“पंगु” धर्म को सहारा दीजिए।

March 1957

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्रीराम शर्मा आचार्य)

इस युग में धर्म “पंगु” है। इसे सहारा देकर खड़ा कर दिया जाय तो खड़ा रहता है अन्यथा सहारे के अभाव में लड़खड़ा कर गिर पड़ता है। कमजोर पैरों वाला मनुष्य जिस प्रकार खड़े होने, चलने-फिरने के लिए किसी का सहारा ढूँढ़ता रहता है वही स्थिति आज धर्म की है। सहारा न मिले तो वह आगे चलना तो दूर अपने स्थान पर भी सीधा खड़ा नहीं रह पाता।

पूर्व काल में युग प्रभाव से हर मनुष्य के हृदय में धार्मिक प्रवृत्ति, प्रेरणा, आस्था और श्रद्धा पर्याप्त मात्रा में रहती थी। इसलिए वह अपने जीवन लक्ष्य को पूर्ण करने के लिए आवश्यक सत्कर्मों को स्वयं करता था। सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों का स्रोत उसके अन्तःकरण में से स्वयं फूटता रहता था। फलस्वरूप कर्त्तव्य मार्ग पर उसकी जीवन यात्रा स्वाभाविक रीति से चलती रहती थी। सभी धर्मात्मा होते थे, सभी अपने कर्त्तव्य धर्म को पहचानते थे, सभी को सुरदुर्लभ मानव शरीर की महानता का ज्ञान था, सभी अपने जीवन को सफल बनाने के लिए सत्कर्मों की स्वयं चिंता करते थे। उस पूर्वकाल में यह संसार स्वर्गभूमि बना हुआ था। सभी प्राणी आनंद की क्रीड़ा करते हुए नर तन को अपूर्व सौभाग्य मानते थे। सभी कंठों से एक स्वर में निकलता था- “जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” मनुष्यों का मनः क्षेत्र पारस्परिक सहयोग और सद्भाव से, प्रेम और सेवा की तरंगों से ‘सदा सर्वदा’ तरंगित रहता था। फलस्वरूप भौतिक जगत में भी सुख साधन की वस्तुएं इतनी अधिक मात्रा में उपस्थित रहती थी कि कहीं किसी वस्तु का घाटा ही न दीखता था। अभावग्रस्त, चिंतित, दुःखी पीड़ित, सताये हुए मनुष्य तो कहीं दीख ही न पड़ते थे।

आज स्थिति बिल्कुल विपरीत है। संसार में उपभोग और आवश्यकता की वस्तुएँ प्रचुर मात्रा में भरी पड़ी हैं, पर थोड़े से आदमी उस पर कब्जा करके बैठ जाते हैं। फलस्वरूप शेष सारी जनता अभाव ग्रस्त, दरिद्र रह जाती है। कोई व्यक्ति जीवन यापन के जितनी वस्तुओं से संतुष्ट नहीं रहना चाहता। हर किसी को अधिक, बहुत अधिक-असीम वस्तुओं के संग्रह और उपभोग की तृष्णा, व्याकुल किए हुए है। गरीब से लेकर अमीर तक, सभी अपने कर्त्तव्य पालन में अधिक से अधिक कंजूसी करना चाहते हैं और अधिकार के लिए बड़ी-बड़ी माँगे उपस्थित कर रहे हैं। कोई किसी को अपनी सच्ची आत्मीयता, सेवा, स्नेह भावना नहीं देना चाहता-अपनी वस्तुओं या अधिकारों का त्याग दूसरों के लिए नहीं करना चाहता वरन् दूसरों से अधिक से अधिक लाभ किस प्रकार उठाया जा सकता है इसी की फिराक में रहता है। इस घुड़दौड़ में वह उचित अनुचित में, पाप पुण्य में, नीति अनीति में, कोई अंतर नहीं रखना चाहता। जैसे भी बने अपना काम बनाने की उसे चिंता है।

इस परिस्थिति में मनुष्य के सामने दो ही समस्याएं उपस्थित रहती है- 1. अधिक शौक, मौज, भोग-विलास, सम्पत्ति संग्रह, स्वामित्व रौब दौब, सत्ता, अधिकार, पद, बड़प्पन के सुख साधनों को किस प्रकार संग्रह किया जाय?

2. इस व्यापक स्वार्थपरता की घुड़दौड़ में जन समाज में जो परस्पर संघर्ष मचा रहता है-शोषित आत्म रक्षा के लिए शोषक आक्रमण के लिए -जो उपद्रव करते हैं उस पर अपनी विजय कैसे हो? स्वार्थपरता की असीम तृप्ति में वस्तु प्राप्ति की कोई मर्यादा नहीं, इसलिए वह कभी तृप्त नहीं होती। अतएव उस दृष्टिकोण के व्यक्ति अपने को सदा दरिद्र, अभाव ग्रस्त, दुखी, अनुभव करते रहते हैं। नीति का मार्ग छोड़कर जब लोग अनीति की सहायता से अपना स्वार्थ पूरा करना चाहते हैं तो निश्चित रूप से विरोध, द्वेष, संघर्ष, कलह उत्पन्न होता है। यह कलह अनेक रूप धारण करके सामने आता है और उससे शाँति एवं सुरक्षा का वातावरण नष्ट हो जाता है। आज यही स्थिति है, इससे हर कोई परेशान है। आत्मरक्षा या आक्रमण के-विलास और संग्रह के ताने बाने बुनने में से किसी के पास विचार एवं समय शेष नहीं रहता। दिन रात के 24 घंटे प्रायः इसी गोरख धंधे में आज साधारण जनता व्यतीत करती है।

फिर धर्म कर्त्तव्यों के लिए समय कहाँ से मिले? धार्मिक भावनाओं का प्रवेश मन में किस प्रकार हो? आत्म चिंतन की प्रेरणा कहाँ से आवे? सभी ओर घोर स्वार्थपरता में डूबे हुए-भौतिक समस्याओं में उलझे हुए-मनुष्य दीखते हैं तो कोई व्यक्ति एकाकी-अपने लिए अलग रास्ता बनाने की इच्छा भी नहीं करता। सब उसी ढांचे में ढलते चले जाते हैं। देखा-देखी से उत्साह प्राप्त करने अनुकरण करने में प्रसन्न होने की मानसिक कमजोरी के कारण लोग उसी दिशा में बहते चले जाते हैं जिसमें अन्य सब लोग बहते हैं। इस प्रक्रिया के कारण आज जन मानस का प्रवाह एक बुरे मार्ग पर चल रहा है। धर्म और परमार्थ के वास्तविक आदर्शों की ओर सच्चे मन से चलने वाले कोई विरले ही मिलते हैं। जहाँ इस प्रकार का कुछ दीखता भी है वहाँ अधिकाँश में गुरुडम, व्यक्ति पूजा, सम्प्रदायवाद अथवा अन्य प्रकार के छल प्रपंचों से परिपूर्ण पाखंड ही देखा जाता है।

इन परिस्थितियों में धर्म का ‘पंगु’ हो जाना स्वाभाविक ही है। मनुष्य में पाशविकता की अधिक और देवत्व की स्वल्प मात्रा होती है। पतनकारी-अधोमुखी प्रवृत्तियाँ बड़ी सरल एवं गतिशील होती हैं। एक बाल्टी पानी फैला दिया जाय तो वह बिना किसी प्रयत्न के नीचे की ओर ढलवां भूमि में अपना रास्ता आसानी से बनाता हुआ बह निकलेगा। किंतु यदि उस पानी को ऊपर की दिशा में चढ़ाना हो तो अनेक साधन, सामग्री, मशीन, मजदूरी आदि की व्यवस्था करनी पड़ेगी। सन्मार्ग की ओर मनोभावनाओं को मोड़ने के लिए बहुत प्रयत्न करने पड़ते हैं। तब कहीं थोड़ी प्रगति होती है। यदि पानी को ऊपर खींचने के साधन न हों तो वह जहाँ का तहाँ पड़ा रहेगा ऊपर न चढ़ सकेगा। जिस प्रकार पानी पंगु है उसी प्रकार धर्म भी पंगु है। बिना सहारा पाये न तो पानी ऊपर चढ़ता है और न धर्म का अभ्युदय होता है। उन दोनों ही कामों के लिए सहारे की, सहारा देने वालों की जरूरत पड़ती है।

जब-जब धर्म को सहारा देने वाले मिल जाते हैं तब वह खड़ा हो जाता है, जब उसे कोई सहारा नहीं देता तो वह लुँज-पुँज होकर एक कोने में बैठ जाता है। अंधे का सहारा उसकी लकड़ी न हो तो अंधे को रास्ता पार करना मुश्किल हो जाय। युग प्रभाव से आज धर्म की भी यही स्थिति है। कुछ धर्म प्रेमी लोग दूसरों को सत्कर्म-पूजा उपासना-सामूहिक सेवा आदि करने के लिए स्वयं कटिबद्ध होते हैं और दूसरों के पीछे पड़कर उनसे इच्छा अनिच्छा के साथ, आग्रह, अनुरोध, मित्रता, खुशामद, नाराजी, प्रार्थना, शिक्षा आदि के आधार पर कुछ कराते रहते हैं तो काम कुछ होता दीखता है। पर जब वह प्रेरणा देने वाले कुछ ढीले पड़ते हैं तभी वे “किसी प्रकार” तैयार किये व्यक्ति कंधा डाल देते हैं। उनका उत्साह ठंडा पड़ जाता है। एक बार छोड़े हुए कार्य को पुनः आरंभ करने में उन्हें कुछ हेठी, झिझक, संकोच की सी स्थिति मालूम पड़ती है। इसलिए वे दुबारा कहने सुनने पर पहले से भी अधिक शिथिल बन जाते हैं।

गायत्री उपासना का जो व्यापक कार्यक्रम देश भर में चलाया जा रहा है यह बात केवल उसी के संबंध में नहीं है, वरन् यह एक व्यापक समस्या है। सभी सत्कार्यों में इन दिनों सर्वत्र यही एक बात भिन्न-भिन्न प्रकारों से चरितार्थ होती है। सभा व्याख्यानों में, सत्संगों में, किन्हीं विशाल आयोजनों में प्रभावित होकर कई व्यक्ति कुछ शुभ काम करने के लिए प्रवृत्त होते हैं। कुछ दिनों उनका वह क्रम चलता भी है। पर थोड़े ही दिनों में शिथिलता आने लगती है और उनके से अनेकों का उत्साह समाप्त हो जाता है। आज की परिस्थिति को देखते हुए संसार में से अशाँति और अभाव को हटाकर सुख शाँति की स्थापना के लिए धार्मिक उपासनाओं तथा व्यवहारिक जीवन में धार्मिक प्रवृत्तियों का बढ़ाया जाना अतीव आवश्यक है। पर मार्ग में एक भारी कठिनाई यह है कि कार्य आसानी से होने वाला नहीं है। लेखनी और वाणी से- पुस्तकों और प्रवचनों से निस्संदेह इस दिशा में बड़ी सहायता मिलती है। पर वह सहायता ‘जमीन तैयार करने’ जितनी ही है। दृढ़ स्थायी और ठोस कार्य जब कभी होगा तो उसके मूल में धर्म को अपने कंधे का सहारा देने, अंधे की लकड़ी का उदाहरण बनने के लिए कुछ व्रतधारी कर्मठ धर्मात्मा लोग कटिबद्ध मिलेंगे। इस युग में धर्म पंगु है। उसे सहारा न मिलेगा तो खड़ा न रह सकेगा। कुछ प्रयत्न किये भी जायं तो वे कुछ समय में उत्साह मंद होने पर स्वयमेव समाप्त हो जायेंगे। यदि प्रेरणा देने वाले नैष्ठिक कार्यकर्ताओं की शक्ति उसके पीछे होगी तो ही वह सत्कार्य खड़ा रहेगा-आगे बढ़ेगा।

प्राचीन काल में सभी के मन में धर्म प्रेरणा पर्याप्त मात्रा में थी। इससे किसी सहायता की शिक्षा की जरूरत बहुत कम पड़ती थी-इसलिए धर्म प्रचार कार्य की विशेष आवश्यकता न होने के कारण अनेकों आध्यात्म प्रेमी व्यक्ति योगाभ्यास आदि एकाँत साधनाओं में लग जाते थे। पर जब कभी परिस्थिति बदली या बिगड़ी है तब-तब सच्चे आध्यात्म प्रेमी सत्पुरुषों ने धर्म को अपने कंधे का सहारा दिया है और उसे लड़खड़ा कर गिर पड़ने से बचाया है। देवर्षि नारद ने तो अपने जीवन की एकमात्र साधन-परिव्रज्या करते हुए निरंतर धर्म प्रचार करते रहना ही बनाया था। शंकराचार्य, दयानंद, नानक, कबीर, मीरा, बुद्ध, महावीर, गाँधी, विनोबा आदि के अगणित उदाहरण ऐसे हैं जिनमें एकांत सेवी, केवल अपना ही भला करने वाली साधनाओं को घटा करके अपना अधिकाँश समय धर्म प्रचार में लगाया। उनका यह कार्य एकाँत सेवी साधना की अपेक्षा करोड़ों गुना अधिक महत्वपूर्ण था, क्योंकि एकाकी साधना से उनको खुद को ही सिद्धि, स्वर्ग, मुक्ति आदि मिलती पर इस प्रचार कार्य ने तो असंख्य प्राणियों को सन्मार्ग से लगाकर सम्पूर्ण विश्व में सुख-शाँति की स्थापना में भारी योग दिया। सत्पुरुष निष्ठुर एवं स्वार्थी नहीं, दयालु और परोपकारी होते हैं वे स्वर्ग मुक्ति की भी परवाह न करके अनेक दुखी आत्माओं को सुखी बनाने के लिए करुण भाव से जनसेवा के सर्वश्रेष्ठ मार्ग-धर्म प्रचार को अपना लेते हैं।

मनुष्य की ही नहीं संसार के समस्त प्राणियों की सुरक्षा, समृद्धि और सुख शाँति इस बात पर निर्भर है कि-मनुष्यों के अन्तःकरणों में निवास करने वाली सद्भावना, सात्विकता, उदारता और संयमशीलता कायम रहे। यह तत्व जितना ही घटे उतना ही दुनिया दुख पायेगी, इसमें जितनी अधिक वृद्धि होगी उतने ही सुख−शांति के साधन जुट जावेंगे। विश्व के इस अत्यंत महत्वपूर्ण मनः क्षेत्र को सुव्यवस्थित रखने के लिए प्राचीन काल में सहस्रों ब्राह्मण अपना पूरा समय, पूरा जीवन खपाये रहते तब वह कार्य पूरा हो पाता था। आज उस मैदान को छोड़कर सभी कोई भाग गये हैं। यों तो कथित, साधु संतों, पंडे पुजारियों की संख्या 5 लाख से अधिक है। पर इनमें संभवतः 5-6 मुश्किल से ऐसे निकलेंगे, जो मुफ्तखोरी, आलस्य, मटरगश्ती या मुक्ति का जो विचित्र रूप रखा है उस खुदगर्जी को छोड़कर विश्व में स्थिर रखने के लिए कुछ विचार या कर्म करते हों। अन्य साधारण परिस्थितियों के लोग राजनीति की ओर दौड़ते हैं। हर कोई एम.एल.ए., एम.पी. मिनिस्टर या कम से कम नेता बनने कि फिराक में है।

निश्चय ही राजनीति एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है। उसके द्वारा भौतिक विधि व्यवस्था में बहुत योग मिलता है। पर यह भी निश्चय ही है कि मनुष्यों का मनः क्षेत्र यदि अधार्मिक, अनैतिक, पथ भ्रष्ट हो रहा हो तो राजनीति की सारी शक्ति लग कर भी लोगों के असामाजिक, अवाँछनीय, विचारों और कार्यों को रोक नहीं सकती। भ्रष्टाचारी जनता और भ्रष्टाचारी शासन तंत्र, दोनों की जोड़ी ‘एक अंधा एक कोढ़ी’ की उक्ति चरितार्थ करेगी। ऊपर से किये हुए बड़े-बड़े पुरुषार्थ इन छिद्रों में होकर बह जावेंगे। आज यही हो रहा है। करोड़ों रुपयों की कई योजनाएं अपना वास्तविक शुभ परिणाम उपस्थित करने के स्थान पर चंद लोगों की जेबें गरम करने मात्र का निमित्त बन कर असफल होती देखी जाती हैं। भ्रष्टाचार ऐसा ही असुर है जो भारी प्रयत्नों को भी क्षण मात्र में उदरस्थ कर जाता है। राजनीतिक प्रयत्न होने ही चाहिए पर साथ ही सर्वसाधारण जनता तथा शासन तंत्र को ईमानदार और सन्मार्गगामी रखने के एकमात्र साधन उनके धार्मिक विश्वासों को उचित दिशा में प्रवाहित करते रहने के लिए अंतरात्मा में निवास करने वाले उच्च आदर्शों, श्रद्धापूर्ण सिद्धाँतों एवं सद्भावनाओं को भी सुरक्षित रखना और बढ़ाया जाना आवश्यक है। अन्यथा भ्रष्ट जन समाज द्वारा जो अवाँछनीय प्रवृत्तियाँ बढ़ेंगी उन्हें राजदंड की सीमित शक्ति द्वारा रोक सकना किसी भी प्रकार संभव न हो सकेगा।

आज समय की, विवेक की, दूरदर्शिता की, एक ही पुकार है कि- “जनता का धार्मिक-नैतिक-नेतृत्व करने के लिए कुछ हस्तियाँ निकल कर सामने आवें। नारद, बुद्ध, महावीर, दयानंद, शंकराचार्य, गाँधी, नानक, मीरा आदि की तरह ऋषि परम्पराओं को अपनाते हुए गिरती हुई धर्म भावनाओं को नष्ट होने से बचावें।” नैतिक पतन एक भारी खतरा है-राजनैतिक पराधीनता से भी बड़ा खतरा है। इस खतरे से लड़ने के लिए शूरवीर योद्धाओं तथा आत्म ज्ञानियों की जरूरत है। राजनीति के समान सत्ता, यश तथा अन्याय उचित अनुचित लाभ प्राप्त करने का इस क्षेत्र का नेतृत्व करने वाले के लिए अवसर नहीं है, पर जो अवसर है पर इतना महान है कि- किसी राष्ट्र या जाति का जीवन मरण उसी पर निर्भर है।

धार्मिक नेतृत्व कर सकने वाले सुयोग्य व्यक्तियों की आज भारी आवश्यकता है। इतनी भारी जितनी संसार के इतिहास में पहले कभी नहीं हुई। इस क्षेत्र में आज सुयोग्य और सच्चे व्यक्तियों की आवश्यकता के लिए कुहराम मचा हुआ है। इस अभाव के कारण हाहाकार हो रहा है। पर नेता बनने को कोई तैयार नहीं होता। गायत्री तपोभूमि में एक छोटा सा विनम्र-प्रयत्न, ‘साँस्कृतिक विद्यालय’ के रूप में-धार्मिक नेता तैयार करने के लिए चल रहा है। इस दिशा में काम करने के इच्छुकों को समुचित शिक्षा-दीक्षा देने के साथ ही उनके भोजन, वस्त्र, निर्वाह आदि का भी यथा संभव प्रबंध है, पर उपयुक्त व्यक्ति उस कार्य के लिए भी अग्रसर नहीं होते तो निराशा होती है। यों कई लोग यहाँ कौतूहल वश या अन्य कारणों से सीखने आते-जाते रहते हैं, क्रम किसी प्रकार चलता रहता है। बीस छात्र तो प्रायः सदा ही बने रहते हैं, पर जिस धातु की तलवारें बना करती हैं वह धातु न मिलने से काम की चीज नहीं बन पाती। भावना शील, अटूट श्रद्धावान, लोक हित के लिए मर−खप जाने की साध रखने वाले, घनघोर-परिश्रमी, एवं प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों को धार्मिक नेतृत्व के लिए दशों दिशायें पुकार रही हैं। साधु-ब्राह्मण जिनका यह कर्त्तव्य एवं व्यवसाय था उनकी प्रवृत्तियों को-मनोदिशा को देखकर घोर निराशा होती है। भिक्षान्न को अपना अधिकार मानने वाले और समाज सेवा की बात सुनते ही लड़ने को तैयार होने वाले, यह लोग अंधश्रद्धालु लोगों को मूँड कर अपना उल्लू सीधा भले ही करते रहें-इससे अधिक आशा इन लोगों से करना व्यर्थ है।

ऐसी दशा में अपने साधारण गृहस्थ जीवन में से थोड़ा-थोड़ा समय निकाल सकने वाले परमार्थी प्रेमी व्यक्ति अखण्ड-ज्योति और गायत्री परिवार में से ढूंढ़े जा रहे हैं। उन्हें व्रतधारी धर्म-सेवी के रूप में नियमित रूप से धर्म सेवा के लिए तत्पर किया जा रहा है। उनके शिक्षण शिविर उनके क्षेत्रों में करके धर्म सेवा की क्षमता, प्रवृत्ति एवं व्यवस्था समझायी जाये ऐसा सोचा जा रहा है। इस प्रकार के अनेकों लोग अपने-अपने क्षेत्र में थोड़ा-थोड़ा काम करके भी सब मिला कर बहुत बड़ा काम कर सकेंगे। साथ ही साँस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए नैतिकता प्रधान-धार्मिकता उत्पन्न करने के लिए ऐसे व्यक्तियों की भी बड़ी आवश्यकता है जो अपना पूरा समय और पूरा जीवन धर्म की हारती बाजी को जिताने में लगा सकें।

कई संस्थाएं लेखनी और वाणी के आधार पर अपने कार्यक्रम बनाती हैं। पुस्तक अखबार आदि छापना और भाषण व्याख्यान देना उनका प्रधान कार्य होता है। यह दोनों बातें भी आवश्यक हैं, पर ‘पंगु’ धर्म को कंधे का सहारा देकर खड़ा कर सकने के लिए कटिबद्ध कार्यकर्ताओं के बिना कोई ठोस काम नहीं हो सकता। जन साधारण का मनः क्षेत्र आज उतना सबल नहीं है कि लेख पढ़ लेने या व्याख्यान सुन लेने के बाद भी वह बहुत समय तक उस प्रेरणा को धारण किये रहे। इसके लिए तो वैसे लोगों की आवश्यकता है जो कोंच-कोंच कर लोगों को एक निश्चित दिशा में चलने की प्रेरणा देते रहें और उनसे वह कार्य बलपूर्वक-अनुरोध पूर्वक-किसी भी प्रकार करा सकें। इस सम्बंध में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को घर-घर जाकर, बुला-बुलाकर लाना और बारबार उनके यहाँ मिलने पहुँच कर अपनी विचारधारा से प्रभावित करने की कार्यशैली-बहुत ही उपयोगी है। इस शैली को अपनाकर ही काँग्रेस बढ़ी। कम्युनिस्टों ने, ईसाइयों ने तथा अन्यान्य सजीव संस्थाओं ने यही गतिविधि अपनाई है। गायत्री परिवार को भी यदि अपने आदर्शों और कार्यक्रमों में श्रद्धा है तो उसे भी यही शैली अपनानी पड़ेगी।

धार्मिकता, नैतिकता, संस्कृति की सुरक्षा और अभिवृद्धि का कार्य बढ़ सकता है। पौधा फल फूल सकता है, पर उसके लिए श्रद्धा और श्रम का खाद पानी आवश्यक है। कुछ लोग अच्छे सिद्धाँतों को स्वयं अपना लेते हैं- यह प्रशंसनीय है, पर जब तक कुछ लोग ऐसे न निकलें कि अपनी पूजा उपासना के समान ही दूसरों को प्रेरणा देने का महत्व समझें-तब तक सामूहिक क्षेत्र में कुछ महत्वपूर्ण प्रगति नहीं हो सकती। लोगों का मन बहुत दुर्बल होता है। जब तक कोई कोंचते रहने वाला पीछे पड़ने वाला-पीछे पड़ते रहने वाला होता है तब तक उसके लिहाज से श्रद्धा या अश्रद्धापूर्वक कुछ धर्म कार्य करते हैं। जैसे ही वह पीछे पड़ने वाली प्रेरणा ठंडी हुई कि साधारण लोगों के सहयोग से चलने वाले संगठन का ढांचा बिखर जाता है और वह कार्यक्रम समाप्त हो जाता है। धर्म ‘पंगु’ है। सहारे की लकड़ी जैसे ही हटी, कि लड़खड़ा कर गिर पड़ता है।

गायत्री परिवार द्वारा इन दिनों ब्रह्मस्त्र अनुष्ठान की उपासनात्मक तथा अधिकाधिक सहयोगी बढ़ाने की संगठनात्मक प्रवृत्तियाँ चल रही हैं। आगे चलकर जब यह धर्म तंत्र कुछ मजबूत हो जायेगा-भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान का व्यापक कार्यक्रम हाथ में लिया जायेगा और यह प्रयत्न किया जायेगा कि जन मानस में से स्वार्थपरता, अनैतिकता, अधार्मिकता हटे। लोग उच्च आदर्शों के अनुसार विचार और कार्य करें। जन साधारण का आन्तरिक एवं बाह्य जीवन इस प्रकार ढले कि उसके फलस्वरूप सर्वत्र प्रेम, सहयोग, सद्भाव, सदाचार, शाँति और समृद्धि का वातावरण बने। हम राजनीति तथा सामाजिक क्षेत्र की उपयोगिता समझते हैं-उन क्षेत्रों के कार्यों और कार्यकर्ताओं का हार्दिक अभिनंदन करते हैं, पर अपना कार्यक्षेत्र मनुष्य के आन्तरिक आसुरी दुर्गुणों को हटाने और उसके स्थान पर दैवी सद्गुणों की स्थापना तक सीमित रखना चाहते हैं। वस्तुतः संस्कृति की यही मर्यादा भी है। इस मर्यादा को छोटा नहीं समझना चाहिए। वस्तुतः यह एक ठोस तथ्य है, जिससे राजनीति की समस्याओं तथा समाज सुधार की आवश्यकताओं की पूर्ति सहज में ही हो सकती है।

यह ठीक है कि राजनीति तथा सामाजिक सार्वजनिक क्षेत्रों में सार्वजनिक कार्य करने से कार्यकर्ता को यश, सत्ता तथा अन्यान्य भौतिक लाभों की अधिक गुंजाइश रहती है। ऐसे ही कारणों से प्रेरित होकर बहुधा लोग उन क्षेत्रों में नेतृत्व प्राप्त करने की आपाधापी भी बहुत करते हैं। पद प्राप्त करने के लिए उचित अनुचित संघर्ष भी करते हैं। धार्मिक क्षेत्र में समय लगाने श्रम करने से वैसे भौतिक लाभों की गुंजाइश नहीं रहती और अपने आप को तप त्याग का उदाहरण भी बनना पड़ता है। इससे उथले लोग इधर कुछ आकर्षण न देखकर दूर ही रहते हैं, पर वस्तुतः यह क्षेत्र अन्य सभी क्षेत्रों से अधिक आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है। इसलिए विचारशील व्यक्ति आकर्षण विहीन होते हुए भी इस मार्ग को अपनाते हैं और अपनी वास्तविक महानता से प्रेरित होकर बहुत कुछ त्याग और प्रयत्न भी करते हैं। यदि ऐसे व्यक्तियों का सर्वथा अभाव होता तो पृथ्वी टिकी न रहती। वह धर्म के स्तम्भों पर ही टिकी हुई है।

गायत्री परिवार की सदस्यता में केवल कुछ मिनट प्रतिदिन उपासना करने की एक बहुत ही छोटी शर्त है। इस संस्था में धन का चंदा नहीं रखा गया है। उनकी कोई प्रधानता इसमें नहीं है। यहाँ समय की, श्रम की, सहयोग की, श्रद्धा की प्रतिष्ठ है। प्रतिदिन कुछ मिनट स्वयं जप करके सदस्यता की साधारण शर्त पूरी कर देने वालों में से-अब ऐसे कर्मठ व्रतधारी व्यक्ति भी निकलने चाहिए, जो श्रद्धापूर्ण सहयोग के साथ कुछ समय देने को भी तैयार हों। धर्म सेवा के लिए समय देने का व्रत लेने वाले ही व्रतधारी माने जायेंगे। अब गायत्री परिवार को अपने में से अधिकाधिक व्रतधारी कर्मनिष्ठ तैयार करने हैं, जिनके कंधे का सहारा लेकर बेचारा पंगु धर्म खड़ा हो सके, आगे चल सके, प्रगति कर सके। दूसरों को सन्मार्ग पर चलने के लिए कोंचते रहने वाले यह व्रतधारी ही वस्तुतः इस संस्था के प्राण होंगे। उनका समय और श्रमदान ही कुछ आशाजनक परिणाम उपस्थित कर सकने में समर्थ हो सकता है।

गृहस्थ की जिम्मेदारियों में व्यस्त व्यक्ति थोड़ा समय एक दो घंटा रोज छुट्टी का दिन-इन कार्यों के लिए दे सकते हैं। जिनके ऊपर कमाने की जिम्मेदारी नहीं है वे अपने क्षेत्र में अधिकाधिक या पूरा समय देने के लिए तत्पर होने का प्रयत्न करें। तपोभूमि के माध्यम से देश भर में प्रचारात्मक और संगठनात्मक कार्य करने की योग्यता और स्थिति के व्यक्ति मथुरा रह सकते हैं। जिन्हें वेतन की आवश्यकता न पड़े, केवल शरीर निर्वाह तक ही जिनकी आवश्यकता सीमित हो। पूर्ण त्याग केवल उन्हीं व्यक्तियों को करना चाहिए। इस प्रकार अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार हममें से हर एक को धर्म सेवा के लिए समय एवं श्रम का दान करना चाहिए।

राष्ट्र निर्माण के लिए-साँस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए-अपने अतीत गौरव को वापिस लाने के लिए-हमें कुछ काम करना पड़ेगा। समय और श्रम देना पड़ेगा। आज का भगवान-नर नारायण-चंदन, पुष्प, धूप दीप से संतुष्ट होने वाला नहीं है। उसे भक्त का प्रयत्न, पुरुषार्थ, समय और सहयोग चाहिए। आँसू बहाने वाले भक्त की नहीं- उसे पसीना बहाने वाले भक्त की आवश्यकता है। तीर्थ यात्रा करने वाले से नहीं-धर्म प्रेरणा के लिए लगाई जाने वाली धर्म फेरी से वह संतुष्ट होगा। आइये, हम अपने प्रभु की, राष्ट्र की, धर्म की, आज की इच्छा और आवश्यकता को समझें और उसके अनुसार कुछ करने को कटिबद्ध हों।

गायत्री माता हर वक्त कुछ न कुछ भौतिक लाभ माँगते रहने वाले भिखारियों को नहीं, अपनी आज्ञा में चलने वालों को- प्यार करती है, और उन्हें ही वह आशीर्वाद, वरदान, एवं वात्सल्य प्रदान करती है। जिसे पाकर जीवात्मा धन्य हो जाता है। हमें अपनी इच्छा पर नहीं-माता की इच्छा पर चलना है। उनकी इच्छा इस समय अधिक जप, अधिक ध्यान कराने की नहीं-धर्म क्षेत्र को सुविस्तृत करने में सहयोग लेने करने की है। आइए, वही सब कुछ करने में हम लोग संलग्न हों।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118