हिन्दू समाज का घुन-दहेज

March 1957

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(श्री कृष्णकुमार बैस, मथुरा)

दहेज की प्रथा ने हिंदू-समाज को जितनी हानि पहुँचाई है, उसकी कल्पना भी कर सकना कठिन है। जरा उस पिता के हृदय की भावनाओं का अनुमान लगाइये कि जिसकी कन्या विवाह योग्य अवस्था को प्राप्त कर चुकी है पर बिना 4-6 हजार के कोई वर नहीं मिलता। उधर घर की यह हालत है कि बाबू जी महीने में जो दो-डेढ़ सौ वेतन लाते हैं उससे घर के 6 प्राणियों के भोजन, वस्त्र, मकान किराया, शिक्षा आदि का खर्च भी उचित प्रकार से नहीं चल पाता। जो लोग जनता के आगे धर्म-निष्ठ तथा कर्तव्य पालन की दुहाई दिया करते हैं वे भी ऐसे अवसरों पर कन्या और कन्या के पिता को दहेज की फाँसी लटका देने से नहीं चूकते। दहेज में कार मिलनी चाहिए-नहीं तो कन्या का बाप उसे विलायत शिक्षा प्राप्त करने को ही भेज दे! इस तरह की माँगे पेश करके 4-6 हजार की रकम को 8-10 हजार तक बढ़ा दिया जाता है।

इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि इस प्रकार जबर्दस्ती दहेज की माँग हर प्रकार से अनीतिपूर्ण और नीचता की द्योतक है। इससे एकमात्र कन्या के पिता की ही हानि नहीं होती, वरन् इसके परिणाम स्वरूप समस्त राष्ट्र पतन के मार्ग में अग्रसर होता है। दहेज के आधार पर जो विवाह होते हैं वे कभी आदर्श नहीं हो सकते, क्योंकि उनमें बजाय वर-कन्या की उपयुक्तता के धन के परिणाम पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। इससे अधिकाँश विवाह अनमेल हो जाते हैं। धनवान पिताओं की पुत्रियाँ कम योग्यता वाली अथवा अनेक त्रुटियों से युक्त होने पर भी सुयोग्य वर पा जाती हैं, और गरीबों की गुणवती तथा रूपवती कन्यायें अयोग्य और अनेक बार अपनी आयु से कहीं बड़े व्यक्तियों से विवाही जाकर आजन्म कष्ट सहन करती रहती हैं। ऐसे अनमेल अथवा असुखी दम्पत्तियों की संतान भी कभी उत्तम नहीं हो सकती और इस प्रकार देश की भावी संतान का मानसिक और शारीरिक दृष्टि से पतन होने लगता है।

इसलिए आज इस बात की अत्यंत आवश्यकता है कि दहेज प्रथा का शीघ्र सुधार किया जाय। कन्यादान और चीज है तथा विवाह के पश्चात विदा के समय वर पक्ष वालों को कुछ सौगात तथा भेंट देना भी शिष्टाचार के अंतर्गत माना जा सकता है, पर विवाह का प्रश्न उठते ही सबसे पहले दहेज की रकम की बात उपस्थित कर देना और बिना उसके विवाह का निर्णय असंभव मानना निताँत अस्वाभाविक और समाज को प्रत्यक्ष रूप से हानि पहुँचाने का कार्य है। ऐसे कार्य को देश की सरकार ने भी निंदनीय माना है और व्यवस्थापिका सभाओं में उसको रोकने के लिए कानून बनाने के प्रस्ताव भी किये गये हैं। पर यह एक ऐसा सामाजिक विषय है जिसका सरकारी कानून द्वारा वास्तविक कन्ट्रोल हो सकना संभव नहीं, क्योंकि जो लोग दहेज लेना और देना चाहते हैं वे उसके लिए बीसों प्रकार के अप्रत्यक्ष रास्ते ढूँढ़ लेते हैं।

दहेज की इस राक्षसी प्रथा के परिणाम स्वरूप अब तक सैकड़ों निर्दोष कन्याओं की बलि दी जा चुकी है। हजारों घरों का सत्यानाश हो चुका है और निर्दोष स्त्री पुरुष नाना यातनाएँ सहन कर रहे हैं। हिंदुओं की विवाह प्रथा में यह कुरीति समाज की जड़ पर कुठाराघात कर रही है।

इस दशा को देखकर अपने नेताओं और गुरुजनों से हम यही प्रार्थना करते हैं कि वे इस संबंध में हमारे भाइयों का पथ-प्रदर्शन करें।


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