हम भारतीय संस्कृति के आदर्शों को न भूलें

January 1960

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(श्री मोहनचन्द्र पारीक)

किसी देश, जाति अथवा समाज की संस्कृति से अभिप्रायः उन नैतिक आदर्शों से है जिन पर उनका जीवन अवलम्बित होता है। संस्कृति के आदर्श यद्यपि पुरुषों के धार्मिक विश्वासों, विचारों एवं भावनाओं में अन्तर्निहित रहते हैं तथापि बाह्य जीवन में भी उनकी अभिव्यक्ति दृष्टि गोचर होती है। किसी सम्प्रदाय के मनुष्यों के आचार-विचार, रीति-नीति, वेश-भूषा, रहन-सहन तथा खान-पान को देखकर उसकी सभ्यता का आसानी से पता चल जाता है। जातीय जीवन में संस्कृति के आदर्शों की अमिट छाप रहती है। भारतीय साहित्य का अवलोकन करने से प्रतीत होता है कि भारतवासियों के विचारों में आत्मवाद एवं धार्मिक भावनाओं का प्राबल्य रहा है। हिन्दुओं के जातीय जीवन में भी इसके लक्षण स्पष्ट दिखाई देते हैं।

भारतीय संस्कृति में इसके मौलिक तत्व क्या हैं? वे कौन से स्त्रोत हैं जिनसे यह अनुप्राणित हैं?

भारतीय संस्कृति ईश्वर और धर्म में पूर्ण आस्था रखती है। ईश्वर सर्वव्यापक है और उसको धर्माचरण द्वारा प्रसन्न किया जा सकता है। धर्म के आचरण से ऐहिक और पारलौकिक कल्याण होता है। धर्म का आधार श्रद्धा और विश्वास है। कामना रहित शुभ कर्म करने से अन्तःकरण शुद्ध होता है। इससे ज्ञान की प्राप्ति होती है। ज्ञान ही जीवन मुक्ति का साधन है। यही जीवन का चरम लक्ष्य है। जो संसार के समस्त प्राणियों को आत्म स्वरूप समझता है तथा जो समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहता है, वह ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। इस स्थिति के प्राप्त करने के लिये ‘आत्मवत् सर्व भूतेषु’ होना पड़ता है।

सदाचार एवं सेवा का भारतीय संस्कृति में महान आदर है। सदाचार के अंतर्गत सरलता स्वाभाविकता, सुशीलता, निष्कपटता, सत्यता आदि अनेक गुणों का समावेश होता है। “आचार” परमो धर्मः कहकर ऋषियों ने आचार को परम धर्म का लक्षण बताया है। चाहे सर्वस्व नष्ट हो जाय परन्तु आचार की रक्षा करनी चाहिये क्योंकि सदाचार में ही मानवता, प्रतिष्ठित है। स्नेह सहानुभूति तथा भूत दया सदाचार के ही अंग हैं। भारतवर्ष में स्वार्थ के स्थान पर सदैव परमार्थ को ही आदर दिया है। परोपकार में ही जीवन की सार्थकता मानी गई है। यह सेवा की भावना केवल मानव समाज तक ही सीमित नहीं है, वरन् ‘सर्वभूत हितोरताः’ अर्थात् सम्पूर्ण प्राणियों की भलाई में इसका पर्यवसान है। भगवान राम और कृष्ण का जीवन सदाचार और सेवा से ओत-प्रोत था।

भारतीय संस्कृति में त्याग एवं बलिदान की महिमा विशद् रूप से वर्णन की गई है। धर्म का पालन करने में चाहे प्राणोत्सर्ग करना पड़े, परन्तु धर्म का पालन करना चाहिये। इस प्रकार प्राणार्पण करने से सद्गति होती है। इस प्रकार के बलिदानी अक्षय कीर्ति को छोड़ जाते हैं। देवताओं के प्रार्थना करने पर दधीचि ने आत्म त्याग कर दिया था। गुरु गोविन्द सिंह के बच्चों ने धर्मार्थ आत्म बलिदान कर दिया था। प्रेम और शान्ति के निमित्त वर्तमानकाल में महात्मा गाँधी बलिदान हो गये। भारतीय इतिहास के अतिरिक्त बलिदान की ऐसी अमर गाथायें क्या अन्यत्र देखने को मिल सकती हैं। स्वधर्म पालन के हेतु जो सहर्ष प्राण विसर्जन कर सके, वही सच्चा बलिदानी है।

भारतीय संस्कृति सत्य और अहिंसा पर आधारित है। जिसका सत्य में अटूट विश्वास हो, जो पक्का अहिंसावादी हो, वही सच्चा भारतीय है। जिसके मन में सच्चे विचार आते हों, जो सत्य भाषण करता हो और जिसके व्यवहार में सत्यता हो, जिसका भीतर बाहर एक सा हो, वही भारतीय संस्कृति का सच्चा अनुयायी है। जो सम्पूर्ण प्राणियों को ‘आत्मवत् देखता हो, दीन दुखियों के प्रति जिसके हृदय में क्षमा का समुद्र उमड़ता है, जिसकी मानव मात्र के लिये सच्ची सहानुभूति हो वही वास्तव में भारतीय संस्कृति में प्रतिष्ठित है। सत्यवादी हरिश्चंद्र, महाराज युधिष्ठिर महावीर स्वामी गौतमबुद्ध महात्मा गाँधी इस अर्थ में भारतीय संस्कृति के दीप्तिमान नक्षत्र हैं।

अतिथि सत्कार और शरणागत वत्सलता भारतीय संस्कृति की अन्यतम विशेषतायें हैं। किसी वर्ण का अतिथि क्यों न हो, जब गृहस्थ के द्वार पर आ जाता है तो उसका उचित सम्मान किया जाता है। गृहस्थी का कर्तव्य है कि स्वयं दुख उठाकर भी अतिथि सेवा के लिये तत्पर हो जाय। अतिथि सेवा की बड़ी महिमा है। इसी प्रकार शरण में आये हुए की रक्षा करना प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य हो जाता है। शरणागत के लिए जाति एवं संप्रदाय का भी विचार छोड़ दिया जाता हैं। निशाचर कुल भूषण विभीषण के शरण में आने पर श्री राम चन्द्र उसे अभय कर देते हैं। और इसी प्रकार शरणार्थी सुग्रीव को अभयदान देते है और दुष्ट बालि से उसकी प्राण रक्षा करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लेते हैं। दो यवन सिपाहियों को शरण में लेकर महाराज हम्मीर की भयंकर विपत्ति का सामना करना पड़ा, परन्तु उन्होंने शरणागत की प्राण-प्रण से रक्षा की।

भारतीय सभ्यता में नारी धर्म का विशेष महत्व है। भारतीय नारी एक बार पति के रूप में जिसको वरण कर लेती है उसको जीवन पर्यन्त नहीं छोड़ती। पति प्राण भारती की देवियाँ अन्य पुरुष की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखती। वैवाहिक सम्बन्ध होने के अनन्तर पति उनके लिये देवता के तुल्य हो जाता है। वे उनके चरणों में अपना सर्वस्व अर्पण कर देती हैं। पति व्रत के कारण ही भारतीय नारियों के चरित्र में सुशीलता, पति परायणता आदि गुणों का प्रादुर्भाव हुआ है। भारतीय नारी आज भी लज्जा सेवा और शील की खान हैं। वह क्रोध में भी पति का अनिष्ट नहीं सोचती। पति के अनिष्ट होने पर वह सती हो सकती है और जौहर करने के लिये धू धू करती हुई आग में कूद सकती है। सीता सावित्री, उमा, द्रौपदी, गाँधारी पद्मिनी आदि देवियाँ पतिव्रत के कारण प्रातः स्मरणीय हैं।

जो भारतीय सभ्यता किसी समय विश्वविदित थी, जिसने समस्त संसार को अपने आँचल में लपेट लिया था तथा जिसने भूमण्डल पर दिव्य प्रेम की वर्षा की थी, वही पाश्चात्य सभ्यता के संसर्ग से अपनापन खो बैठी। पहिले मुस्लिम सभ्यता ने आक्रान्त कर दूषित कर डाला। पाश्चात्य अँग्रेजी सभ्यता ने गौरव हीन बना डाला। भारतीय जीवन पर विदेशी सभ्यता का कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा कि प्रायः सब लोग उसके प्रभाव में रहने लगे। हमारी आस्तिकता को नास्तिकवाद ने आत्म सात कर लिया विद्वान की चकाचौंध में हम ईश्वर और धर्म का तिरस्कार करने लगे। अंग्रेजी भेष-भूषा और अंग्रेजी आचार-विचार का भारतीय जीवन पर ऐसा अनिष्टकारी प्रभाव पड़ा कि सारा आत्मगौरव नष्ट हो गया तथा आत्माभिमान नष्ट हो गया।

अब भारतवर्ष में पुनः परमपूज्य तपोनिष्ठ वेद मूर्ति श्री आचार्यजी महाराज ने साँस्कृतिक पुनरुत्थान योजना का बीड़ा उठाया है। अब हमें पुनः भारतीय आदर्शों को अपनाने की आवश्यकता है। अपनी संस्कृति को खोकर ही हमारी दुर्गति हुई थी। अतः जब तक हम पुनः उसका आलिंगन नहीं करेंगे तब तक हमारा उद्धार नहीं हो सकता। भारतीय संस्कृति में नास्तिकवाद नहीं आस्तिकवाद है, स्वार्थवाद नहीं परमार्थवाद है, हिंसावाद नहीं अहिंसावाद है, भोगवाद नहीं योगवाद है तथा अनात्मवाद नहीं आत्मवाद है। इसी को अपनाने से हमारा उत्थान होगा ईश्वर भारतवासियों को सद्बुद्धि दे कि वे अपनी संस्कृति का आदर करना सीखें।


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