जो मनुष्य दूसरे की स्त्री को माता के समान, दूसरे के धन को ढेले के समान और सब प्राणियों को अपने समान देखता है, वही परमात्मा को देख सकता है।
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पृथ्वी के तीन रत्न है- जल, अन्न, और प्रिय-वचन, पर मूर्खों ने जड़ पदार्थों के टुकड़ों का नाम रत्न रख छोड़ा है।
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जीना उसी मनुष्य का सम्भव है जो गुणी और धर्मात्मा हो। गुण-धर्म से हीन मनुष्य का जीना व्यर्थ है।
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गुणों के कारण मनुष्य उत्तम और ऊँचा गिना जाता है। ऊँचे आसन पर बैठने से उत्तम नहीं होता। मन्दिर की चोटी पर बैठा कौआ क्या गरुड़ हो सकता है?
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अन्न और जल के समान कोई दान नहीं है, गायत्री से बढ़ कर कोई मंत्र नहीं है और माता से बढ़ कर कोई देवी नहीं।
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निर्बुद्धि शिष्य को पढ़ाने से, दुष्ट स्त्री को प्यार करने से और दुखियों के साथ कारबार करने से पंडित जन दुःख ही पाते हैं।