माला में 108 दाने क्यों?

March 1957

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(प्रो. अवधूत गोरेगाँव)

उपासना में जप का स्थान सबसे ऊपर है। राम नाम से लेकर गायत्री मंत्र तक सभी मंत्रों का जप माला पर ही किया जाता है। माला में 108 दाने होते हैं। इसके सम्बंध में सहज ही यह प्रश्न उठता है कि इतने ही दाने क्यों रखे गये? इससे न्यूनाधिक क्यों नहीं रखे गये?

ऋषियों ने प्रत्येक व्यवस्था बहुत विचारपूर्वक की है। माला तथा दानों की संख्या 108 के सम्बंध में निम्न तथ्य विचारणीय हैं-

बिना दर्मैश्र्च यत्कृत्यं यच्चदानं विनोदकम्। असंख्यया तु यजप्तं तर्त्सवं निष्फलं भवेत्॥

-(अंगिरा स्मृति)

अर्थात्- बिना कुशा के जो सतत् धर्मानुष्ठान और बिना जल संस्पर्श के जो दान तथा बिना माला संख्या ही जो जप-वे सब निष्फल होते हैं।

प्रथम तो माला के फेरने से कितना जप हुआ इस बात का ठीक पता चल जाता है।

दूसरे अंगुष्ठ और अंगुली के संघर्ष से एक विलक्षण विद्युत उत्पन्न होती है जो धमनी के तार द्वारा सीधी हृदय-चक्र को प्रभावित कर मन को तुरंत ही निश्चल कर देती है।

सब कार्यों में नित्य कार्य में आने वाली माला एक सौ आठ दाने की होती है, जिसके ऊपरी भाग में सुमेरु पृथक् रहता है। माला के इन 108 दानों का अपना विशुद्ध वैज्ञानिक रहस्य है।

1- प्रकृति-विज्ञान की दृष्टि से विश्व में प्रमुख रूप से कुल 27 नक्षत्रों को मान्यता दी गयी है। तथा प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण ज्योतिष-शास्त्र में प्रसिद्ध हैं। 27 को चार-चरणों से गुणाकार करने पर 108 संख्या होती है।

अतः 108 संख्या समस्त विश्व का प्रतिनिधित्व करने वाली सिद्ध होती है।

ब्रह्मांड में सुमेरु की स्थिति सर्वोपरि मानी गयी है। अतः माला में सुमेरु का स्थान सर्वोपरि ही रखा जाता है तथा उसका उल्लंघन नहीं किया जाता।

2- दिन-रात में मनुष्य-मात्र के श्वासों की संख्या 21 हजार 6 सौ वेद शास्त्रों में निश्चित की गयी है-

षट् शतानि दिवारात्रौ सहस्त्राण्येक विंशतिः। एतत्संख्यात्मकं मन्त्रं जीवो जपति सर्वदा॥

-(चूड़ामणि उपनिषद् 32/33)

इस हिसाब से दिन भर के श्वाँस 10800 हुए तथा रात भर के श्वाँसों की संख्या भी 10800 हुई।

जप प्रमुख रूप से उपाँशु किया जाता है जिसका फल सामान्य रूप से सौ गुना बताया गया है।

अतः प्रातः सायं संध्या में 108-108 जप करने से 108&108= 10800 हुआ।

3- ज्योतिष शास्त्र में समस्त विश्व-ब्रह्मांड को 12-12 भागों में विभाजन किया गया है, जिनको “राशि” की संज्ञा प्रदान की गयी है। तथा प्रमुख रूप से 9 ग्रह माने गये हैं। अतः 12 राशि और 9 ग्रह का गुणनफल 108 होता है।

4- सृष्टि का मूल है ब्रह्म, जो कि निर्गुण, निर्विकार नित्य सत्य एवं सत्व युक्त है। उसके उत्पन्न अव्यक्त में इस गुण के अतिरिक्त आवरण शक्ति का प्राधान्य है जिससे उसका स्वभाव दो प्रकार का हो ही जाता है। इससे आगे महत् है, जिसमें उपरोक्त दो गुणों के अतिरिक्त विक्षेप शक्ति का समावेश भी है।

फलतः वह त्रिगुणात्मक हुआ।

अहंकार ब्रह्म का चतुर्थावकार है, जो तत्वों के आधिक्य और पूर्ववर्ती पदार्थ के तीन गुणों को भी धारण करने से 4 गुणों वाला हुआ।

इस प्रकार आकाशादि सभी पदार्थ अपने एक विशेष गुण के साथ पूर्ववर्ती पदार्थों के गुणों से भी युक्त होते हैं। इस प्रकार जो जितने गुणों को धारण करता है, उतने गुणों वाला कहलाता है।

1-अव्यक्त-2, महत्-3, अहंकार-4, आकाश-5, वायु-6, तेज-7, जल-8, भूमि-9 और नवगुणात्मक जगत् को धारण करने वाली अपरा 10-प्रकृति=54

यह तो सृष्टि क्रिया हुई, अब इसी क्रम में प्रलय प्रक्रिया समझनी चाहिए।

फलतः ‘सुमेरु’ रूप ब्रह्म से आरम्भ करके 54 उपादानों द्वारा जिस सृष्टि का निर्माण हुआ था, वह 54 उपादानों द्वारा ही प्रलय को प्राप्त होकर 108 की संख्या पूर्ण कर सुमेरु पर ही समाप्त हो जाती है।


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