सेवा-धर्म से ईश्वर प्राप्ति

March 1957

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(एक ब्रह्मवादी सन्त)

संसार में जितने कार्य पुण्य के या भले माने जाते हैं, सेवा या परोपकार का दर्जा उनमें सब में ऊँचा है। जो लोग आध्यात्मिक जगत में वास्तव में ऊँचा उठना चाहते हैं उनके हृदय सेवा की भावना से इतने परिपूर्ण हो जाने चाहिए कि अपने संपर्क में आने वाले मनुष्यों की ही नहीं वरन् पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों तक की सेवा करने को उत्सुक रहे। ऐसा स्वभाव बना लेने से वे सेवा के बहुत कम अवसरों को गँवा सकेंगे। फौज के सिपाहियों से बरसों तक जो कठिन कवायद व परेड आदि कराई जाती है उसका उद्देश्य केवल यह नहीं होता कि वे सैनिक आज्ञाओं के पालन करने की ठीक-ठीक विधि जान जायें वरन् उसका उद्देश्य यह भी होता है कि वे बातें उनके सहज स्वभाव का अंग बन जायं। आजकल की परिस्थितियाँ तो कुछ बदल गई हैं पर प्राचीन काल में तो एक सैनिक को सर्वथा नवीन वातावरण का सामना करना पड़ता था और वह चाहे जितना ही शूरवीर क्यों न हो उसके साहस की कड़ी परीक्षा हो जाती थी। किंतु ऐसी कठिन परिस्थितियों में भी वह सैनिक स्वभाव से प्रेरित होकर आज्ञाओं का पालन करता है और अपने कर्तव्य को करने के लिए उद्यत हो जाता है।

जो लोग इस प्रकार जनता की सेवा करना अपना मुख्यकार्य या स्वभाव बना लेते हैं, जनता भी उनका पूरा सम्मान करती है और चाहे वे कैसे भी निराडम्बर ढंग से रहें उनकी महिमा को समझती है। प्राचीन समय में तो जो लोग देश के आध्यात्मिक गुरु होते थे उनका ही यह कर्तव्य माना जाता था कि वे अपना सारा समय यज्ञ, अनुष्ठान, अध्ययन, शिक्षण, परामर्श आदि में लगाएं जिससे कि सम्पूर्ण जाति का कल्याण हो। ऐसे ही लोग ब्राह्मण कहलाते थे। अन्य वर्गों के व्यक्ति जिनका समय सामान्यता निजी कार्यों के करने और धन कमाने में व्यतीत होता था, वे ब्राह्मणों का पालन करते थे। कैथोलिक ईसाइयों में भी साधु-संन्यासियों का जो वर्ग केवल मृतकों के लिये प्रार्थना करने में ही अपना समय व्यतीत करता है, उसे स्थापित करने का मूल सिद्धाँत भी यही था। अतः उन साधु-संन्यासियों की जीविका जनता के दान पर ही निर्भर रहती थी और वे इसके लिये किसी प्रकार भी लज्जित नहीं होते थे एवं उन्हें भिक्षा देने वाले भी इसे अपने लिये गौरव की बात समझते थे। उस समय की धारणा आधुनिक समय की धारणा से सर्वथा भिन्न थी। उस समय वे वास्तव में त्यागमय जीवन बिताते थे और अपना समस्त समय जनता की सेवा में लगा देते थे। इसलिये उस समय भिक्षा पर जीविका चलाना उनके लिये लज्जा की बात नहीं समझी जाती थी। वास्तव में सबसे उच्च आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने वाले लोग ही भिक्षा पर निर्वाह किया करते थे, क्योंकि उन्होंने अपरिग्रह ब्रह्मचर्य और कर्तव्यपरायणता का व्रत लिया था। पर यह बात वर्तमान समय के लिये नहीं कही जा सकती, क्योंकि अब इन से साधु-संन्यासी और ब्राह्मणों ने जनता की ओर का कार्य तो छोड़ दिया है और भीख माँगकर खाना अपना परम्परागत अधिकार समझ लिया है। भिक्षा माँगना अथवा जनता द्वारा प्राप्त दान पर निर्वाह करना उसी दशा में ठीक कार्य समझा जा सकता है जब कि हम जनता से जितना पाते उससे अधिक उसकी सेवा कर दिखायें।

हमारे हिन्दू शास्त्रों में सेवा को ‘गहन धर्म’ कहा गया है। इसके द्वारा मनुष्य सहज में भगवद् प्राप्ति कर सकता है। और सच्चे सेवा भाव वाले की ईश्वर प्राप्ति की आकाँक्षा अपने लिये नहीं होती वरन् इसलिये होती है कि भगवान के प्रसाद से वह एक ऐसा स्रोत बन जाय जिससे अन्य मानव लाभ उठा सकें। इस पथ पर आरुढ़ मनुष्य अपने लिये नहीं वरन् दूसरों के लिये जीवित रहता है। कृष्णा, ईसा आदि इसी श्रेणी के महापुरुष थे और इसीलिए संसार आज तक उनकी पूजा कर रहा है।

हम यह अनुमान कर सकते हैं कि ईश्वर चाहे तो अपनी शक्ति को संपूर्ण सृष्टि में किसी भूमिका पर और किसी भी सीमा में प्रवाहित कर सकता है। किन्तु, वह वास्तव में ऐसा करता है। प्रत्येक भूमिका पर उसकी शक्ति एक निश्चित परिधि होती है और इस प्रकार हम, जो उसी तेज के अँश हैं, कुछ ऐसे कार्यों को कर सकते हैं कि वह महान शक्ति स्वयं नहीं करती वरन् हमसे करवाती है। आप देखते हैं कि शहरों के बिजलीघरों को, जो बिजली उत्पन्न करने वाले स्थानों से सैकड़ों कोस दूर होते हैं, बहुत बड़े परिमाण और बहुत तेज प्रवाह में बिजली भेजी जाती है। शहर के उन बिजली घरों के पास भी मशीनें रहती हैं। विद्युत के तेज प्रवाह को ग्रहण करके उसके वेग को धीमा कर देती हैं और उसे बिजली की अनेक धाराओं में बाँट कर रोशनी आदि कार्यों के उत्तम बना देती है। इसी प्रकार सच्चे जनसेवक जो बड़ा कार्य करके दिखला देते हैं वह ईश्वरीय शक्ति की प्रेरणा रूप ही होता है।

इस प्रकार प्रत्येक महापुरुष आध्यात्मिक शक्ति का एक स्त्रोत ही होता है जिसके द्वारा लोक कल्याण का कार्य साधित होता रहता है। जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश सदैव जीवधारियों को जीवन प्रदान करता रहता है उसी प्रकार ईश्वरीय शक्ति भी प्रति समय हमारे चारों ओर विद्यमान रहती है जिसे ग्रहण करके हम दूसरों का उपकार कर सकते हैं। सेवा करने वाले को कभी यह भाव मन में न लाना चाहिये कि हम दूसरों का उपकार कर रहे हैं और इसके बदले में उन्हें हमारा कृतज्ञ होना चाहिए। उन्हें ऐसा विचार करना चाहिये कि हम ईश्वर के हाथ में एक लेखनी की तरह हैं जिसके द्वारा उसके विचार जगत में प्रकट होते हैं।

वह ज्ञान जो तुम्हें सेवा करने के योग्य बनाता है, वह संकल्प जो तुम्हें ज्ञान की ओर ले जाता है, और वह प्रेम जो तुम्हारे संकल्प को प्रेरणा देता है यही तुम्हारा साधन है। संकल्प, ज्ञान और प्रेम यह ईश्वरीय शक्ति के तीन स्वरूप हैं और जो ईश्वर की सेवा या भक्ति करना चाहते हैं उन्हें इन्हीं तीनों स्वरूपों को जगत के सम्मुख व्यक्त करना चाहिये। यदि हम इस कार्य को निस्वार्थ भाव से पूरा करेंगे तो मानव जाति की सेवा के साथ ही हम ईश्वर के निकट भी पहुँच जायेंगे।


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