कर्म योग द्वारा सर्व सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।

January 1960

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(श्री. गंयाप्रसाद जी बनोली)

संसार की उत्पत्ति भगवान से हुई है और भगवान ही सारे जगत में परिपूर्ण हैं। मनुष्य अपने कर्मों द्वारा इन भगवान की पूजा करके परम सिद्धि रूप भगवान को सहज ही प्राप्त कर सकता है। जो जिस कार्य को करता हो, जिसका जो स्वाभाविक कर्म हो उसी को करे, न तो सबके कर्म एक से हो सकते हैं और न एक सा बनाने की व्यर्थ चेष्टा ही करनी चाहिये। नाटक में सभी पात्र एक ही पात्र का पार्ट करना चाहें तो वह खेल बिगड़ जायेगा। इसलिये अपनी अपनी जगह सभी की जरूरत है और सभी का महत्व है। राजा और मजदूर दोनों की ही आवश्यकता है और दोनों ही अपना अपना महत्व रखते हैं। इसलिये कर्म न बदलो मन के भाव को बदल डालो। कर्म का छोटा बड़ा पन बाहरी है। महत्व तो हृदय के भाव का है। ऊँच नीच का भाव रखकर राग द्वेष पूर्वक पराये अहित के लिये लोक दृष्टि में शुभ कर्म करने वाला नरक गामी हो सकता है।

स्वार्थ को सर्वथा छोड़कर निष्काम भाव से श्री भगवान की प्रीति के लिये भगवद्ज्ञानसार साधारण स्वकर्म करता हुआ ही मनुष्य परम सिद्धि रूप परमात्मा को पा सकता है। मनुष्य इस प्रकार अपने प्रत्येक कर्म को मुक्ति या भगवत् प्राप्ति का साधन बना सकता है। जिस कर्म में काम, क्रोध, लोभ आदि नहीं हैं जिसमें भगवान को छोड़कर अन्य किसी भी फल की आकाँक्षा नहीं हैं जो कर्म की अथवा फल की आसक्ति से नहीं किन्तु भगवान के दिये हुये स्वाँग का खेल अच्छी तरह खेलने की इच्छा से निरन्तर भगवत्- स्मरण करते हुये भगवत् प्रीत्यर्थ सात्विक कर्म उत्साह पूर्वक किया जाता है, उसी विशुद्ध कर्म से भगवान की पूजा होती है। यह पूजा अपने किसी भी उपर्युक्त दोषों से रहित विहित स्वकर्म के द्वारा प्रत्येक स्त्री पुरुष सहज ही अपने अपने स्थान में रहते हुये ही कर सकता है। केवल मन के भाव को बदल कर कर्म का प्रवाह भगवान की ओर मोड़ देने की जरूरत है। फिर प्रत्येक कर्म तुम्हारी मुक्ति का साधन बन जायेगा और अपने सहज कर्मों को करते हुये भी तुम भगवान को प्राप्त कर जीवन सफल कर सकोगे।

यदि तुम व्यापारी या दुकानदार हो तो यह समझो कि मेरा यह व्यापार धन कमाने के लिये नहीं है श्री भगवान की पूजा करने के लिये है। लोभवृत्ति से जिन जिन के साथ तुम्हारा व्यवहार हो इन्हें लाभ पहुंचाते हुये अपनी आजीविका चलाने मात्र के लिये व्यापार करो। याद रखो- व्यापार में पाप लोभ से ही होता है। लोभ छोड़ दोगे तो किसी प्रकार से भी दूसरे का हक मारने की चेष्टा नहीं होगी। वस्तुओं का तोल-नाप या गिनती कभी ज्यादा लेना और कम देना बढ़िया के बदले घटिया देना और घटिया के बदले बढ़िया लेना आढ़ती दलाली वगैरह हमें शर्त से ज्यादा लेना आदि व्यापारिक चोरियाँ लोभ से ही होती हैं। परन्तु केवल लोभ ही नहीं छोड़ना है, दूसरों के हित की भी चेष्टा करनी है। जैसे लोभी मनुष्य अपनी दुकान पर किसी ग्राहक के आने पर उसका बनावटी आदर सत्कार करके उससे ठगने की चेष्टा करते हैं, वैसे ही तुम्हें कपट छोड़कर ग्राहक को प्रेम के साथ सरल भाषा में सच्ची बात समझा कर उसका हित देखना चाहिए।

यह समझना चाहिये कि इस ग्राहक के रूप में साक्षात् परमात्मा ही आ गये हैं। इनकी जो कुछ सेवा मुझसे बन पड़े वही थोड़ी है। यों समझ कर व्यापार करोगे तो तुम श्री भगवान के कृपा पात्र बन जाओगे और यह व्यापार ही तुम्हारे लिए भगवन् प्राप्ति का साधन बन जायेगा।

यदि तुम दलाल हो तो व्यापारियों को झूँठी सच्ची बातें समझाकर अपनी दलाली के लोभ से किसी को ठगाओ मत। दोनों के रूप में ईश्वर के दर्शन कर सत्य और सरल वाणी से दोनों की सेवा करने की चेष्टा करो। याद रखो! अभी नहीं तो आगे चलकर तुम्हारी इस वृत्ति का लोगों पर बहुत प्रभाव पड़ेगा यदि न भी पड़े तो कोई हर्ज नहीं है, तुम्हारी मुक्ति का साधन तो हो ही जायेगा।

तुम हाकिम हो तो अपने स्वाँग के अनुसार दया पूर्ण न्याय करो तुम्हारे इजलास में कोई भी मुकदमा आवे तो उसे ध्यान से सुनो रिश्वत खाकर या अन्य किसी भी कारण से पक्षपात और अन्याय न करो। प्रत्येक न्याय चाहने वाले को भगवान का स्वरूप समझकर न्याय रूप सामग्री से उसकी पूजा करो उसे न्याय प्राप्ति में जहाँ तक हो सहूलियत कर दो और सेवा के भाव से ही अपने को मजिस्ट्रेट या जज समझो, अफसर नहीं। तुम्हारी इसी निष्काम सेवा से भगवान की कृपा होगी और तुम भगवन् प्राप्ति कर सकोगे। तुम वकील हो तो पैसे के लोभ से कभी अन्याय का पैसा मत लो, झूँठी गवाहियाँ न बनाओ, किसी को तंग करने की नीयत न रखो। प्रत्येक मुश्किल को भगवान का स्वरूप समझकर भगवत् सेवा के भाव से उचित मेहनताना लेकर उनका न्याय-पक्ष ग्रहण करो।

तुम चाहो तो भगवान की बड़ी सेवा कर सकते हो और सेवा से तुम्हें भगवन् प्राप्ति हो सकती है।

तुम डॉक्टर या वैध हो तो रोगी को भगवान का स्वरूप समझ कर उसके लिये सेवा के भाव से ही उचित पारिश्रमिक लेकर औषधि की व्यवस्था करें लोभ वश रोगी को सताओ नहीं। गरीबों का सदा ध्यान रक्खो। तुम अपनी निःस्वार्थ सेवा से भगवान के बड़े प्यारे बन सकते हो और भगवान प्राप्ति कर सकते हो।

तुम मालिक हो तो नौकरों को सताओ मत, अभिमान वश अपने को बड़ा न समझो, अपने स्वाँग के अनुसार नौकरों से काम लो परन्तु मन ही मन उन्हें भगवान का स्वरूप समझ कर उनके हित रूपी सेवा करने की चेष्टा करते रहो। मन से किसी का तिरस्कार न करो। लोभवश किसी की न्याय आजीवन को न काटो। उनके भले में लगे रहो। इसी से तुम पर भगवान कृपा करेंगे और तुम्हें अपना परम पद प्रदान करेंगे।

इसी प्रकार और भी सब लोगों को अपने कर्मों द्वारा भगवान की निष्काम पूजा करनी चाहिये।

उपरोक्त तथ्यों से हम यह सार निकालते हैं कि भगवान की प्रसन्नता प्राप्ति के लिए किसी विशेष धन या ऐश्वर्य की आवश्यकता नहीं है बल्कि जो काम हम करते हैं, उसी को विवेकपूर्णता से किये जायें। लोभ वृत्ति उत्पन्न करके हम छल, कपट आदि को न अपनायें। अपने ग्राहकों या व्यवहार में आने वालों को भगवत् स्वरूप मानकर चलें। हम अपने काम को हीन न समझें। उसी में सुन्दरता लाने का प्रयत्न करें। इसी से हम उन्नति के पथ पर अग्रसर हो सकते हैं, मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं, आनन्द के समुद्र में गोते लगा सकते हैं। सभी प्रकार की सिद्धियाँ उसके पैरों पर लौटती हैं।


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