्वारा अपना जीवन शुद्ध रखा है और साँसारिक वस्तुओं में जिसकी वासना मन्द रही है, वह काम लोक से बहुत जल्दी तो नहीं निकल पाता, पर अब तक उस लोक में रहता है उस अपनी अवस्था का ध्यान नहीं रहता और वह बराबर एक शान्तिदायक स्वप्न सा देखता रहता है जब वह ऊपर वाले स्वर्ग लोक में पहुँच जाता है तभी उसे चेतना आती है जो जीव इनसे भी कम उन्नति वाले हैं उनको नीचे के दर्जे में तो बेहोशी की अवस्था में रहना पड़ता है और जब ये अपनी प्रकृति के अनुकूल अंतःभूमिका में पहुँचते हैं तभी उनको चेतना आती है। जीवन काल में जिन मनुष्यों में पशु प्रवृत्तियाँ बहुत प्रबल रही हैं, वे अपनी वृत्तियों से मिलते हुये नीचे के खंडों में जागृत हो जाते हैं और वहाँ के जीवन का भोग करते हैं। सर्व साधारण की भाषा में प्रेम लोक की इन्हीं सात अंतःभूमिका या परतों को सात नर्क के नाम से पुकारा जाता है।

जिन मनुष्यों की किसी कारण से अकालमृत्यु होती है जैसे अपघात, आत्मघात, वध (कत्ल) या किसी प्रकार के अचानक मरण से, तो उनके लिये दूसरा नियम है। यदि वे जीव शुद्ध हैं और इनका मन आत्मोन्नति की ओर रहा है तो इनकी विशेष रक्षा होती है और जितनी आयु बाकी बची थी उतने समय तक वे आनन्ददायक निद्रा के वशीभूत रहते हैं। परन्तु दूसरे प्रकार के लोगों को होश बना रहता है। बहुतों को तो मरते समय की सब बातें ज्यों की त्यों स्मरण रहती है और उनको अपने मरने की खबर भी नहीं होती। वे अपने कर्मों के अनुसार अंतःभूमिका में रहते हैं और उनका प्रेत लोक का जीवन तब आरम्भ होता है जब वे अपनी शेष आयु उस भूमिका में रह कर समाप्त कर लेते हैं। एक मनुष्य ने दूसरे व्यक्ति का खून किया था और इस अपराध में उसे फाँसी का दण्ड मिला था, प्रेत लोक में यह मनुष्य बार-बार उस मनुष्य को मार कर फिर गिरफ्तारी और फाँसी लगने का दुःख अनुभव करता था। जो आत्म हत्या करके मरते हैं, उनको भी अपने जीवन की निराशा, भय आदि का अनुभव बराबर होता रहता है और वे बार-बार आत्म हत्या का भयानक कृत्य करते रहते हैं। एक स्त्री आग में जल कर मर गई। मरते समय अपने को बचाने के लिये उसने बहुत प्रयत्न किया था इसका फल यह हुआ कि मरने के बाद भी कितने ही दिन तक वह वैसा ही प्रयत्न करने का और कष्ट पाने का अनुभव करती रही एक अन्य स्त्री आँधी के कारण नाव डूब जाने से अपने दूध पीते बच्चे के साथ मर गई। मरते समय भी उसका चित्त शान्त और प्रेममय था। इस कारण मर जाने पर भी वह अपने पति और बच्चों के आनन्ददायक स्वप्न देखती हुई सोती रही।

मनुष्य को अपने कर्मों का फल परलोक में अवश्य किसी न किसी रूप में भोगना पड़ता है इसलिए इस लोक में सब प्रकार के पापों और अनुचित कार्यों से बचे रहकर अपने जीवन को शुद्ध रखना ही उसका कर्तव्य है।


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