आप ईश्वर के पुत्र हैं!

January 1960

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(डॉ. रामचरण महेन्द्र एम.ए.पी.एच.डी)

जो अपनी पैतृक सम्पत्ति को जान लेता है, अपने वंश के गुण, ऐश्वर्य, शक्ति,सामर्थ्य आदि से पूर्ण परिचित हो जाता है, वह उसी उच्च परम्परा के अनुसार कार्य करता है, वैसा ही शुभ व्यवहार करता है, उसी उत्कृष्ट भूमि में निवास करता है। जब तक किसी को अपने शील गुण और वंश का ज्ञान नहीं होता, तभी तक वह दीन स्थिति में रहता है।

यदि आप से कहा जाय कि आप इस संसार के सबसे बड़े सबसे अमीर और शक्तिशाली पिता के पुत्र हैं, तो आप मन ही मन क्या सोचेंगे? आप अपने को असीम शक्तियों का मालिक पाकर हर्ष के उल्लसित हो उठेंगे। आप अपने भाग्य को सराहेंगे? दूसरे आपको अपने सामने क्षुद्र प्रतीत होंगे।

वस्तुतः बात यही है! आप साधारण व्यक्ति नहीं हैं। आप एक ऐसे पिता के पुत्र हैं, जिसकी शक्तियाँ इस संसार में सबसे बढ़ी चढ़ी हैं। जो संसार के सब प्राणियों का जन्मदाता और पालनकर्त्ता है। आप परमात्मा की प्रेरणा और दिव्य विधान में जन्में हैं। आपके विचार, आपकी वाणी, आपके व्यवहार में परमात्मा के दिव्य तत्व ओतप्रोत हैं। आपका व्यक्तिगत कुछ नहीं, सब परमात्मा का ही है। आपका शरीर, इसकी विभिन्न क्रियाएं भी आपके आधीन नहीं हैं। वे भी ईश्वर के ही आधीन हैं। जिस परमात्मा के विधान से अनन्त ब्रह्माण्ड लोक संचालित होते हैं, उसी से आपका जीवन और क्रियाएं भी संचालित होती हैं।

साधारण अमीर पुत्र ही अपने को धन्य मानता है और अकड़ कर चलता है, पर आप तो कुबेरों के कुबेर लक्ष्मीपति के भाग्यशाली पुत्र हैं। आपका शरीर परमात्मा का पवित्र मंदिर है, आपका मन परमात्मा का विचार मंत्र है। आपकी सम्पदा की कोई पार नहीं, कोई मर्यादा नहीं।

आप ईश्वर के पुत्र होना स्वीकार कर लीजिए

आप हमारी बात मानिये, अपने को ईश्वर का पुत्र होना स्वीकार कर लीजिए। बस, आप उन तमाम सम्पदाओं के स्वामी बन जायेंगे, जो आपके पिता में हैं। पुत्र में पिता के सब गुण आने अवश्यम्भावी हैं। ईश्वर के पुत्र होने के नाते आप भी असीम शक्तियों और देवी सम्पदाओं के मालिक बन जायेंगे। ईश्वर के अटूट भण्डार के अधिकारी हो जायेंगे।

इमली के वृक्ष से एक छोटी पत्ती तोड़िये और इसे जिह्वा पर रखिए और दाँतों से चबाइये। आप उसे खट्टी पायेंगे। इमली के फल को चखिए वह और भी खट्टा है। इमली का फूल, छाल, बीज, पत्ती, कोपलें - सभी में खटाई का गुण थोड़े बहुत अन्तर से समान रूप में वर्तमान है। सर्वत्र वही गुण अदृश्य रूप से रमा हुआ है।

एक नीम से पत्ती तोड़ कर चखिए ....कड़वी है। उसकी निबोरी, उसकी छाल सभी कड़वी है। फूल कड़वे हैं। उसकी गन्ध तक से कड़वापन भासित होता है। नीम का बीज कड़वा, उसका पौधा कड़वा, फल कड़वा। जैसा बीज होता है, वैसा ही फल होता है। बीज से फल, और फल से उसी प्रकार का बीज वैसी ही सृष्टि -यही संसार के प्राणी जगत का क्रम हैं।

आप जन्तु विज्ञान विशारदों से बातचीत कीजिए। वे आपको बतलाएंगे कि जो गुण किसी भी जीव के पिता में होते है, वही उसकी सन्तान में पनपते और फलित होते हैं। दुधारू गाय की बछिया, माँ से भी अधिक दूध देती है। नस्ल सुधार वाले केवल ऊँची नस्लों वाली गायों की ही रक्षा करते हैं। उन्हीं के बच्चों को ध्यान से पालते हैं। पिता और माता के गुण उनके बच्चों में पूरी तेजी से उभर आते हैं। खूब फलते फूलते हैं।

फिर यदि आप अपने को ईश्वर का पुत्र होना स्वीकार कर लेते हैं, तो एक ऐसी शक्ति-स्त्रोत से अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं, जो अनन्त है, अटूट है। संसार के सर्वोच्च गुणों का आदि स्थान है।

ईश्वर हमको पिता होने के कारण कभी नहीं भूलता, हम ही उनको मूढ़तावश भूल बैठते हैं, यही दुःख का कारण है। वह पानी जैसी चीजों में रस की तरह है, सूर्य और चन्द्र में प्रकाश है, वेदों में ॐ है, आकाश में विस्तार है, मनुष्य में उनकी हिम्मत है, जमीन में खुशबू की तरह है, आग में उसकी दमक है और तपस्वियों में उनका तप है।

गीता के शब्दों में, “जो मुझे (ईश्वर को) सब जगह और सब चीजों को मेरे अन्दर देखता है, वह न कभी मुझसे पृथक होता है और न मैं उससे पृथक होता हूँ” जो मनुष्य एक मन एकाग्र होकर जानदारों के अन्दर सब घर में रहने वाले ईश्वर की पूजा करता है, वह योगी चाहे कहीं भी हो ईश्वर के अन्दर है।

महात्मा गाँधी जी कहा करते थे, “मेरा ईश्वर मेरा प्रेम और सत्य है। नीति और सदाचार ईश्वर है, निर्भयता ईश्वर है। आनन्द ईश्वर है। मानवीय सद्गुणों का सर्वोत्कृष्ट रूप है। मानवता की सेवा द्वारा ही ईश्वर के साक्षात्कार का प्रयत्न मैं कर रहा हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ कि ईश्वर न तो स्वर्ग में है, और न पाताल में, बल्कि हर एक के हृदय में है।”

ईश्वर सब लोगों में है, मगर सब लोग ईश्वर में नहीं हैं। क्या आप अपने को ईश्वर का पुत्र मानते हैं? यदि हाँ, तो उन्हीं गुणों को अपने चरित्र में प्रकट करना आरम्भ कर दीजिए।

ईश्वर के पुत्र होकर भी आप अपने को तुच्छ, निकृष्ट, या दीन−हीन नहीं कह सकते, क्योंकि ईश्वर तो शक्ति पुँज है।

ईश्वर के पुत्र होकर आप बैर, क्रोध, प्रतिशोध या शत्रुता के भाव मन में नहीं रख सकते, किसी का बुरा नहीं कर सकते, किसी का अहित नहीं सोच सकते, क्योंकि यह सम्पूर्ण विश्व परमात्मा का ही रूप है। (“पुरुष एवेद सर्वम्”-ऋग्वेद 10-60-2) इस विश्व में परमात्मा ही अनेक रूपों से जन्म ले रहा है। इर्द-गिर्द समाज में रहने वाले भाई बन्धु परमात्मा की प्रति-मूर्तियाँ हैं।

“ न मैं कैलाश में रहता हूँ, न बैकुण्ठ में मेरा वास भक्त के हृदय में है। (शिव स्त्रोत)

आप अपने को क्षुद्र हाड़ माँस चर्म रुधिर से बना हुआ पुतला समझना छोड़ दीजिए। मत मानिये कि आपका यह शरीर घृणित मल-मूत्र, माँस, रक्त, मवाद का पिण्ड है। पाप से उत्पन्न पाप करने वाला प्राणी है। नाशवान कुमार्गी, वासनामय है। अपने विषय में आज तक बनी हुई सब थोथी धारणाओं को तिलाँजलि दे दीजिए।

आप यह मानिए कि मेरा यह शरीर अखण्ड अगणित चेतन अणु परमाणुओं का संगठित तेज पुँज है। ईश्वर का साक्षी प्रतिनिधि है। अतएव पूर्ण है। इसे दूषित, रोगी, घृणित आदि कहने या मानने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। यह सब मेरा भ्रम है।

जब आपको अपनी इस दिव्य ईश्वरीय वंश-परम्परा का ज्ञान हो जाएगा, तब आपका जीवन, व्यवहार, चरित्र, बातचीत, रहन सहन और स्वभाव एक उच्च उद्देश्य से परिचालित होना प्रारंभ हो जायेंगे। आपके संपर्क में आने वाले सभी तेजोमण्डल से प्रभावित हो जायेंगे।

लोग दुखी या सुखी क्यों हैं?

क्या कारण है कि समान परिस्थितियों में रहने वाले कुछ व्यक्ति दुःखी हैं उसी स्थिति के दूसरे सुखी हैं? अतृप्त और दुःखी व्यक्तियों की धारणा है कि ईश्वर की इच्छा अनुसार ही लोग सुखी और दुःखी होते हैं। ईश्वर ही विपत्तियाँ देते हैं, हमें सजाएँ देते हैं जो हमारे जन्म के पापों का दुष्परिणाम हैं। किन्तु यह तर्क थोथा और सारहीन है।

सोच कर देखिए क्या कोई ऐसा पिता हो सकता है जो अपने सब पुत्रों को बराबर प्रेम न करता हो? या अकारण ही उन्हें दुःखी करता हो? पिता तो सदैव स्नेह की वर्षा करता है। उसकी डाँट फटकार में भी स्नेह स्निग्धता छिपी रहती है।

संसार में असंख्य स्त्री पुरुषों ने ईश्वर के प्रेम स्नेह, सहायता, दिशा संकेत को समझा है। मन में अनुभव किया है। फिर यदि आप ही उसे अनुभव नहीं करते तो यह आप ही का दोष है। सूर्य तो चमक रहा है। उसकी रश्मियों को अनुभव न करना आपकी ही गलती मानी जायगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118