मानसिक उन्नति में भोजन का स्थान

January 1960

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(डॉ. जयाशंकर जोशी एम.डी.)

मन को सात्विक मार्ग पर चलाना बड़ा कठिन है। सात्विकी मन से ही ईश्वर का ठीक ढंग से भजन हो सकता है और उसी के द्वारा आत्मोन्नति संभव होती है। प्रायः संत जन उपदेश देते हैं कि पहले मन को वश में करो तब तुम भजन साधन में अग्रसर हो सकोगे। पर इस बात को स्पष्ट रूप से बहुत कम लोग समझते हैं कि आखिर मन को वश में कैसे किया जाय? सिद्धान्त और कल्पना की दृष्टि से तो बहुत से उपदेश दिये जा सकते हैं, पर कोई ऐसा उपाय भी तो होना चाहिये जिसके अनुसार आचरण करने से मन की शुद्धता बढ़ती जाय।

इस सम्बन्ध में जो कई मार्ग बतलायें गये हैं, उनका एक प्रधान अंग “भोजन की शुद्धता” है। इसे हर एक आदमी समझ सकता है और चेष्टा करे तो पालन भी कर सकता है। अधिकाँश लोग तो यही ख्याल करते हैं कि भोजन से हमारा स्थूल शरीर बनता है पर वास्तविक बात यह है कि हमारा सूक्ष्म शरीर, जिस केन्द्र मन होता है, वह भी भोजन द्वारा ही बनता है, भोजन से जहाँ रस, रक्त, माँस, हड्डी आदि बनते हैं, वहाँ उससे एक प्रकार की विशेष गैस अथवा हवा भी बनती है जो “प्राण-वायु” कहलाती है। प्राणियों की जीवनी शक्ति और कार्यों का आधार इसी प्राण वायु से हमारा मन और विचार भी बनते हैं। इसलिये जैसे गुण भोजन में होंगे वैसे ही हमारे मन में प्रकट होंगे। शुद्ध रोटी, दाल और शाक खाने वाले व्यक्ति का मुकाबला उस व्यक्ति से करिये जो रोज तरह तरह के माँस, अण्डे, शराब आदि का भक्षण करता है तो आपको दोनों के स्वभाव का अन्तर प्रत्यक्ष दिखाई पड़ जायेगा। जहाँ प्रथम प्रकार का भोजन करने वाला शिष्ट, शान्त, दयालु स्वभाव का होगा, दूसरी श्रेणी के भोजन वाला अवश्य ही किसी हद तक क्रोधी, लड़ाकू और स्वार्थी प्रकृति का जान पड़ेगा। वह तो केवल भोजन की एक विशेषता का प्रभाव हुआ, पर तात्विक भोजन की दृष्टि से और भी कई बातें आवश्यक हैं जिनका वर्णन एक आध्यात्मिक गुरु ने विस्तार पूर्वक किया है। उसका कुछ सारांश यहाँ दिया जाता है :-

(1) भोजन की सबसे पहली शर्त यह है कि वह उत्तम और श्रेष्ठ कमाई का हो। जो भोजन अधर्म अथवा किसी पाप कर्म द्वारा उपार्जित मन से प्राप्त किया जाता है उसका परिणाम हानिकारक होता है।इसके सम्बन्ध में एक दृष्टान्त दिया जाता है कि एक महात्मा किसी राजा के यहाँ जाया करते थे और वहाँ उनका बड़ा सम्मान होता था। एक दिन राजा के यहाँ भोजन करने के उपरान्त उन्होंने कुछ देर विश्राम किया। चलते समय उनकी दृष्टि स्नानगृह की खूँटी पर टँगे रानी के हार पर पड़ी जिसे वह संयोगवश स्नान करते समय वहाँ भूल गई थी। महात्मा ने उसे वहाँ से उतार कर अपने वस्त्रों में रख लिया और अपने स्थान को चले गये। वहाँ जब रानी को हार का ख्याल आया तो उसकी खोज होने लगी और सेवकों ने बड़ी दौड़ धूप की पर कोई फल न निकला। दूसरे दिन दोपहर के समय वे ही महात्मा हार को लेकर राज दरबार में आये और उसे लौटा कर उन्होंने अपना अपराध स्वीकार किया। साथ ही यह भी कहा कि मुझे इसका उचित दण्ड दिया जाये। जिससे मैं चोरी के पाप से छुटकारा पा सकूँ। उनके बहुत आग्रह करने पर उस युग के कानून के मुताबिक उनके दोनों हाथ काट डाले गये। पर राजा को इस बात का आश्चर्य बना रहा कि ऐसे संसार त्यागी वीतराग स्वभाव के महात्मा ने ऐसा कार्य क्यों किया? मंत्रियों ने उनको सुझाया कि सम्भव है एक दिन महात्मा जी ने ऐसा भोजन कर लिया होगा जिससे उनके चित्त में इस प्रकार का दूषित विकार उत्पन्न हो गया। जब इस विषय में अधिक जाँच की गई तो मालूम हुआ कि उस दिन जो भोजन बना था उसमें वह अन्न सम्मिलित था जो सरकारी पुलिस ने चोरों के गिरोह को पकड़ कर बरामद किया था। उसके स्वामी का पता न लगने के कारण उसे राज्य भण्डार में जमा कर लिया गया और उत्तम श्रेणी का देखकर उसमें से कुछ चावल को राजा के भोजनालय में भेज दिया गया।

संभव है यह दृष्टान्त कल्पित ही हो और केवल शिक्षा देने की गरज से बनाया गया हो पर इसमें संदेह नहीं कि खोटी कमाई का भोजन मनुष्य के मन में अच्छे संस्कार उत्पन्न नहीं कर सकता। उसके प्रभाव से चित्त में अवश्य ही खोटे भाव उत्पन्न होंगे और कार्य रूप में भी उनका परिणाम बुरा ही होगा।

(2) भोजन को सादा, ताजा और सब तरह का स्वच्छ होना भी परमावश्यक है। तरह-तरह के जायकेदार भोजन पाचन शक्ति पर भार स्वरूप हो जाते हैं। इसके सिवाय ऐसा भोजन “स्वाद” के कारण प्रायः अधिक भी कर लिया जाता है। जो चित्त को बिगाड़ता है। इसके सिवाय माँस, मदिरा, लहसुन, प्याज और अधिक मसालेदार, भोजन सदैव उत्तेजक होता है और उससे मनुष्य के मन में तामसी विचार उत्पन्न होते हैं। इसलिये जो लोग भजन या जप में मन को एकाग्र करना चाहते हैं उनके लिये ऐसा भोजन वर्जित है।

(3) भोजन बनाने और परोसने वाले शुद्ध आचरण के और उच्च विचारों के व्यक्ति हों क्योंकि भोज्य पदार्थों में इनका हाथ बार-बार लगता है और उसका प्रभाव पड़ता है। वह प्रभाव शरीर और मन पर भी प्रकट होता है। सबसे उत्तम भोजन तो वही माना जाता है जो अपने से उच्च आचरण वाले व्यक्ति के द्वारा तैयार किया गया हो। इसीलिये कदाचित प्राचीन समय में ब्राह्मणों के हाथ का भोजन सर्वश्रेष्ठ माना गया था। पर अब अवस्था बदल गई है और जो ब्राह्मण रसोइये का काम करते हैं उनके आचरण प्रायः पतित हो गये हैं वे नशा करते हैं और गन्दे भी बहुत रहते हैं। इसलिये उनके हाथ का भोजन अब लाभ के बजाय हानिकारक ही सिद्ध होता है।

ऐसी दशा में सबसे अच्छा नियम यह है कि अपना भोजन अपने हाथ से बनाया जाय या अपनी माता के हाथ का बना भोजन किया जाय। माता का स्नेह ऐसा उच्चकोटि का होता है कि उसके हाथ के भोजन से हानि की संभावना की ही नहीं जा सकती। यदि माँ वृद्ध और असमर्थ हो तो फिर पत्नी के हाथ का भोजन करना चाहिये पर उसको भी धार्मिक और पवित्र विचारों का बना लेना आवश्यक है। उसको नीच संगति से सदैव पृथक रखना चाहिये।

(4) भोजन यथासंभव एकान्त में करना चाहिए जहाँ उस पर किसी की दृष्टि न पड़े। मैस्मरेजम वालों ने सिद्ध करके दिखा दिया है कि मनुष्य की आँख में बिजली की शक्ति है, जिसका भला या बुरा प्रभाव सामने के पदार्थ पर पड़ सकता है बहुत से लोगों की दृष्टि प्राकृतिक रूप से ऐसी खराब होती है कि उससे भोजन बिगड़ जाता है अथवा उसमें दूषित प्रभाव पैदा हो जाता है। ऐसी आशंका से बचने के लिये भोजन एकान्त में करना लाभकारी है।

(5) भोजन सामने आने पर पहले अपने इष्टदेव या गुरु मूर्ति का ध्यान करें और उनको मानसिक भोग लगाकर, भोजन को उनका प्रसाद समझकर ग्रहण करें, भोजन का थोड़ा सा अंश कुत्ता, चिड़ियाँ आदि प्राणियों के लिये निकाल थाली के बाहर भूमि पर रख देना चाहिए। जो इस तरह भोजन करता है वह प्रायः भोजन में इन सब नियमों का पालन करने से स्वास्थ्य और मन दोनों की उन्नति प्राप्त करता है और आत्मिक साधन में सुविधा रहती है।

पशुबलि कलंक को अब धो ही डाला जाय


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