प्राणीमात्र की एकता और आधुनिक विज्ञान

January 1960

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(स्वामी सच्चिदानंद सरस्वती)

संसार में मनुष्य को सबसे अधिक असंतोष तभी होता है, जब कि वह दूसरे मनुष्यों को अपने से अधिक धनवान, बुद्धिमान, शक्तिशाली देखता है। उनका मुझसे अधिक सम्मान होता है, वे मुझसे अधिक सुख से रहते हैं और इस कारण उसको एक प्रकार ही ईर्ष्या या संताप होता है। यदि मनुष्य संसार की वास्तविकता को समझने का प्रयत्न करे और जो भेदभाव का पर्दा नेत्रों के सम्मुख पड़ा है उसे हटा दे तो वह सब प्रकार के कष्टों और असंतोष से छुटकारा पाकर उच्च कोटि के आनन्द को प्राप्त कर सकता है।

समस्त शास्त्रों और महापुरुषों ने मनुष्यों को यही उपदेश दिया है कि मनुष्य का सबसे ऊँचा लक्ष्य “आत्म-भाव” प्राप्त करना है। जैसे मनुष्य अपने शरीर के लिये समझता है कि यह मेरा है उसी प्रकार उसे संसार के समस्त शरीरों को अपना ही समझना चाहिए। यदि वह हृदय से ऐसा अनुभव करने की चेष्टा करेगा और इसका अभ्यास बढ़ाता जायेगा, तो जिस प्रकार अपने शरीर पर उसका अधिकार है वैसे ही दूसरे शरीर भी उसके अधिकार में आ जायेंगे। यद्यपि सुनने में यह बात अनोखी सी जान पड़ती है, पर आप परीक्षा करके देखेंगे तो यह पूर्ण रूप से सत्य सिद्ध होगी।

जब मनुष्य इस प्रकार के विचार और भावनायें अपने भीतर जमा लेता है तो इसका एक बहुत उत्तम परिणाम तुरन्त दिखलाई पड़ने लगता है। साधारण लोग धन के लिये उदास और चिन्तित क्यों होते हैं? क्योंकि वे चाहते हैं कि ये बाग-बगीचे, सुन्दर-सुन्दर स्थान हमारे हों। पर क्या मनुष्य सार्वजनिक बागों में जाकर धनवानों के समान ही आनन्द नहीं उठा सकता? क्या वहाँ के सुन्दर फूल और फलों को कोई धनवान मनुष्य चार आँखों से देख सकता है जब कि तुम केवल दो आँखों से देखते हो? बागों में कोकिल आदि पक्षियों का मनमोहक गाना वह भी उसी प्रकार दो कानों से सुनता है जैसे कि तुम सुनते हो। तो फिर तुम उस बाग के स्वामी बनने की मूर्खतापूर्ण इच्छा क्यों करते हो? इसलिए “राम” का कहना है कि दुनिया के सब बागों को तुम अपना ही समझो दुनिया के सब शरीरों को भी अपना ही समझो। अनुभव करो कि सब प्रभावशाली शक्तियाँ और विशिष्ट मन तुम्हारे ही है। यह ऐसी कल्पना नहीं जिसे तुम अस्वाभाविक या कठिन कह सको। जीवन में उच्च आदर्शों की प्राप्ति के लिये क्या तुम्हें अनेक गुणों की साधना नहीं करनी पड़ती? उसी प्रकार तुम सब शरीर और मनों के अपने होने का भी अभ्यास कर सकते हो और इससे एक अनिर्वचनीय आनन्द को प्राप्त कर सकते हो। यह तथ्य चाहे तर्क शास्त्र, विज्ञान दर्शन, शास्त्र से सिद्ध न हो सके, पर अनुभव द्वारा यह अवश्य सत्य प्रतीत होता है।

किसी सज्जन ने समाचार पत्रों में एक विज्ञापन छपाया था जिसका शीर्षक था “मनुष्य का भ्रातृत्व”। पर हम इस शीर्षक को सार्थक और प्रशंसनीय नहीं समझते। इसी प्रकार “ विश्वव्यापी मातृत्व” भी भ्राँति युक्त जान पड़ता है। “भाई शब्द कुछ भेद बतलाता है। अनेक भाई एक दूसरे से कलह करते, लड़ते दिखलाई पड़ते हैं, किन्तु हम तो किसी भी प्रकार के भेद के लिए जरा सा स्थान भी नहीं रखना चाहते। इसलिए उपर्युक्त शीर्षक के बजाय हम “मनुष्य की एकता और संयुक्त एकता” शीर्षक अधिक अच्छा समझते हैं। आप कहेंगे कि “तुम तो फिर वही आत्मा का राग ले बैठे जो ऐसी सूक्ष्म है कि हमारी समझ में आ ही नहीं सकता।” अच्छी बात है, तब मैं इस विषय की चर्चा बहुत ही स्थूल स्थिति-बिन्दु से आरम्भ करूंगा। हम अपने स्थूल शरीरों को ही सबसे पहले लेंगे। यदि हम आत्मा की प्रकृति को त्याग भी दें यदि हम आत्मा को अपना सच्चा स्वरूप न समझें, तो हमारे स्थूल शरीर भी यही सिद्ध करते हैं कि हम सब एक हैं। भावना के लोक में भी विज्ञान सिद्ध करता है कि तुम सब एक हो। आप शंका करेंगे कि एक शरीर दो कुर्सी पर बैठा लिख रहा है और दूसरा दुकान में खड़ा हुआ सौदा तोल रहा है वे दोनों एक कैसे हो सकते हैं? समुद्र में हमको एक लहर यहाँ और दूसरी वहाँ जान पड़ती हैं, वे विभिन्न आकार प्रकार की जान पड़ती है, किन्तु वास्तव में ये सब लहरें या तरंगें एक ही हैं, क्योंकि वे उसी पानी से हैं। वही एक समुद्र इन विभिन्न लहरों के रूप में प्रकट होता है। जिस पानी ने इस समय एक लहर का रूप धारण कर रखा है वही थोड़ी देर बाद दूसरी लहर बनावेगा।

लहरों के मामले में जो कुछ दिखलाई पड़ता है वही हमारे नैतिक शरीरों के सम्बन्ध में भी सत्य है। जो पदार्थ इस समय मेरे शरीर का रूप लिये हुये हैं, वे ही कुछ समय बाद दूसरे शरीर को बनावेंगे। इतना ही नहीं, जो भौतिक परमाणु मेरे शरीर के बनाने वाले जान पड़ते हैं, वे ही हमारे जीवन काल में ही दूसरी देह में चले जाते हैं। तुम साँस द्वारा ऑक्सीजन हवा को भीतर खींच रहे हो, और कार्बोनिक एसिड की श्वाँस को बाहर निकाल रहे हो। इस कार्बोनिक एसिड गैस को पौधे साँस के लिये खींचते रहते हैं और ऑक्सीजन गैस को निकालते रहते हैं। उस ऑक्सीजन को फिर तुम साँस के लिए भीतर खींचते रहते हो। इससे जान पड़ता है कि पौधों के साथ तुम्हारा भाइयों का सा सम्बन्ध है। तुम्हारी साँस उनमें जाती है और उनकी साँस तुम्हारे भीतर बैठती है। तुम पौधों में साँस छोड़ते हो और पौधे तुममें साँस प्रविष्ट करते हैं। इस प्रकार तुम बाग-बगीचों और पौधों से भी अभिन्न हो।

अब हम इस विषय पर दूसरे पहलू से विचार करेंगे। हम सब मनुष्य एक ही पृथ्वी पर बसते हैं, और एक ही सूर्य, चन्द्रमा तथा वायु मंडल हमको घेरे हुये हैं। इस प्रकार एक बार जो हवा तुम्हारे भीतर जाती है वही कुछ देर बाद दूसरे के भीतर पहुँच जाती है। तुम फल, शाक, भाजी, अन्न या माँस आदि जो कुछ खाते हो उसके कुछ भाग से तो तुम्हारे शरीर का पोषण होता है और शेष भाग मल मूत्र के रूप में बाहर निकल जाता है। वह सड़कर और खाद बनकर फिर शाक भाजी और पौधों में प्रविष्ट कर जाता है और अन्य मनुष्यों द्वारा फिर ग्रहण किया जाता है। इस प्रकार हम देखते है कि जो पदार्थ एक बार तुम्हारा था वही कुछ समय बाद दूसरों का हो जाता है।

यदि हम सूक्ष्म दर्शक यंत्र (खुर्दबीन) से अपने शरीर की चमड़ी को देखें तो हम शरीर से बहुत सूक्ष्म जानदार परमाणु बाहर आते देखेंगे, इतना ही नहीं हमको यह भी दिखलाई पड़ेगा कि परमाणु हमारे शरीर से बाहर ही नहीं आ रहे हैं, वरन् वैसे ही जानदार परमाणु बाहर से आकर हमारे शरीर के भीतर भी जा रहे हैं। इस प्रकार निरन्तर कुछ परमाणु हमारे शरीर से निकल रहे हैं और कुछ उसके भीतर जा रहे हैं। दुनिया में बराबर ऐसा ही विनिमय (अदला-बदला) हो रहा है। जो जानदार परमाणु तुम्हारी देह से बाहर आते हैं वे हवा में फैल जाते हैं और तुम्हारे आस-पास के अन्य मनुष्यों के शरीरों में प्रवेश कर जाते हैं। इसी प्रकार दूसरों के परमाणु तुम्हारे शरीर में घुसते रहते हैं। इस प्रकार विज्ञान इस बात को असंदिग्ध रूप से सिद्ध करता है कि तुम्हारे सब भौतिक शरीर एक ही हैं। शायद तुमको इस पर विश्वास न हो और तुम कहने लगो कि दूसरे के जीवित परमाणु मेरे शरीर में कैसे आ सकते हैं? इस सम्बन्ध में हम आपको इस बात पर विचार करने को कहेंगे कि “गंध” क्या चीज है? आप जानते हैं कि जो चीजें हम सूँघते हैं, उनसे बाहर निकलने वाले छोटे सजीव परमाणु ही गन्ध का कारण होते हैं। फूल छोटे जानदार जर्रे बाहर निकालते हैं, इसलिए उनमें सुगन्ध आती है। यह एक प्रत्यक्ष और विज्ञान द्वारा सिद्ध तथ्य है। इसी प्रकार क्या तुम्हारे शरीरों से गन्ध नहीं निकलती? अवश्य निकलती है। पर तुम्हारी घ्राणेन्द्रिय नाक इतनी तीव्र नहीं है, या यों कहा कि इस प्रकार की सामर्थ्य नहीं रखती कि उस गन्ध को ग्रहण कर सके। पर चूँकि कुत्तों की घ्राणेंद्रिय अधिक तीव्र होती है, इससे वे सूँघ कर तुमको जान लेते हैं और ढूंढ़ लाते हैं। यदि तुम्हारी देह से गन्ध न आती होती तो कुत्ते तुमको भीड़ या घर के भीतर से भी कैसे ढूंढ़ सकते? तुम्हारे शरीरों से निकलने वाली यह गन्ध सिद्ध करती हैं कि छोटे सजीव परमाणु तुम्हारे शरीर को छोड़कर बाहर निकलते रहते हैं।

एक मनुष्य बीमार है। तुम उसके पास जाते हो और कमरे तक से उसकी बीमारी की गंध आती है। एक मनुष्य किसी संक्रामक रोग से बीमार है- हैजा, चेचक या प्लेग से। उसकी बीमारी का छूत दूसरे लोगों को कैसे लग जाती है? इसका एकमात्र कारण यही है कि जो छोटे जर्रे बीमार आदमी की देह से निकल रहे है वे तुम्हारी देह में बैठ जाते हैं इस तरह बीमारी हमें पकड़ लेती हैं और हम अपने को रोगी अनुभव करने लगते है। एक मनुष्य के सर्दी (जुकाम) हो जाती है, तो उसके साथ रहने वाले दूसरे मनुष्य को भी, अगर वह कोमल स्वभाव का है, सर्दी हो जाती है। इससे स्पष्ट होता है कि हम सब के शरीर एक हैं। हमारे सबके स्थूल शरीर भी एक हैं फिर आत्मा का तो कहना ही क्या है? इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य दूसरे मनुष्यों पर बुरा या भला प्रभाव डाल रहा है। यदि वह रोगी है, दुर्व्यसनों में लिप्त है, बुरे विचारों वाला है तो वह अपने आस पास के अन्य लोगों को अवश्य कुछ न कुछ हानि पहुँचाता है और इस दृष्टि से दोषी है। साथ ही यदि हम ऐसे व्यक्ति के सुधार का, उसे सहायता देकर बीमारी या दुर्व्यसन से छुड़ाने का प्रयत्न नहीं करते तो हम भी कम दोषी नहीं है। हमको इस बात को पूर्ण निश्चित रूप से जान लेना चाहिये कि संसार में जितने मनुष्य ऊपर से भिन्न भिन्न दिखलाई पड़ते हैं उनके शरीर और आत्मा एक ही हैं, वे वास्तव में भाई-भाई हैं और उनको दूसरों के हित की वैसी ही चिन्ता रखनी चाहिये जैसी कि वे अपने हित की रखते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118