श्री अरविन्द घोष की पूर्ण योग साधना

January 1960

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(श्री जीवनदत्त पण्ड्या एम. ए. पी. एच. डी.)

भारतीय साधन प्रणाली के कितने ही अंग हैं, जिनमें योग-मार्ग बहुत ऊंचा माना गया है। भक्ति, पूजा, उपासना, भजन, तप आदि विधियों का तो साधारण श्रेणी के मनुष्य भी पालन कर सकते हैं, पर योग की आरम्भिक साधना भी काफी कठिन मानी जाती है। उसे वे ही लोग कर सकते हैं जिनमें आध्यात्मिकता का कुछ अंश है और त्याग और तपस्या में जिनको अनुराग है।

योग का वास्तविक आशय है जीव का भगवान के साथ एकत्व प्राप्त करने की चेष्टा करना। अथवा यों कह सकते हैं कि आत्मा और परमात्मा का उपयोग ही योग-साधना का सर्वोच्च लक्ष्य है। इसके लिये विभिन्न महात्माओं ने अनेक प्रकार की योग-शक्तियों का आविष्कार किया है, जो आज कल हमारे देश में प्रचलित है। इनमें हठयोग, राजयोग, शक्तियोग, कर्मयोग और ज्ञानयोग का नाम अधिक प्रसिद्ध है। जपयोग और क्षव योग को भी महत्व पूर्ण माना गया है। पर इन समस्त योगों की साधना में मनुष्य को अपने साधारण रहन-सहन में विशेष परिवर्तन करना पड़ता है और जीवन के कुछ अंगों का दमन और कुछ का अधिकाधिक विकास करना पड़ता है। उदाहरण के लिये हठयोग की साधना में षट्कर्म जैसे प्रकृति के साधारण नियमों से भिन्न और कठिन विधियों से काम लेना पड़ता है और आसन-प्राणायाम आदि का विशेष रूप से अभ्यास करना पड़ता है। राजयोग में भी लगातार घण्टों तक ध्यान करते रहना और साँसारिक व्यवहारों से अपने को बहुत कुछ हटा लेना आवश्यक होता है। इन सब बातों का साराँश यही है कि अब तक योग के जो स्वरूप लोगों में प्रचलित हैं उसे साधारण जीवन यापन से बहुत भिन्न समझा जाता है, और जो लोग उस मार्ग को ग्रहण करते हैं वे प्रायः गृहस्थ जीवन का त्याग कर देते हैं। इससे अब कुछ नवीन संत पुरुषों ने योग की ऐसी विधियों का प्रचार आरम्भ किया है जिनकी साधना साँसारिक-जीवन का पालन करते हुये ही भली प्रकार से की जा सके और जिससे काफी ऊँचे आध्यात्मिक दर्जे पर भी पहुँचा जा सके। ऐसे योग-प्रचारकों में श्री अरविन्द घोष का नाम बहुत अधिक प्रसिद्ध है, उन्होंने वर्षों के अभ्यास और अध्ययन से अपने शिष्यों को जिस “पूर्ण योग“ का उपदेश दिया उससे उपर्युक्त उद्देश्य भली प्रकार पूरा हो जाता है। इस सम्बन्ध में इस योग का अभ्यास करने वाले एक लेखक का कथन है- “पूर्ण योग वह सर्वांग साधन प्रणाली है जिससे साँसारिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन के बीच सर्व विजयी सामंजस्य स्थापित हो सके, अर्थात् जीवन को बिना खोये भगवान को प्राप्त करना, मानव-जीवन के भीतर भगवान और प्रकृति का पुनर्मिलन साधित करना। इसमें “पूर्ण” शब्द ही यह सूचित करता है कि यह योग मनुष्य को पूर्णत्व प्राप्त कराता है। अर्थात् यह आत्मा के भीतर जीवन को पूर्णत्व प्रदान करता है, सार्थक बनाता है। यह जीवन के किसी भी भाग को, चाहे वह शरीर, प्राण या मन किसी से सम्बन्ध रखने वाला क्यों न हो, त्याग नहीं करता। इसका उद्देश्य यह है कि मनुष्य के अंदर निहित भगवत् सत्ता के दृढ़ आधार के ऊपर समाज का एक महान् भवन निर्मित किया जाय। वेदान्त सिद्धान्त पर आधार रखने वाले योगों का उद्देश्य होता है आत्मा के अंदर जीवन को लय कर देना, पर “पूर्ण योग“ की विशेषता यह है कि वह आत्मा के भीतर से जीवन को प्राप्त कराता है। पुराने ढंग से सभी योग प्रायः “आत्म केन्द्रित” थे, साँसारिक जीवन से उनका कोई सम्बन्ध नहीं था, वे केवल परलोक से ही सम्बन्ध रखते थे। वे इस गतिशील जगत को स्वप्न, माया और मृगमरीचिका समझ कर इससे दूर ही रहे, और निराकार ब्रह्म में अपनी आत्मा की मुक्ति प्राप्त करने की चेष्टा में ही लगे रहे। उन्होंने समाधि को ही सबसे अधिक महत्व प्रदान किया, और मन को एक दम स्थिर बनाकर अथवा यों कहे कि मारकर ही शारीरिक चेतना को शाँत (निस्तब्ध) बनाने की चेष्टा है।

“पूर्ण योग“ भी आत्मा और परमात्मा में भेद की भावना को तो मिटाना चाहता है, परन्तु वह केवल अपनी आत्मा की मुक्ति के लिये ही प्रयास नहीं करता, वरन् विश्वात्मा भगवान के अंदर समस्त मानव-समाज को पूर्णत्व प्रदान कराना चाहता है। वह अपनी स्वार्थ युक्त मुक्ति के लिये नहीं, वरन् मानवता के भीतर भगवान की अभिव्यक्ति के लिये चेष्टा करता है। यह जीवन के अंदर आदर्श और वास्तविकता को एक बना देना चाहता है। संक्षेप में यह कह सकते हैं कि यह जीवन को भगवानमय दिव्य बनाता है और पृथ्वी को स्वर्ग (दिव्य धाम) में रूपांतरित करता है।

जब हम पूर्ण योग की साधना प्रणाली पर विचार करते हैं तो हमको निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना आवश्यक जान पड़ता है - (1) शुद्ध मन से आत्मोत्सर्ग की भावना, (2) अपनी सत्ता के प्रत्येक अंश का सच्चाई के साथ पूर्ण समर्पण, (3) भगवान के साथ सचेतन एकता, (4) उनके रूपांतरकारी स्पर्श को प्रत्यक्ष रूप से स्वीकार करना, (5) भगवान ने जो कर्म हमारे लिये निर्दिष्ट किया है उसे दृढ़ विश्वास रखकर अंगीकार करना, (6) भगवान की इच्छा के सामने अपने सब कर्मों और सर्वस्व को उत्सर्ग कर देना, (7) अहंकार, अभिमान, द्वेष, कामना, वासना आदि प्रकृति के समस्त दोषों को त्याग कर भगवन् द्वारा किये जाने वाले रूपांतर को तैयार होना, (8) प्राणों की शुद्धि (9) हृदय का प्रेम और भक्तिभाव (10) मन की प्रकाशमयी एकाग्रता (11) प्राणों का सौंदर्य और सामंजस्य (12) जिस परिस्थिति में भगवत् इच्छा ने रखा है उसके साथ प्रत्येक कार्य में सामंजस्य। योग का अर्थ यही है कि आत्मा को पहिचाना जाय, परिपूर्ण बनाया जाय, आत्मा का विस्तार किया जाय, और विश्वात्मा भगवान की भीतर आत्मा को विकसित बनाया जाय। अपने आप को भगवान की इच्छा के सम्मुख सदा सुख और नमनशील रखो। तुम यह समझ लो भगवान की शक्ति ही तुमसे काम करा रही है, तुम उसका एक यंत्र हो और उसकी इच्छानुसार कार्य करना तुम्हारा कर्तव्य है। कर्म फल की कामना का त्याग करो। यह विश्वास करके कि भगवान समस्त भूतों (पदार्थों) में आत्मा के रूप में व्याप्त है और ज्ञान पूर्वक सबसे प्रेम करो। ऐसा करने से भगवान की शक्ति तुमको “अति मानस स्तर” (मनुष्य की वर्तमान अवस्था से ऊँचा आत्म शक्तियुक्त दर्जा) पर पहुँचा देगी। वहाँ पहुँचकर ही तुम आत्मा और जड़ तत्व को विश्वात्मिका सत्ता के अंदर एक साथ मिल सकते हो।

परन्तु एक विषय में तुमको सदा सावधान रहना होगा कि योग का उद्देश्य तुम्हारी व्यक्तिगत मुक्ति नहीं है, वरन् इसका उद्देश्य मनुष्य मात्र के अंदर भगवान की अभिव्यक्ति करना है। तुम तो केवल उसके एक केन्द्र - एक यंत्र हो।


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