एक महात्मा की ‘सोऽहं’ साधना

January 1960

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(श्री ब्रह्मचार आत्मानंद द्विवेदी)

महात्मा फूलसिंह स्यालकोट (पंजाब) के मुँडे की ग्राम के निवासी थे। वे सदा “सोऽहं” का जप करते रहते और इसको ‘लेखा’ के नाम से पुकारते। अगर कोई उनसे प्रश्न करता कि “बाबा जी क्या कर रहे हो” तो ये तुरन्त यही उत्तर देते कि ‘लेखा (अर्थात् हिसाब) कर रहा हूँ।

महात्मा जी की अवस्था जिस समय चालीस वर्ष को हुई तो उनके भाई-बंधु उनकी बेकारी को देखकर असन्तुष्ट हो गये। वे सोचने लगे कि यह कोई काम नहीं करता खा-पीकर चुपचाप, बैठा रहता है। इसलिए उन्होंने कहा- “तुम दिन भर बेकार बैठे रहते हो, और कुछ न हो तो गाय-भैंसों को चरने के लिये ले जाया करो।” बाबा जी का स्वभाव था कि जब कोई उनसे किसी काम के लिए कहता तो दो बार तो इनकार करते, पर तीसरी बार कहने पर उसे स्वीकार कर लेते। इसलिए जब उनके भाइयों ने तीसरी बार यह बात कही तो उन्होंने स्वीकार कर लिया। उस दिन से वे गाय-भैंसों को चराने के लिए ग्राम से बाहर ले जाने लगे। वे जहाँ कहीं मैदान देखते वहीं ठहर जाते। जब वे चारों तरफ किसानों की हरी-भरी खेती देखते तो गायों को बुलाकर और उनकी पीठ पर हाथ फेर कर कहते-”बेटा, किसी की खेती को चरने मत जाना। क्योंकि इसमें मनुष्यों के हिस्से का भी अनाज है। मनुष्य भूखे मरें ऐसा काम मत करना। जब किसान अपने हिस्से का अनाज निकाल लेगा तब भूसा चारा तुमको ही मिलेगा।

फूलसिंह जी जब गायों को यह बात सिखाते तो सब गायें खड़ी होकर उनकी बात सुनती रहती। महात्मा जी तो यह उपदेश देकर समाधि में लीन हो जाने और गाय-भैंसें मैदान में घास चरने लगतीं। ऐसा कभी नहीं हुआ कि वे कभी किसी के खेत में घुसी हों। महात्मा जी उनको दिन भर चरने देते और शाम को हाँक कर घर ले आते। गाँवों के और भी बहुत से लड़के उसी मैदान में अपने पशुओं को चराने लाते थे। वे दोपहर के समय महात्मा जी से कहते “बाबा, आप हमारे ढोरों को देखते रहना हम घर जा कर रोटी खा आवें और आपका भोजन भी यहीं ले आवें।” बाबा जी कहते- “अच्छा बेटा, जाओ मैं ढोरों को देखता रहूँगा।” लड़के खूब निश्चिन्त होकर घर चले जाते, क्योंकि वे जानते थे कि बाबा जी के सामने ढोर किसी तरह की गड़बड़ी नहीं करेंगे। यह बराबर देखने में आता था कि जो पशु लड़ने वाले होते थे वे भी उनकी बात सुनकर सीधे हो जाते थे और अपना स्वभाव छोड़कर सब के साध मिलकर घास चरने लगते थे। जब ग्राम के लोगों को इस बात का पता लगा तो वे अपने उपद्रवी स्वभाव के पशुओं को महात्मा जी के पास लाकर कहते- “बाबा जी मैं अपनी इस उपद्रवी गाय भैंस को यहाँ छोड़े जाता हूँ, इसकी देखभाल करते रहना।” बाबा जी सब की बात स्वीकार कर लेते और उनके पास आकर वे पशु सचमुच सुधर जाते, तथा शाँति कि साथ चरते रहते। जब इन सब बातों की खबर घर के लोगों को लगी तो उन्होंने समझ लिया कि बाबा जी अवश्य ही सिद्ध पुरुष हैं और तब से उन्होंने गाय-भैंस चराने के काम से उनको मुक्त कर दिया।

फूलसिंह जी का स्वभाव ऐसा था कि काम से उनकी हानि होती हो उसे भी लाभदायक ही मान लेते थे। सन 1904-5 में पंजाब के प्रसिद्ध उपदेशक पं. दौलतराम गुजरानवाला में राय कर्मचन्दजी जज के यहाँ कथा बाँचने गये। वहाँ उन्होंने फूलसिंह जी की चर्चा की। गुजरान वाला से उनका ग्राम दस बारह कोस दूर था। जज साहब ने बाबाजी को बुलाने के लिए आदमी भेजा। बाबाजी वहाँ पर पधारे और लगभग 15 दिन रहे। उसी अवसर पर वहाँ होशियारपुर का मुसलमान हकीम आया जो आँखों का इलाज करता था। उसने राय साहब से कहा कि “आप अपनी आँखों की दवा करालें।” पर उन्होंने इन्कार कर दिया। उसने देखा कि बाबाजी भी वृद्ध हैं उनसे पूछ लिया जाए। अगर वे राजी हो जायेंगे तो यहाँ से खाली हाथ लौटना नहीं पड़ेगा। बार-बार पूछने पर बाजी ने अपने स्वभाव के अनुसार ‘हाँ’ कह दिया। पहले तो उन्होंने कहा कि मेरी आँखें ठीक हैं और दवा की कोई जरूरत नहीं जान पड़ती। पर हकीम ने कहा कि आँख में फूली है वह ठीक हो जाएगी। ऐसा कह कर उस बेवकूफ ने आँख में नश्तर लगा दिया जिससे और सुधरने के बजाय और भी बिगड़ गई और अन्त समय तक उसमें से पानी बहता रहा। जब इस बात की खबर राय साहब को लगी तो उन्होंने उस हकीम को पकड़वा मँगाया और कहा कि “इस हकीम को अब कैदखाने में रहना पड़ेगा। इसने आपकी आँख खराब कर दी मैं अब इसकी जिन्दगी खराब कर दूँगा।” पर बाबाजी ने कहा- “नहीं रायसाहब, ऐसा मत करना। उसने तो भले करने के लिए नश्तर लगाया था, पर मेरे दुर्भाग्य से आँख बिगड़ गई। इसमें इसका क्या अपराध है?” रायसाहब ने कहा- “नहीं बाबाजी, यह दुष्ट सब जगह अब भी अपने हाथ की प्रशंसा करता फिरता है।” फिर भी बाबा ने उसे छोड़ देने का आग्रह किया और वहाँ से छुटकारा पाते ही वह जान बचाकर अपने घर भाग गया।

मुँडे की ग्राम का पटवारी आर्य समाजी था। और बाबाजी का बड़ा भक्त भी था। एक बार वह बाबाजी को गुरुकुल के उत्सव में ले गया। उसने वहाँ ले जाकर उसको जिस स्थान पर बैठा दिया वे अंत तक वहीं बैठे रहे। पटवारी उत्सव में शामिल होकर उनके खाने पीने की बात भी भूल गया। जब एक दो दिन बाद उसे याद आया तो इनके पास आकर कहा- “बाबाजी, मैं तो बहुत अधिक कामों में फंस कर आपकी याद ही भूल गया।” बाबाजी ने कहा- “बेटा, जाओ अपना काम करो मैं तो आनन्द में हूँ, मुझे भूख-प्यास कुछ नहीं लगी। तुम उत्सव का काम करो।” बात यह थी कि वे सदैव अन्तर्मुख होकर जप में ही लगे रहते थे। बाहर की घटनाओं और शारीरिक भूख-प्यास की उन्हें खबर ही नहीं होती थी।

अपनी युवावस्था में वे एक बार जालन्धर के तलवंडी ग्राम को गये थे। उस समय वहाँ रेल नहीं चली थी और वहाँ से उनका ग्राम 125 मील था। जब वे घर को रवाना हुये तो थोड़ी दूर चलने पर उनको प्यास लगी। सड़क पर चलते-चलते जब उनको प्यास का ख्याल आया तो सोचा कि अगले गाँव में पी लेंगे। पर जप करने की धुन में उनको अगले ग्राम का पता ही नहीं लगा। इसी प्रकार एक-एक करके अनेक ग्राम निकल गये और जप में ध्यान लगा रहने से उनको पानी पीने का मौका ही नहीं मिला और वे घर तक पहुँच गये।

सुनने में यह बात असंभव सी जान पड़ती है कि मनुष्य बिना पानी पिये इतने फासले तक चला जाय। पर एक तो बाबाजी की आत्मा ब्रह्ममय हो रही थी जिस पर प्राकृतिक शक्तियों का प्रभाव बहुत कम पड़ता है और दूसरे बाबाजी बालब्रह्मचारी थे। एक बार उन्होंने सुप्रसिद्ध पं गणपति शर्मा जी से ब्रह्मचर्य पर बात करते हुये कहा था कि “मैंने आज तक वीर्य को देखा ही नहीं कि कैसा होता है।” इस अखंड ब्रह्मचर्य के प्रभाव से वे 128 वर्ष की आयु तक जीवित रहे और अंतिम समय तक उनकी इन्द्रियाँ ऐसी सतेज रही कि युवक भी चलने फिरने में उनकी बराबरी नहीं कर सकते थे। 120 वर्ष की आयु में उनकी दाढ़ी और मूँछ के सफेद बाल पुनः काले हो गये थे, नये दाँत फिर से आने लगे थे और शरीर की झुर्रियाँ मिटकर देह चर्म फिर से चमकदार बन गया था वे दिन रात में कभी नहीं सोते थे, सदैव उनका “सोऽहं” जप चलता ही रहता था। इसी के प्रभाव से 128 वर्ष पूर्ण निरोग जीवन बिताकर सबको पहले से सूचना देकर बैठे-बैठे परम को चले गये।

जप की शक्ति बहुत अधिक है, पर वह उसी अवस्था में प्रभावशाली होता है जब कि मनुष्य उसे अन्तरात्मा से करें और उसमें अपने को भूल जाय ऐसा ही जप करने वाला दैव शक्ति प्राप्त करके उसके द्वारा अपना और दूसरों का कल्याण कर सकता है।


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