कंकड़-पत्थर समझ जिन्हें त्यागते सदा आए ज्ञानी जन। रजत-स्वर्ण-खंडों-रत्नों को, भ्रमवश समझ लिया अक्षय धन॥
निशिदिन कामिनियों का चिंतन, मधु-मादक द्रव्यों का सेवन। चपल इंद्रियों की उपासना को ही जाना जीवन साधन॥
भौतिकता के स्वर्णिम बंधन से विमुक्ति का ज्ञान न पाया। ‘सोऽहं’ और ‘तत्वमसि’ पढ़कर, मैं स्वरूप पहचान न पाया॥ 1॥
दिव्य-पुरुष बाहर, मैं सुँदर, पर अतीव काला अंतस्तल। चिर अतृप्ति-ज्वाला में जलता रहा, न हो पाया मैं शीतल॥
झंझा-प्रवाह सा था बहता, भय देता, भीत रहा प्रतिपल। हूँ अनंत की ओर जा रहा, छोड़ सभी वैभव निःसबल॥
रहा खोजता सुख जीवन भर, पर सुख क्या है, जान न पाया। ‘सोऽहं’ और ‘तत्वमसि’ पढ़कर, मैं स्वरूप पहचान न पाया॥ 2॥
दी न किसी भूखे को रोटी, दिया न प्यासे को ही पानी। लेता ही मैं रहा विश्व से, नहीं दान की महिमा जानी॥
रही संकुचित सीमा ‘स्व’ की, बना अंध भोगी अभिमानी। त्याग राग की पराकाष्ठा नहीं त्याग की गरिमा जानी॥
‘ईशावास्यमिदं सर्व’ का, इस मानस में ध्यान न आया । ‘सोऽहं’ और ‘तत्वमसि’ पढ़कर, मैं स्वरूप पहचान न पाया॥ 3॥