अनेक बार ऐसा देखने में आता है कि एक मनुष्य किसी मंत्र की उपासना करता है, और मन में ऐसा विचार करता है कि इसे किसी को बतलाना ही चाहिये। ऐसा व्यक्ति न तो अपना भला कर सकता है और न दूसरों का। क्योंकि ऐसे व्यवहार से मन में ईर्ष्या का भाव उत्पन्न होता है और इसके कारण मंत्र का गौरव और प्रभाव अपने आप समाप्त हो जाता है। यह सत्य है कि बिना अधिकार के मंत्र नहीं दिया जा सकता, पर अधिकारी जान कर भी वर्षा वश मंत्र देने में आनाकानी करना ठीक नहीं। मंत्र का साधन करने वाला और दूसरे से साधन कराने वाला उदार चित्त का, पूर्ण श्रद्धा वाला होना चाहिये। व्यक्तिगत अभ्युदय की इच्छा रखते हुये यह भी समझ रखना चाहिये कि समष्टि में ही व्यक्ति समाया हुआ है। ऐसा समझने वाला अपने साथ संसार का भी भला कर सकता है।
गायत्री मंत्र का जप यज्ञोपवीत धारण करने वाला प्रत्येक थोड़े बहुत अंशों में करता ही है। पर इस मंत्र में क्या बतलाया गया है? इसका प्रयोग बहुत कम लोग करते हैं। आजकल तो प्रत्येक गुरु यज्ञोपवीत के साथ गायत्री मंत्र देता है और कह देता है कि अब बिना नागा जप करते रहना। दुख की बात है कि अधिकाँश में गुरुओं को भी मंत्र का अर्थ नहीं आता। इसका नतीजा वह होता है कि मंत्र दीक्षा लेने और यज्ञोपवीत धारण करने वाला व्यक्ति यह तो नहीं समझता कि “यह हमारा धर्म है अतः श्रद्धापूर्वक इसका पालन करना चाहिये।” इसके विपरीत वह यह सोचता है कि “यह हमारी परम्परा है।” इसलिये यज्ञोपवीत और दीक्षा से सैकड़ों रुपया खर्च कर देने पर भी, वे थोड़े समय बाद उसे भुला देते है।
इस प्रकार का जप, जप नहीं कहलाता। वह तो संस्कृत की एक पंक्ति को पढ़ लेना मात्र है। आज के अर्थ युग में मनुष्य केवल द्रव्य के लिये जप करने या कराने की अभिलाषा करता है। वह सोचता है कि मैं ऐसा कौन सा जप करूं कि जिससे लक्ष्मीजी मनमाना धन दे दें। पर वह यह नहीं सोचता कि समस्त जपों के मूल में गायत्री जप ही मौजूद रहता है। कोई भी अनुष्ठान करना हो प्रायश्चित में पहले गायत्री माता का जप ही किया जाता है। इसी से प्रकट होता है कि गायत्री का गौरव सर्वाधिक है। आश्चर्य है कि इस तथ्य को जानने पर भी हम द्रव्य के लिये इधर-उधर मारे-मारे फिरते हैं। चाहे किसी ने वेदाभ्यास न किया हो, शास्त्र और पुराण न बाँचे हों, तो भी यदि गायत्री जप में तुम्हारी सच्ची श्रद्धा होगी, तो वह गायत्री का जप सब वस्तुओं को प्राप्त करा देगा। महर्षि व्यासजी ने कहा है-
यथा मधु ये पुष्पेभ्यो घृतं दुग्घाद रसात् पयः।
एवं हि सर्व वेदानाँ गायत्री सार मुच्यते॥
“जिस प्रकार पुष्पों का सार शहद, दूध का घी, और सब रसों का सार दूध है वैसे ही सब वेदों का सार गायत्री है।”
कहा जाता है कि श्री कृष्ण के लिये अर्जुन में ऐसी तल्लीनता का भाव था कि जब अर्जुन सो जाता तो उसके साँस में भी श्री कृष्ण का शब्द सुनाई पड़ता था। इसी प्रकार गायत्री का जप भी ऐसे होना चाहिये कि रोम-रोम और श्वाँस-श्वाँस में उसी की रट लगी रहे। जिस प्रकार औषधि शारीरिक व्याधि को दूर करती है वैसे ही इस प्रकार किया हुआ गायत्री जप समस्त मानसिक और शारीरिक व्याधियों का दूर करने वाला होता है। पर जब तक ऐसा न होने लगे तब तक हमें धैर्यपूर्वक उसमें लगा रहना चाहिये।
जप करने वाला व्यक्ति धैर्यवान् न हो तो उसका चित्त एकाग्र नहीं हो सकता, और जब तक एकाग्रता न हो तब तक जप जैसा होना चाहिये वैसा नहीं हो पाता। संकटों के दुर्ग में फंसे हुये जगत के तरने का उपाय गायत्री मंत्र ही है। जब तक इसका अनुभव नहीं किया जाता तब तक इसके अस्तित्व का पता भी नहीं चलता। पर यदि हम गायत्री के किसी सच्चे भक्त का उपदेश ग्रहण कर लें, तो हम भी इस मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं।
गायत्री मंत्र यह एक व्यक्ति का नहीं पर समष्टि (समाज) के कल्याण का साधन करने वाला मंत्र है। इसलिये सामुदायिक हित का ध्यान रखकर इस मंत्र का जप करने से जितना लाभ हो सकता है उतना लाभ व्यक्तिगत हित की भावना रखने से नहीं हो सकता। इस जप का महत्व समझ लेने के बाद यदि हम अन्य मनुष्यों को इसके करने की प्रेरणा करे तो उनके जप का कुछ फल भी हमको प्राप्त होता है। अगर बहुत से लोग इस तरफ ध्यान दें और इस प्रकार एक दूसरे को जप करने की प्रेरणा देते चले जाये तो एक दिन समस्त संसार में धर्म का अभ्युदय हो सकता है।